लखनऊ: 1960 के दशक की शुरुआत में इटावा के राजपुर गांव के एक अखाड़े में सैफई के एक नौजवान ने एक जाने-माने पहलवान सरयूद्दीन त्रिपाठी को चुनौती दी, और आधे घंटे चले मुकाबले में उन्हें चित कर दिया.
सालों बीत गए यही युवा मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन कुश्ती के प्रति उनका जुनून नहीं घटा. एक किस्सा काफी चर्चित है कि एक युवा बाहुबली नेता 1990 की गर्मियों में ‘पंचम तल’—एनेक्सी भवन की पांचवीं मंजिल पर स्थित मुख्यमंत्री कार्यालय—पहुंचा, तो 50 वर्षीय मुलायम अपनी धोती समेटकर कुश्ती के दांव आजमाने लगे और थोड़ी ही देर में अपने प्रतिद्वंद्वी को चित कर दिया.
तीन बार यूपी के मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव—जिनका सोमवार को गुरुग्राम स्थित एक निजी अस्पताल में निधन हो गया—के बारे में बात करते हुए भाजपा एमएलसी नरेंद्र भाटी—जो पहले समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ थे—ने दिप्रिंट को बताया, ‘नेताजी अपने चरखा दांव के लिए जाने जाते थे. साथ ही कहा जाता था कि अगर मुलायम राजनीति में भी किसी पर अपने दांव का इस्तेमाल करते थे तो उनके प्रतिद्वंद्वी को हार माननी ही पड़ती थी.’
खांटी राजनेता यादव के राजनीतिक ‘दांव-पेच’ उनके सहयोगियों और विरोधियों दोनों को हतप्रभ कर देते थे. कभी मुलायम के साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रखने वाले दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर इसका प्रत्यक्ष उदाहरण रहे हैं.
समाजवादी जनता पार्टी (सजपा) प्रमुख की कोशिश पहली बार तब नाकाम हुई जब उन्होंने 1992 में अपने समर्थक मोहन सिंह को राज्यसभा भेजने का प्रयास किया लेकिन मुलायम सिंह ने सुनिश्चित किया कि उनके छोटे भाई राम गोपाल यादव संसद के उच्च सदन पहुंचे. इसके बाद फिर उन्होंने एक और बड़ा कदम उठाया. कभी स्कूल मास्टर रहे मुलायम ने चंद्रशेखर के साथ अपना नाता तोड़ लिया और सितंबर 1992 में समाजवादी पार्टी के गठन की घोषणा कर दी.
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लोहियावादी बनने का सफर
22 नवंबर 1939 को इटावा जिले के सैफई गांव में जन्मे मुलायम ने अपनी स्कूली शिक्षा गांव के स्कूल में ली और के.के. कॉलेज से ग्रेजुएशन पूरी की. वे 1963 में जैन इंटर कॉलेज, करहल में सहायक अध्यापक बने.
लेखक देशबंधु वशिष्ठ ने अपनी किताब ‘मुलायम सिंह यादव और समाजवाद’ में लिखा है कि किसानों को मिलने वाली पानी के लिए सिंचाई दरें बढ़ाने के यूपी सरकार के फैसले के खिलाफ (राम मनोहर) लोहिया की तरफ से आंदोलन चलाए जाने के दौरान 14 वर्षीय मुलायम ने गिरफ्तारी दी और 1954 में इटावा जेल में बंद रहे.
अपने कॉलेज के दिनों में ही मुलायम सोशलिस्ट पार्टी के दिग्गज राम मनोहर लोहिया और राज नारायण से प्रभावित हो गए थे.
एक प्रभावशाली वक्ता मुलायम अपने कॉलेज के छात्र संघ अध्यक्ष चुने गए और अपने राजनीतिक गुरू नाथू सिंह और समाजवादी नेता अर्जुन सिंह भदौरिया के नेतृत्व में सियासी गुर सीखे. उन्होंने ही उन्हें लोहिया से मिलवाया था.
वशिष्ठ लिखते हैं, यही वह समय था जब लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) जातिवाद के उन्मूलन और महंगाई के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा के खिलाफ अभियान चला रही थी.
वरिष्ठ पत्रकार सुनीता ऐरन ने अपनी किताब ‘अखिलेश यादव: विंड्स ऑफ चेंज’ में लिखा है कि मुलायम ने अपनी चुनावी राजनीति की शुरुआत 1967 में एसएसपी के टिकट पर जसवंतनगर से मैदान में उतरने के साथ की, जो सीट उन्हें नाथू सिंह ने बतौर गिफ्ट दी थी और चुनाव जीतकर पहली बार विधायक बने.
