कविताओं को पसंद करने वाला व्यक्ति किसी भी भाषा, धर्म, देश से परे जाकर अपनी रूचि की रचनाओं और कवियों को ढूंढ लेता है. ऐसा करना बड़ा ही जटिल काम है क्योंकि एक अकेले भारत में ही कई भाषाओं में लोग लिखते हैं और सब तक पहुंचना काफी मुश्किल है लेकिन कुछ कवि अपनी शख्सियत और रचनाओं के जरिए पाठकों तक अपनी राह बना लेते हैं. ठीक वैसे ही जैसे पंजाब के बड़े ही बेतरतीब और मेहनतकश परिवेश से आने वाले बेहद निराले कवि- लाल सिंह दिल थे.
पंजाब और कविता की बात हो तो अमृता प्रीतम, शिव बटालवी, पाश से लेकर अमरजीत चंदन तक याद आते हैं लेकिन लाल सिंह दिल की क्रांतिकारी कवितायें और उनकी जिंदगी काफी कुछ दिलचस्पी भरी घटनाएं समेटे हुए हैं. इसलिए पंजाबी कवि सुरजीत पतार ने कहा है, ‘वह 20वीं सदी के पंजाबी के सबसे शीर्ष कवियों में गिने जाते हैं’.
पंजाब के रामदासिया समुदाय में जन्म से लेकर, पढ़ाई के लिए संघर्ष, निम्न जाति के कारण भेदभाव का शिकार और फिर नक्सल आंदोलन से जुड़ना, राज्य छोड़कर इस्लाम धर्म अपनाना, ये तमाम घटनाक्रम लाल सिंह दिल की जिंदगी को जानने समझने के लिए उत्सुकता पैदा करती हैं. और सबसे दिलचस्प बात ये है कि इन तमाम कठिनाइयों के बीच उनका इंकलाबी तेवर- जो उन्हें एक समृद्ध कवि के तौर पर स्थापित करता है.
लाल सिंह दिल एक ऐसे कवि हैं जो मुफलिसी में पैदा हुए और दर-दर की ठोकरें खाकर उसी गरीबी में अपने आखिरी दिन गुजारने को मजबूर हुए. लेकिन सामाजिक दंश और अपने परिवेश को लेकर उन्होंने शब्दों के माध्यम से जो तस्वीर खींची वो बेतरतीब समाज के ढांचे और उसकी संरचना को बयां करती है.
लाल सिंह दिल की कविताओं में मजदूर वर्ग का संघर्ष, सामाजिक दंशों की छाप, प्रेमी दिल का इंतज़ार- सभी व्यापकता के साथ नज़र आते हैं.
लाल सिंह दिल की कविताओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद करने वाली लेखिका और पत्रकार निरुपमा दत्त का मानना है कि दिल उस क्रांति की तलाश में थे जो सभी बेड़ियों को तोड़ दे. वो मानती हैं कि पंजाबी साहित्य में दिल का कद निर्विवाद है और इसलिए उन्हें कवियों का कवि कहा गया है.
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नक्सली आंदोलन से निकला क्रांतिकारी कवि
1970 के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से शुरू हुआ नक्सल आंदोलन देश के कई हिस्सों में फैला और पंजाब में भी इसका व्यापक असर पड़ा. इसी बीच साहित्य और कला से जुड़े काफी लोग इसकी तरफ आकर्षित हुए.
11 अप्रैल 1943 में पंजाब के घुंघराली शिक्खां में रामदासिया समुदाय में जन्मे लाल सिंह दिल भी 1969 के करीब नक्सली आंदोलन से जुड़ गए लेकिन कुछ ही समय बाद उन्होंने खुद को इससे अलग कर लिया. जेल में रहने के दौरान ही 1971 में उनका पहला कविता संग्रह सतलुज दी हवा प्रकाशित हुआ.
दिप्रिंट से बातचीत करते हुए पंजाब विश्वविद्यालय में राजनीतिक विज्ञान के प्रोफेसर रौनकी राम ने बताया, ‘1971 में जब सतलुज दी हवा प्रकाशित हुई तो उनकी कविताएं पंजाब में क्रांतिकारी संघर्ष की प्रतीक बन गई.’
पुलिस की गिरफ्त में आने के बाद वो करीब दो साल बाद जेल से छूटे और उन्होंने पंजाब छोड़कर उत्तर प्रदेश जाने का फैसला किया जहां उन्होंने मुजफ्फरनगर के आम के बागान में काम किया और वहीं उन्होंने इस्लाम धर्म भी अपना लिया.
निरुपमा दत्त ने एक लेख में लिखा है, ‘जब रेडिकल आंदोलन को कुचल दिया गया, तो हर कोई अपने वर्ग के पाले में लौट आया, कई लोगों के पास ‘घोषित अपराधियों’ के रोस्टर से अपना नाम हटवाने के लिए पर्याप्त प्रभाव था लेकिन दिल के पास ऐसा कोई विशेषाधिकार नहीं था. उनके परिवार को जेल के बाहर उसी तरह तड़पाया गया जैसे उन्हें अंदर तड़पाया गया था.’
