नई दिल्ली: केरल के अलप्पुझा की साफिया पीएम एक मिशन पर निकली हैं. वह इस्लाम में विश्वास नहीं करती फिर भी वह शरीयत कानून के बंधन से बाहर नहीं निकल पा रही हैं. अब वह चाहती हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी उन्हें नास्तिक घोषित कर दे.
यह उनकी इकलौती बेटी को उनकी सारी संपत्ति विरासत में मिलने की दिशा में पहला कदम है – शरीयत कानून इसका केवल आधा हिस्सा उनकी बेटी को देने की इजाज़त देता है, और बाकी का आधा हिस्सा साफ़िया के भाई को जाएगा. ऐसे समय में जब समान नागरिक संहिता एक गर्म राजनीतिक मुद्दा है, तब साफ़िया का मामला महिलाओं के प्रति मुस्लिम पर्सनल लॉ के भेदभावपूर्ण तत्वों के बारे में रोशनी डालता है.
वह चाहती है कि अदालत इस मामले का समाधान करे जिसके मुताबिक किसी व्यक्तिगत के साथ उसी कानून के तहत व्यवहार किया जाता है जिसमें उसका जन्म हुआ है. इस मामले में उनका एंट्री प्वाइंट विरासत से जुड़ा अधिकार है. वह धर्मनिरपेक्ष भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 (Indian Succession Act 1925) का लाभ तभी उठा सकती है जब शीर्ष अदालत उन्हें नास्तिक घोषित कर दे.
50 साल की साफिया ने दिप्रिंट को बताया, “मैंने इस्लाम छोड़ दिया क्योंकि धर्म के नियम और परंपराएं महिलाओं के खिलाफ हैं. और फिर भी, ऐसा निर्णय लेने के बाद भी, इस्लाम मुझे अपनी ही संपत्ति विरासत में देने में बाधा बन रहा है. इसका कोई समाधान निकालने की जरूरत है,”
मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट 1937 के अनुसार, एक मुस्लिम महिला अपने परिवार की संपत्ति के एक तिहाई से अधिक की उत्तराधिकारी नहीं हो सकती है. यदि वह अकेली संतान है, तो वह अपने परिवार की संपत्ति का अधिकतम 50 प्रतिशत प्राप्त कर सकती है, जबकि शेष राशि किसी पुरुष रिश्तेदार को दी जाती है.
साफिया सिर्फ कागजों पर मुस्लिम हैं. उनके पिता भी नास्तिक हैं. वह कहती हैं, “मेरी मां का धर्म में विश्वास था लेकिन मेरे ऊपर किसी धर्म को मानने का दबाव नहीं डाला गया. मुझे अपना रास्ता चुनने की आज़ादी थी,”
वह उस जोखिम से अच्छी तरह वाकिफ हैं जो उनके उनके जैसे लोगों को उठाना पड़ता है. साफ़िया केरल के तार्किक संगठन एक्स-मुस्लिम समूह की महासचिव हैं, जिसे आधिकारिक तौर पर 2020 में पंजीकृत किया गया था. वह आगे कहती हैं, यह किसी भी एशियाई देश में अपनी तरह का पहला मामला है.
साफिया कहती हैं, ”किसी न किसी दिन तो इन मुद्दों को उठाना ही होगा.”
हालांकि, सिर्फ नास्तिक होना कानून की नज़र में पर्याप्त नहीं है. धर्मनिरपेक्ष उत्तराधिकार अधिनियम का लाभ उठाने के लिए किसी को भी कानूनी रूप से नास्तिक घोषित किया जाना चाहिए. और अधिनियम की धारा 58 विशेष रूप से भारत में मुसलमानों पर इसे लागू होने से छूट देती है.
इस कानूनी प्रोविज़न का मतलब है कि उसे अपने पिता की संपत्ति का केवल एक-तिहाई हिस्सा मिलेगा. साफ़िया कहती हैं, “इसे बदलने के लिए, उन्हें अदालतों में जाकर खुद को नास्तिक घोषित करना होगा.” वह यह भी बताती हैं कि मुस्लिम पर्सनल लॉ की धारा 2 उनके पिता को उपहार या वसीयत के रूप में उससे अधिक राशि हस्तांतरित करने से रोकती है.