राजनीति में व्यस्तता बढ़ने के साथ ही मुलायम ने 1984 में जैन इंटर कॉलेज से इस्तीफा दे दिया.
कैडर पर मजबूत पकड़ वाले जननेता
सपा के संस्थापक सदस्य कुंवर रेवती रमण सिंह ने दिप्रिंट को बताया, ‘लोहिया, राज नारायण और फिर चरण सिंह—जिनके संगठनों ने कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा खोला—के संरक्षण में ही वे बतौर राजनेता सियासत की सीढ़ियां चढ़े और उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हार की वजह साबित हुए.
1977 में मुलायम पहली बार यूपी में कैबिनेट मंत्री बने जब जनता पार्टी ने उस साल के शुरू में लोकसभा चुनाव के अपने शानदार प्रदर्शन को दोहराया.
लेखक राम सिंह और अंशुमान यादव की पुस्तक ‘मुलायम सिंह: ए पॉलिटिकल बायोग्राफी’ बताती है, ‘चरण सिंह की मृत्यु (1987) के बाद उनकी पार्टी लोकदल की कमान संभालने को लेकर सत्ता संघर्ष हुआ और उनके बेटे अजित सिंह के पिता की विरासत पर दावा जताने के साथ लोक दल में दो-फाड़ हो गया. और दो संगठन बने अजित के नेतृत्व वाला लोक दल (अ) और हेमवती नंद बहुगुणा के नेतृत्व वाला लोक दल (ब).’
किताब के मुताबिक, लोक दल (ब) के पीछे असली ताकत मुलायम थे. साथ ही बताया गया है कि मुलायम ने 1989 में लोक दल (ब) का जनता दल में विलय करा दिया और उसी साल पहली बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.
समाजवादी नेता और समाजवादी पार्टी के संस्थापक सदस्य हरमोहन सिंह यादव के बेटे सुखराम सिंह यादव कहते हैं मुलायम सिंह की राजनीति व्यावहारिक थी.
सुखराम ने दिप्रिंट को बताया कि जमीनी स्तर पर मुलायम के काम ने ही उन्हें 1980 और 1990 के दशक में सत्ता में बनाए रखा जबकि गैर-कांग्रेसी पार्टियां बिखरी हुई थीं.
सुखराम ने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि पूर्व प्रधानमंत्री वी.पी. सिंह ने 1980 के दशक के अंत में स्थानीय निकाय चुनावों के लिए एक अभियान के दौरान कानपुर में अपने भाषण में उनके नाम के उल्लेख से परहेज किया. सुखराम बताते हैं, ‘…नेताजी ने उन्हें तीन बार रोका और उन्हें मेरा नाम लेने को कहा. अपने कार्यकर्ताओं के लिए उनके मन में इसी तरह सद्भाव और सम्मान रहता था.’
ऐसा ही एक किस्सा समाजवादी नेता सुनीलम ने भी सुनाया था. 1998 में मध्य प्रदेश में मुलताई पुलिस फायरिंग के बाद उनके और किसानों के खिलाफ 66 मामले दर्ज किए गए थे.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘नेताजी हमेशा अपने कार्यकर्ताओं के बारे में सोचते थे. जबकि आमतौर पर उनके कद के नेता कार्यकर्ताओं की परवाह नहीं करते थे. जब मैं (फायरिंग की) घटना के संबंध में आपराधिक मामलों का सामना कर रहा था, तो नेताजी ने मुझसे कहा कि वह चिंतित हैं और उन्होंने वकीलों से भी बात करने की कोशिश की. उन्होंने मुझसे कहा कि उन्हें लग रहा है कि मुझे दोषी ठहराया जाएगा और जमानत पाने के लिए कानूनी सहायता से मेरी पूरी मदद की.’
प्रधानमंत्री पद पर पहुंचने से चूके
सुखराम ने इस बात पर अफसोस जताया कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) प्रमुख लालू प्रसाद यादव की वजह से मुलायम प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचते-पहुंचते चूक गए.
इस घटनाक्रम के बारे में बताते हुए रेवती रमण ने कहा कि 1997 में जब तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने देवेगौड़ा सरकार गिराई थी, तब माकपा के दिग्गज नेता हरकिशन सिंह सुरजीत ने इंद्रकुमार गुजराल के आगे अपनी पसंद मुलायम को छोड़ दिया क्योंकि लालू सपा प्रमुख के खिलाफ थे.