दिल का मानना था कि मुस्लिम धर्म में जातीय भेदभाव नहीं होता. हालांकि दत्त के अनुसार, ‘दिल ने मुस्लिम आइडेंटिटी इसलिए भी अपनाई ताकि उनकी शादी हो सके. लेकिन कुछ सालों बाद उन्हें ये महसूस हुआ कि मुस्लिमों के बीच भी जातिगत भेदभाव है.’
दत्त ने अमरजीत चंदन के हवाले से लिखा है, ‘लाल कभी भी किसी भी महिला के संपर्क में नही रहे. इसलिए महिला के साथ न रहने पाने का दुख उनकी कविताओं में भी दिखता है.’
यूपी में रहते हुए भी उन्होंने कवितायें लिखीं और इस दौरान वो कई उर्दू लेखकों के संपर्क में भी आए.
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रेडिकल लिटरेरी मूवमेंट
लाल सिंह दिल ने अपनी आत्मकथा दास्तां में इस बात का विस्तार से जिक्र किया है कि कैसे उन्हें बचपन से ही जातीय भेदभाव झेलना पड़ा. उन्होंने एक घटना का जिक्र किया है जिसमें जब वे महज 5 या 6 साल के थे तब जाट किसानों के कुएं पर नहाने के कारण उनको बूरी तरह पीटा गया था.
लाल सिंह दिल के मित्र और पंजाबी के लोकप्रिय लेखक और कवि अमरजीत चंदन के अनुसार, ‘लाल सिंह दिल का जन्म चमार परिवार में हुआ था. इसका जिक्र उनकी कविताओं में भी कई बार आता है. उन्होंने अपनी आत्मकथा में खुलकर अपने उच्च जातियों के वर्चस्व के बारे में लिखा है जो उन्होंने अपने इलाके, स्कूल और नक्सल संगठन में रहते हुए भोगा है.’
हालांकि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर चमन लाल का कहना है कि लाल सिंह दिल के साथ कोई भेदभाव नहीं हुआ बल्कि कुछ लोगों ने इसे ऐसे ही फैला रखा है.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘लोगों ने आइडेंडिटी पॉलिटिक्स के चलते लाल सिंह दिल और संत राम उदासी को दलित मूवमेंट के खाते में डाल दिया है. ये लोग रेडिकल मूवमेंट का हिस्सा रहे हैं और 70 के दशक के लिटरेरी मूवमेंट के बड़े स्तंभों में से एक हैं लाल सिंह दिल.’
चमन लाल ने कहा, ‘दलित खाते में इनको डाला गया यहां तक तो बात ठीक है लेकिन इनके साथ भेदभाव हुआ ये कहना बिल्कुल भी सही नहीं है.’
लाल सिंह दिल के परिवार की आर्थिक स्थिति बदतर होने के बाद भी वो अपने समुदाय से 10वीं कक्षा पास करने वाले पहले व्यक्ति थे. पढ़ाई के साथ वो दिहाड़ी मजदूरी भी करते ताकि परिवार चल सके.
प्रोफेसर रौनकी राम ने बताया, ‘गरीबी के साथ-साथ दिल ने अपने जीवन में सामाजिक बहिष्कार और जातिगत भेदभाव भी अनुभव किया. दिल ने अपने संघर्षरत जीवन को कविताओं के जरिए व्यक्त किया है.’
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‘रेडिकल लिटरेरी मूवमेंट के सबसे बड़े कवि’
रौनकी राम ने कहा, ‘लाल सिंह दिल ने अपनी कविता के जरिए अमिट छाप छोड़ी है जिसमें समानता, सामाजिक न्याय और आजादी का संघर्ष, जो पंजाब में 1960 में शुरू हुआ जिसे नक्सली लहर कहा गया, वो साफ दिखता है.’
उन्होंने कहा, ‘उनकी कविताएं पंजाब में क्रांतिकारी संघर्ष के साथ-साथ राज्य में गरीबों और दलितों के दुखों और पीड़ाओं का प्रतीक बन गई.’
वहीं प्रोफेसर चमन लाल ने बताया कि लाल सिंह दिल न केवल दलित बैकग्राउंड से थे बल्कि उनकी जिंदगी असल मेहनतकश जैसी थी. वो श्रमिक थे और उनकी कविताओं में श्रमिक जीवन और दलित जीवन बड़े ही संवेदनशीलता से आया है.
प्रोफेसर चमन लाल ने दिप्रिंट को बताया, ‘1970 के रेडिकल लिटरेरी मूवमेंट के सबसे बड़े कवियों में से लाल सिंह दिल एक थे. पाश और लाल सिंह दिल उस वक्त के बड़े कवियों में से एक थे. साहित्य में आज बहुत बड़े नाम है, वो उसी दौरान के लिटररी रेडिकल मूवमेंट के प्रोडक्ट हैं.’
प्रोफेसर चमन लाल ने बताया, ‘1997 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज में ‘ब्लैक एंड दलित’ विषय पर 3-4 दिन का सेमिनार किया था जिसमें लाल सिंह दिल को मैंने बुलाया था.’