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व्यक्तिगत लड़ाई
साफिया इस्लाम या कुरान के केंद्रीय सिद्धांतों में विश्वास नहीं करती है. वह कहती हैं, “धर्म के अनुसार एक पुरुष दो महिलाओं के बराबर है. यही वह तर्क है जिसके द्वारा शरिया कानून में उत्तराधिकार के नियमों का मसौदा तैयार किया गया है. यह अन्याय के अलावा और कुछ नहीं है,”
लेकिन वह खुद को नॉन प्रैक्टिसिंग मुस्लिम मानती हैं. “मैं अभी भी ईद के लिए नए कपड़े खरीदती हूं और बिरयानी बनाती हूं,” वह हंसती है, “लेकिन मैं रोज़ा नहीं रखती और नमाज़ नहीं पढ़ती.”
इसीलिए वह इस लड़ाई को देश की शीर्ष अदालत तक ले गई हैं. साफ़िया सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पहले दायर की गई एक याचिका का भी हिस्सा हैं, जिसका उद्देश्य “सर्वव्यापी मुस्लिम पर्सनल लॉ में मौजूद संविधान-विरोधी तत्वों को खत्म करना और इसे सभी के लिए समावेशी और स्वीकार्य बनाना” है.
उनके अनुसार, पर्सनल लॉ के कई विवाह, तलाक और गोद लेने जैसे कई पहलू विवादास्पद हैं. उन्होंने विरासत वाले मामले पर फोकस करने का फैसला किया क्योंकि यह “100 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं” को प्रभावित करता है.
कभी महंगी मछलियों की कृषि करने वाली किसान साफिया कहती हैं, “हमें कहीं न कहीं से शुरुआत करनी होगी. जहां भी मुझे लगता है कि कोई समस्या है, मैं उसे ठीक करने में लग जाती हूं. मुझे यह भी उम्मीद है कि यह दूसरों के लिए लड़ाई में शामिल होने के लिए एक प्रेरणा बनेगा,”
सिंगल मदर या अकेली मां साफिया के लिए विरासत का मुद्दा एक व्यक्तिगत मामला है. उनकी एक मात्र बेटी है, और उनकी संपत्ति का आधा हिस्सा व उनके पिता की संपत्ति का दो-तिहाई हिस्सा पाने वाला नामित पुरुष रिश्तेदार, उनका भाई, डाउन सिंड्रोम से पीड़ित है.
उनके वकील प्रशांत पद्मनाभन ने पहले दिप्रिंट को बताया था, “यह बर्बाद हो जाएगा क्योंकि याचिकाकर्ता [साफ़िया] को अपने भाई के नाम की संपत्तियों पर अधिकार के बिना सब कुछ मैनेज करना होगा. उनके भाई को दी गई संपत्ति का कोई भी यूज़ नहीं हो पाएगा,”
लेकिन उनके भाई की बीमारी उनकी लड़ाई के लिए कोई महत्व नहीं रखती है. वह कहती हैं, “यह कहना कि मेरे भाई को जो मिलना है, उसका केवल एक तिहाई ही मुझे मिलेगा, यह भेदभाव है, चाहे उसे डाउन सिंड्रोम हो या नहीं.”
कब आया बदलाव का विचार
साफ़िया को अपने स्कूल के दिनों में धर्म की भेदभावपूर्ण प्रकृति के बारे में पता चला. बड़े होते हुए, उन्होंने देखा कि परिवार के सदस्य अपनी संपत्ति का बंटवारा कैसे करते हैं. यही वह चिंगारी थी जिसने उन्हें इस्लाम छोड़ने के लिए प्रेरित किया.
वह अपने अंदर विकसित हुई इस स्तर की तार्किक सोच का श्रेय अपने पिता द्वारा घर पर बनाए गए माहौल को देती हैं. वह कहती हैं, ”उनके साथ अपने विचारों पर खुलकर चर्चा करने की आजादी थी.”