सुरजीत ने दिल्ली में पीएम उम्मीदवार के लिए नेताजी के नाम को अंतिम रूप दे दिया था लेकिन राजद नेता लालू यादव ने इसका विरोध किया. मुलायम प्रधानमंत्री बन सकते थे लेकिन लालू की वजह से ऐसा नहीं हो पाया.
2014 में मुलायम ने लालू पर तंज कसते हुए यह कहा भी था कि पीएम बनने का उनका सपना अधूरा रह गया, सिर्फ ‘उन लोगों के कारण जो बाद में रिश्तेदार बने.’ हालांकि, यह खुशी का एक मौका था जब लालू की सबसे छोटी बेटी राज लक्ष्मी की शादी मुलायम सिंह के पोते तेज प्रताप के साथ हो रही थी.
वह तीन बार मुख्यमंत्री तो बने (1989-91, 1993-95 और 2003-07), लेकिन अपने पूर्ववर्तियों की तरह मुलायम अपना कार्यकाल पूरा करने में नाकाम ही रहे. हालांकि, हर पार्टी में दोस्त बनाने की कला ने मुलायम को यूपी की राजनीति की अस्थिरता के बावजूद अपने कदम जमाए रखने में काफी मदद की. यूपी की राजनीति उस समय सीधे दिल्ली से प्रभावित होती थी.
भाटी ने कहा, ‘नेताजी में किसी भी दल के नेताओं के साथ अच्छे संबंध बनाने की काबिलियत थी. यहां तक कि अगर कोई राजनीतिक विरोधी भी होता, तो भी वह दोस्ती बनाए रखते और कभी कोई अनुरोध टालते नहीं थे.’
उन्होंने याद दिलाया कि कि मुलायम ने 1996 में वी.पी. सिंह के अनुरोध पर राज्यसभा की एक सीट छोड़ दी थी.
भाजपा एमएलसी ने कहा, ‘सपा तीन सदस्यों को राज्यसभा भेजने की स्थिति में थी. हालांकि, उस समय बीमार चल रहे वी.पी. सिंह के एक फोन ने नतीजे को बदल दिया. वी.पी. और मुलायम लंबे समय तक सियासी विरोधी रहे थे. हालांकि, कैंसर पीड़ित वी.पी. सिंह ने मुलायम से कहा कि यह उनका आखिरी अनुरोध हो सकता है और उन्होंने अपने दोस्त वसीम अहमद को राज्यसभा भेजने में मदद करने को कहा. हालांकि, नामांकन पत्र तैयार थे लेकिन मुलायम ने अपने सहयोगियों से कहा कि वी.पी. सिंह के अनुरोध को पूरा करना जरूरी है.’
उनकी व्यावहारिकता और सियासी समझ उस समय फिर सामने आई जब हमेशा कांग्रेस विरोधी राजनीति के सहारे आगे बढ़े मुलायम ने 2008 में विश्वास मत जीतने में यूपीए सरकार की मदद की. उस समय वाम मोर्चे ने भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु करार को लेकर सरकार से समर्थन वापस ले लिया था.
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धरती पुत्र से ‘मुल्ला मुलायम’ तक
उनके अंग्रेजी विरोधी रवैये का ही नतीजा है कि हिंदी प्रशासनिक और अदालती कामकाज की आधिकारिक भाषा बनी. इसके अलावा पिछड़े वर्गों और किसानों के कल्याण के लिए किए गए काम ने 1990 के दशक में मुलायम को ‘धरती पुत्र’ का तमगा दिलाया.
यकीनन, मुलायम के लगभग पांच दशकों के राजनीतिक जीवन में सबसे महत्वपूर्ण घटना 30 अक्टूबर 1990 को घटी जब यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने पुलिस को उन कारसेवकों पर गोली चलाने का आदेश दिया, जो बाबरी मस्जिद की ओर मार्च कर रहे थे. उन्होंने टिप्पणी की थी, ‘उन्हें कोशिश करने दो और अयोध्या पहुंचने दो. हम उन्हें कानून का मतलब समझाएंगे.’
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस फैसले ने मुलायम को मुसलमानों के ‘एकमात्र तारणहार’ के तौर पर पेश किया.