उन्होंने कहा, ‘वो बहुत बड़े रेडिकल कवि हैं और आज भी रेडिकल कविताओं में उनका बहुत बड़ा नाम है.’
चमन लाल ने बताया कि लाल सिंह दिल की शब्द कविता उनकी पहचान हो चुकी है और बीते 50 सालों से उनकी इस कविता की काफी चर्चा होती है.
शब्द तो कहे जा चुके हैं
हमसे भी बहुत पहले
और हमसे भी बहुत पीछे के
हमारी हर जुबान
हो सके तो काट लेना
पर शब्द तो कहे जा चुके हैं
हालांकि अमरजीत चंदन का मानना है कि बाद के दिनों में लाल सिंह दिल की कविताएं पहले के मुकाबले कमजोर थी.
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‘असफल कथा’
दिल की पंजाबी कविताओं का हिंदी में अनुवाद करने वाले पंजाब विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. सत्यपाल सहगल ने अपनी किताब प्रतिनिधि कविताएं- लाल सिंह दिल में लिखा है, ‘लाल सिंह दिल एक असफल कथा था, इसको कई तरीकों से कहा जा सकता था.’
उन्होंने लिखा है, ‘दिल के संवेदनशील मन पर पड़ी चोटों ने उसे विद्रोही बना दिया और वह क्रांति और नए समाज के न केवल सपने लेने लगा, बल्कि, उसकी शीघ्र चरितार्थता में भी विश्वास करने लगा.’
प्रोफेसर सत्यपाल सहगल के अनुसार दिल की रचनाओं का अनुवाद करना इतना आसान नहीं था क्योंकि वो एक ऐसा कवि था जो उन लोगों के बारे में कविता लिखता था जो समाज में दीन, हीन और सबसे उपेक्षित रहे हैं.
सहगल कहते हैं, ‘दिल का काम बेजोड़ है क्योंकि उस जैसा सूक्ष्म कलाबोध दुर्लभ है. उसका अपना सौंदर्यशास्त्र है, जो टफ तो है पर रफ नहीं. वहां गुस्सा, उबाल, नफरत, प्रोटेस्ट और खुरेजी तो है ही, गूंजें-अनुगूंजे भी हैं.’
लाल सिंह दिल कभी ज्यादा किताबों की शोहबत में नहीं रहे लेकिन उन्होंने अपने परिवेश को शब्दों के जरिए बखूबी उतारा. उन्होंने कविता की तीन किताबें लिखीं जिसमें ‘सतलज दी हवा’ (1971), ‘बहुत सारे सूरज’ (1982), ‘साथर’ (1997) शामिल हैं और दास्तां नाम से उनकी आत्मकथा भी है. उनकी समस्त कविताएं नागलोक शीर्षक वाली किताब में है जो 1998 में छपी थी.
दिल की कविताएं आज भी कितनी पसंद की जाती हैं इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि यूट्यूब पर उनकी कई कविताओं का लोगों ने पाठ किया है. वहीं एक साल से ज्यादा समय तक चले किसान आंदोलन में भी लाल सिंह दिल की कविताओं के बैनर नज़र आए थे.
इंकलाबी कविताओं के लिए मशहूर लाल सिंह दिल ने लिखा भी है:
हमारे लिए
पेड़ों पर फल नहीं लगते
हमारे लिए
फूल नहीं खिलते
हमारे लिए
बहारें नहीं आतीं
हमारे लिए
इंकलाब नहीं आते
जाति-धर्म की बेड़ियों में जकड़ दिए गए प्रेम पर दिल ने अपनी जात कविता में लिखा है:
मुझे प्यार करने वाली
पराई जात कुड़िये
हमारे सगे मुर्दे भी
एक जगह नहीं जलाते
दिल ने निरुपमा दत्त से कहा था कि एक दिन लोग आएंगे और उनकी झोपड़ी के बाहर बरगद के पेड़ के नीचे कव्वाली गाएंगे. दत्त का मानना है कि सादात हसन मंटो के समराला, जहां से दिल भी ताल्लुक रखते हैं, वहां यह एक दिन जरूर होगा.
प्रोफेसर रौनकी राम का मानना है कि लाल सिंह दिल विजनरी कवि थे और उनकी कविताएं बेजुबानों की आवाज़ है. वो कहते हैं, ‘1971 में जब दिल की किताब ‘सतलुज दी हवा’ छपी तो उनकी कविताएं पंजाब में क्रांतिकारी संघर्ष और इसके साथ-साथ गरीबों और दलितों के दुखों का भी प्रतीक बन गईं’.
15 साल पहले 14 अगस्त 2007 को दिला का निधन हुआ था. डॉ. सत्यपाल सहगल ने अपनी किताब में लिखा है, ‘उसका जीवन-अंत जिस मुफलिसी और उपेक्षा से भरा था, वह एक मायने में साहित्यिक समाज में सुपरिचित चीज़ है और कायदे से किसी शहादत की श्रेणी में नहीं रखी जाती है, जैसे एके-47 की गोलियां खाकर पाश की जिंदगी के अंत की शहादत.’
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