नई दिल्ली: स्वामी विवेकानन्द की लोकप्रिय भगवाधारी, पगड़ीधारी छवि आज एक विवाद का विषय बन गई है. बीजेपी-आरएसएस उन्हें अपना प्रतीक मानते हैं, जबकि वैचारिक विरोधी दक्षिणपंथी पार्टियों पर उन्हें “हथियार” देने का आरोप लगाते हैं. तो क्या यह जरूरी हो जाता है कि प्रसिद्ध हिंदू संत और दार्शनिक पर एक और पुस्तक का विमोचन किया जाए?
जो लोग आरएसएस-बीजेपी की विचारधारा से सहमत नहीं हैं, वे निश्चित रूप से ऐसा सोचते हैं. यही कारण है कि वे हाल ही में गोविंद कृष्णन वी की नई किताब, विवेकानंद: द फिलॉसफर ऑफ फ्रीडम पर चर्चा करने के लिए दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में इकट्ठा हुए.
एक्टिविस्ट और राजनेता योगेंद्र यादव ने कहा, “संघ परिवार जो कुछ भी छूता है, धर्मनिरपेक्ष उदारवादी उससे दूर भागते हैं. हम समान विचारों और आकृतियों का त्याग करके सांस्कृतिक विनियोग में उनकी सहायता करते हैं. दुर्भाग्य से, इस विनियोग के पहले पीड़ितों में से एक स्वामी विवेकानन्द थे.”
कार्यक्रम का संचालन कर रहे दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी प्रोफेसर एनपी एशले ने कहा, “विद्वानों और अकादमिक वार्तालापों को जो करना चाहिए वह हमें पहले से कल्पना की गई धारणाओं पर दोबारा विचार करने की अनुमति देता है, जो इस पुस्तक का लक्ष्य है.”
उन्होंने कहा कि इसमें इस्तेमाल किए गए कुछ आंकड़े खलबली पैदा करते हैं.
विवेकानन्द के विचार
सत्ता में आने के बाद से, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार विवेकानंद पर चर्चा की है. यहां तक कि उन्होंने एक बार कहा था कि वह एक बार रामकृष्ण मिशन आश्रम में एक भिक्षु बनना चाहते थे. जब अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प 2020 में ‘नमस्ते ट्रम्प’ कार्यक्रम के लिए भारत आए थे तो उन्होंने भी स्वामी विवेकानन्द का नाम लिया था. हालांकि, उन्होंने उनके नाम का गलत उच्चारण किया था. कांग्रेस भी इसमें पीछे नहीं है. राहुल गांधी ने पिछले साल कन्याकुमारी से अपनी भारत जोड़ो यात्रा शुरू की थी, जहां उन्होंने विवेकानंद रॉक मेमोरियल में हिंदू संत को श्रद्धांजलि दी थी.
अपनी पुस्तक के माध्यम से, कृष्णन यह दिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि विवेकानन्द का धार्मिक दर्शन, सामाजिक विचार और विचारधारा हिंदुत्व के बिल्कुल विपरीत हैं.
कृष्णन कहते हैं, “ध्यान केंद्रित करने के चार पहलू हैं, जिनमें विवेकानन्द का दर्शन आरएसएस से भिन्न है या उसे चुनौती देता है: धर्म, खासकर इस्लाम और ईसाई धर्म के प्रति उनका दृष्टिकोण; हिंदू धर्म की उनकी व्याख्या; पश्चिम के प्रति उनका रवैया, जो उन्हें संघ परिवार से दिन और रात की तरह अलग है. और तथ्य यह है कि विवेकानंद एक असाधारण व्यक्तिवादी थे जबकि आरएसएस एक निश्चित सामूहिकता में विश्वास करता है.”
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लेखक ने इस वैचारिक विरोधाभास पर 13 अध्याय लिखे हैं. ‘विवेकानंद का हिंदू धर्म बनाम संघ परिवार का हिंदू धर्म’ शीर्षक वाले पार्ट में; ‘द इंडिविजुअल एंड सोसाइटी: विवेकानंद एंड द आरएसएस’, और ‘द पॉलिटिकल-जेंडर एंड कास्ट’ में उन्होंने विभिन्न विवादास्पद मुद्दों और उन पर विवेकानंद के रुख का विवरण दिया है. हालांकि, इसकी उदारवादियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों ने तुरंत निंदा की है.
इतिहासकार एस इरफान हबीब, जो पैनल का हिस्सा भी थे, ने बताया कि विवेकानंद विभिन्न प्रकार के प्रभावों के प्रति ग्रहणशील रहे. उन्होंने तर्क दिया कि कैसे उनके भाषण और लेख आज के संदर्भ में प्रासंगिक हैं, खासकर मध्यकालीन भारतीय इतिहास की व्याख्या और शिक्षण के मामले में.
हबीब ने कहा, “भारत का भविष्य नामक अपने निबंध में, विवेकानन्द ने सुझाव दिया कि भारत पर मुसलमानों की विजय का समाज के दलित और गरीब वर्गों पर मुक्तिदायक प्रभाव पड़ा. जो लोग वर्तमान में उनकी विरासत का दावा करते हैं, उन्हें इस ऐतिहासिक काल पर उनके विचारों पर ध्यान देना चाहिए.”