रेवती रमण का कहना है, ‘उन पर तब मुल्ला मुलायम का ठप्पा लग गया था लेकिन उन्होंने संविधान की रक्षा की. वे संविधान के अनुयायी थे. यूपी के गांवों के युवाओं की जुबान पर यही नारा रहता था—जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है.’ नेताजी असंभव को भी संभव कर दिखाते थे.’
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्रो. नदीम रिजवी ने मुलायम को ‘एक ऐसा विशिष्ट राजनेता बताया जिन्होंने खुद को मुसलमानों के हितैषी के रूप में पेश किया.’ मध्ययुगीन इतिहास के प्रोफेसर ने दिप्रिंट को बताया, ‘आम तौर पर राजनेता अपने हितों के लिए ऐसा करते हैं. मुसलमानों तक आउटरीच किसी ठोस कदम के बजाय पार्टी में मुस्लिम चेहरों तक सीमित थी.’
लेकिन इसने समाजवादी पार्टी को 1990 के दशक से अपने प्रसिद्ध मुस्लिम-यादव फॉर्मूले के कारण मुसलमानों की पहली पसंद बनने से नहीं रोका.
विवादों में घिरे लेकिन सियासी जरूरत बने रहे
मुलायम सिंह का विवादों से भी नाता रहा है. 2014 में रेप के लिए मौत की सजा का विरोध करने वाले उनके बयान ने देशभर में हलचत मचा दी थी. उनके बयान—‘लड़के हैं, गलती हो जाती है’ ने उनके प्रतिद्वंद्वियों को गुंडों और गुंडों को पनाह देने वाली पार्टी बताते हुए सपा पर हमला करने का एक बड़ा मौका दे दिया.
उनके समकालीन नेता मुलायम को उनकी दूरदर्शिता के लिए भी याद करते हैं जैसा कि इस दिग्गज नेता ने 2010 और 2017 में दावा किया था कि चीन भारत पर हमले की तैयारी में जुटा है और नई दिल्ली उसकी आक्रामकता के मुकाबले के लिए तैयार नहीं है. सपा प्रमुख 1996 से 1998 तक संयुक्त मोर्चा सरकार में रक्षा मंत्री भी रहे.
रेवती रमण ने कहा, ‘उन्होंने संसद में कई बार चीन का मुद्दा उठाया. आखिर देखिए गलवान और अरुणाचल में क्या हुआ है. नेताजी ने जो कुछ भी कहा उसका कुछ अर्थ था.’
एएमयू में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर मिर्जा अस्मेर बेग ने दिप्रिंट को बताया कि मुलायम से जुड़े विवाद इस वजह से भी उपजे क्योंकि कि एक वक्ता के तौर पर वह जनता से जुड़े रहते थे. उन्होंने कहा, ‘जमीनी स्तर के एक राजनेता के तौर पर कई बार ऐसा लगता है कि मुलायम ने कुछ कड़ी टिप्पणियां की थीं. लेकिन ये टिप्पणियां उनके जैसे जमीनी स्तर के राजनेता के पूरे व्यक्तित्व पर भारी नहीं पड़ सकतीं.’
सपा मुखिया और उनकी उपलब्धियों की सराहना करते हुए राजनीतिक विश्लेषक रमेश दीक्षित ने दिवंगत नेता को ‘अपनी जुबान का पक्का इंसान’ बताया.
लखनऊ यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के पूर्व प्रोफेसर ने दिप्रिंट को बताया, ‘मुलायम सिंह यादव आधुनिक शिक्षा, निखरे व्यक्तित्व, मजबूत या राजसी पारिवारिक पृष्ठभूमि वाले विशिष्ट भारतीय राजनेताओं के किसी भी ढांचे में फिट नहीं होते हैं, लेकिन फिर भी, 1970 के दशक के उत्तरार्ध से यूपी की राजनीति में एक निर्णायक फैक्टर बने रहे.’
दीक्षित ने कहा, ‘उन्होंने कांग्रेस के एन.डी. तिवारी, बसपा के कांशीराम और भाजपा के कई अन्य दिग्गजों के खिलाफ चुनावी जंग लड़ी. वह केवल दो चीजों को सबसे ज्यादा अहमियत देते: लोगों के साथ अपने अत्यधिक गहरे जुड़ाव और मजबूत दृढ़ संकल्प को. जब तक कोई राजनेता सो कर उठता और चाय आदि पीता, तब तक नेताजी पूरे यूपी के 1,000 लोगों से मिल चुके होते थे. वह किसान एकता के प्रतीक और ‘जुबान के पक्के’ इंसान होने के लिए जाने जाते रहे हैं.’
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