नयी दिल्ली, 20 अगस्त (भाषा) उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश सूर्यकांत ने बुधवार को न्याय तक पहुंच के मामले में अत्यंत विशेषाधिकार प्राप्त और सबसे कमजोर लोगों के बीच की खाई को पाटने का आह्वान किया।
न्यायमूर्ति कांत ने ‘‘सभी के लिए न्याय- कानूनी सहायता और मध्यस्थता: बार और पीठ की सहयोगात्मक भूमिका’’ विषयक व्याख्यान में अपने संबोधन में कहा कि कानूनी सहायता महज कानूनी दान नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की उत्तरजीविता के लिए आवश्यक ‘संवैधानिक ऑक्सीजन’ है।
उन्होंने कहा, ‘‘जो बात मुझे सबसे ज़्यादा परेशान करती है, वह है एक विरोधाभास जिसे हमने अनजाने में पैदा कर लिया है- दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में, न्याय तक पहुंच हाल तक समृद्धि (समृद्ध वर्ग) का एक विशेषाधिकार थी। जब कानूनी फीस मासिक आय पर भारी पड़ जाती है, जब प्रक्रियाओं के लिए साक्षरता की जरूरत होती है, जिसका लाखों लोगों में अभाव है, जब अदालतों के गलियारे स्वागत से ज्यादा डराने लगते हैं – तो हम एक कठोर वास्तविकता से रू-ब-रू होते हैं।’’
शीर्ष अदालत के न्यायाधीश ने कहा, ‘‘हमने न्याय के मंदिर बनाए हैं जिनके दरवाजे उन्हीं लोगों के लिए बहुत संकरे हैं जिनकी सेवा के लिए उन्हें बनाया गया था। न्याय का तराजू तब तक संतुलित नहीं रह सकता जब तक कि केवल एक पक्ष ही अपनी शिकायतें उन पर रखेगा।’’
अपनी अदालत में हाल ही में हुई एक मामले की सुनवाई का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा कि कई वरिष्ठ अधिवक्ता पेश हुए और वे सभी चाहते थे कि याचिका पर सीधे शीर्ष अदालत में सुनवाई हो।
न्यायमूर्ति कांत ने कहा, ‘‘मैंने प्रतिक्रिया दी, जो निश्चित रूप से मेरे दिल से आई थी। मैंने कहा कि क्या हम उच्चतम न्यायालय का द्वार सिर्फ चुनिंदा वादियों और चुनिंदा वकीलों के लिए ही खुला रखेंगे? जब हम न्याय के मंदिर की बात करते हैं, तो हम उन लोगों की बात करते हैं जिनकी न्याय तक पहुंच नहीं है। हमें न्याय में संतुलन बनाए रखने की जरूरत है, चाहे उनका पेशा कुछ भी हो या एक वादी के रूप में उनकी स्थिति कुछ भी हो।’’
न्यायमूर्ति कांत नालसा के कार्यकारी अध्यक्ष भी हैं।
उन्होंने कहा कि कानून को हर भाषा बोलनी चाहिए, हर गांव को सिखाना चाहिए और न्याय की हर पुकार का जवाब देना चाहिए।
भाषा राजकुमार सुरेश
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