साफ़िया ने अपना जीवन इन चर्चाओं को अपने लिविंग रूम से बाहर ले जाने और मुसलमानों, विशेषकर मुस्लिम महिलाओं तक पहुंचने में बिताया है. वह उन्हें विस्तार से समझाती हैं कि पर्सनल लॉ भेदभावपूर्ण क्यों हैं. बदलाव लाने की दिशा में यह पहला कदम था.
साफ़िया कहती हैं, “95 प्रतिशत लोग सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं. महिलाएं बदलाव के लिए तुरंत आवाज़ उठाती हैं. पुरुष अधिक झिझकते हैं. बेशक, वे मेरे सामने कुछ नहीं कहते लेकिन उनके लहज़े से यह स्पष्ट है,”
केवल उन्हीं लोगों ने इसे एक सिरे से खारिज कर दिया जिनके ऊपर धर्म का अत्यधिक प्रभाव था. वह कहती हैं, “वे कहते हैं कि ये ‘अल्लाह के कानून’ हैं और इसे बदला नहीं जा सकता.” कुछ रिश्तेदारों ने भी अपना विरोध दर्ज कराया है, लेकिन साफिया डटी हुई हैं.
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यूसीसी
सिर्फ साफ़िया जैसे एक्स-मुस्लिमों ने ही मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुद्दे को नहीं उठाया है. बीजेपी के लिए भी यह पसंदीदा मुद्दा है. शुक्रवार को भोपाल में एक चुनावी रैली के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दावा किया कि कांग्रेस “मुस्लिम पर्सनल लॉ को वापस लाना चाहती है” और केवल भाजपा ही इसे रोक सकती है. उन्होंने कहा, भाजपा यह सुनिश्चित करेगी कि भारत “समान नागरिक संहिता पर चलेगा”.
लेकिन साफ़िया इसे कोई समाधान नहीं मानती, कम से कम इसके मौजूदा स्वरूप में तो नहीं. यह बताते हुए कि हिंदू महिलाओं को भी 2005 के बाद ही पिता की संपत्ति में बराबरी का अधिकार मिला वह कहती हैं, ”आप सिर्फ मुस्लिम पर्सनल लॉ को निशाना नहीं बना सकते, जबकि हिंदू पर्सनल लॉ भी उतने ही खराब हैं.”
वह कहती हैं, “यूसीसी के साथ अब समस्या यह है कि इस बात का डर व्यापत है कि यह अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों को निशाना बनाएगा. अगर यह सभी नागरिकों – पुरुषों, महिलाओं, ट्रांसजेंडर, हिंदू, ईसाई, मुस्लिम – को समान मानता है तो मैं इसका स्वागत करूंगी,”
साफिया कहती हैं, लेकिन सबसे पहले ऐसे कानून का एक मसौदा तैयार करना होगा. और इसे चर्चा के लिए संसद और जनता के समक्ष रखा जाना चाहिए. वह सवाल करती हैं, “कानून आयोग को हमारी प्रतिक्रिया और सिफारिशें मांगनी चाहिए. यदि ऐसा कोई कानून लाया जाता है और इस प्रक्रिया का पालन किया जाता है तो मेरी समस्याएं हल हो जाएंगी, मैं इसका समर्थन क्यों नहीं करूंगी?”
फिलहाल साफिया को ऐसा होता नहीं दिख रहा है. इसलिए, उन्हें संविधान के धर्मनिरपेक्ष प्रावधानों तक नास्तिक लोगों के पहुंच के लिए मौजूदा कानूनों में संशोधन करने के लिए लड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं दिखता है.
वह कहती हैं, “यह मेरे लिए करो या मरो जैसा है. मैं चाहती हूं कि मरने से पहले अगली पीढ़ी के लिए कुछ धर्मनिरपेक्ष कानून लागू हो जाएं. भले ही मैं सफल न होऊं, मैं चाहती हूं कि मुझे ऐसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाए जिसने कोशिश की.”
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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