इसके अलावा, इतिहासकार ने कहा, विवेकानंद ने बड़े पैमाने पर मुगल काल के स्मारकों का दौरा किया. उन्होंने कहा, “उन्होंने आगरा में सिकंदरा और फ़तेहपुर सीकरी, दिल्ली में हुमायूं का मकबरा और लखनऊ में इमामबाड़ा का पता लगाया. उन्होंने अकबर की प्रशंसा की. अकबर की तुलना उन्होंने अशोक के बाद भारत के सबसे महान शासकों में से एक से की.”
एक जटिल बहस
कृष्णन ने विवेकानन्द से जुड़ी बहस की जटिलता को स्वीकार किया. शायद यह जटिलता इस तथ्य से उत्पन्न होती है कि अधिकांश भारतीयों ने केवल उनका प्रसिद्ध शिकागो भाषण पढ़ा है. जबकि विवेकानन्द पर एक विशाल साहित्य उपलब्ध है, जिनका स्वयं का कार्य नौ खंडों और 5,000 पृष्ठों में फैला है. हालांकि, कुछ गलत व्याख्याएं उन्हें जाति पदानुक्रम और हिंदू वर्चस्ववाद के समर्थक के रूप में चित्रित करती हैं. योगेंद्र यादव ने इसपर भी बात की.
यादव ने कहा, “क्या वह एक गौरवान्वित हिंदू थे? हां. क्या उन्हें विश्वास था कि हिंदू धर्म में कुछ विशेष है? शायद उन्हें था. लेकिन क्या आप किसी धर्म के प्रचारक पर यह विश्वास करने का आरोप लगा सकते हैं कि उनके धर्म में कुछ विशेष है? नहीं, इसीलिए क्योंकि वह उपदेशक हैं. लेकिन क्या वह हिंदू श्रेष्ठतावादी थे? वह नहीं थे. पूरी बात यह है. उनका यही हाल कर दिया गया है.”
दर्शकों ने विवेकानंद के आध्यात्मिक माता-पिता और गुरुओं, रामकृष्ण परमहंस और सारदा देवी को लेकर किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं होने के चलते सवाल भी उठाया. कृष्णन ने स्पष्ट किया कि उन्होंने इस पुस्तक को जीवनी के रूप में नहीं, बल्कि पहले से उनको लेकर बनाई गई धारणाओं को चुनौती देते हुए, विवेकानन्द के विचारों के कालक्रम के रूप में देखा है. उन्होंने कहा, उनके पास उनके बारे में लिखने का आध्यात्मिक इरादा या अधिकार भी नहीं था.
जहां एक श्रोताओं ने लोगों तक इस पुस्तक को अधिक-अधिक पहुंचाने के लिए इसे हिंदी में भी अनुवाद करने का आग्रह किया, वहीं दूसरे ने हिंदू धर्म के बारे में विवेकानंद के विचार की अंबेडकर की व्याख्या और धारणा के बारे में पूछा. जवाब में, लेखक ने अपनी पुस्तक के अंतिम अध्याय का हवाला देते हुए जाति और हिंदू धर्म के मामले पर विवेकानंद और अंबेडकर के बीच “दिलचस्प समानता” के बारे में बताया.
इसके बाद यादव ने बताया कि कैसे भारतीय अपने ऐतिहासिक सिद्धांतों के प्रति काफी उपेक्षित हैं.
उन्होंने कहा, “यदि यूनानी दर्शन पूरी दुनिया में पूजनीय है, तो यह सिर्फ इसलिए नहीं है कि प्लेटो और अरस्तू ने कुछ अच्छी किताबें लिखी हैं. उन्होंने ऐसी बातें भी लिखीं जो अच्छी नहीं थीं. यह सदियों से पश्चिमी परंपरा में उनके चारों ओर कैनन-निर्माण है जिसने उन्हें स्थायी व्यक्तित्व बना दिया है. हम अरस्तू को केवल गुलामी का समर्थन करने के लिए याद नहीं करते हैं. हम उन्हें कई अन्य अच्छी चीजों के लिए भी याद करते हैं.”
यादव ने इस बात पर जोर दिया कि भारतीय अपने विचारकों की समस्याओं, खासकर 100-150 साल पहले के छोटे-मोटे मतभेदों पर विशेष ध्यान देते हैं. उन्होंने इसे “ऐतिहासिक कालभ्रमवाद” या ऐतिहासिक शख्सियतों को आज के मानकों के आधार पर परखना कहा.
उन्होंने कहा, “आप आज जाति के बारे में जो सोचते हैं उससे गांधी, अम्बेडकर, विवेकानन्द या नारायण गुरु का मूल्यांकन नहीं करते. विचारों के इतिहास को दोबारा पढ़ना और हमारी वर्तमान धारणाओं को विचारकों पर थोपना एक गलती है.”
(संपादनः ऋषभ राज)
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