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Friday, 22 November, 2024
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अपने सिक्कों के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने काफी लड़ाई लड़ी, यहां तक कि औरंगज़ेब भी उसे नहीं रोक सका

मुगल इंडिया ने अपने सिक्कों की सुरक्षा की. लेकिन उसी वक्त ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रवेश होता है.

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नई दिल्ली: इस साल फरवरी में 1,000 से अधिक सिक्कों का संग्रह लगभग £2 मिलियन या 21.15 करोड़ रुपये में बेचा गया था. इसे अलग करने वाली बात यह थी कि लगभग हर सिक्के का संंबंध ब्रिटिश राज और क्रूर बहुराष्ट्रीय हमलावर, ईस्ट इंडिया कंपनी से लगाया जा सकता था. इन सिक्कों में से एक दुर्लभ 1765 का बॉम्बे गोल्ड मोहर था जो £99,200 या 1.04 करोड़ रुपये में बिका.

मुद्रा वह पहली चीज़ नहीं है जिसे ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ जोड़ा जाता है, लेकिन 1874 में इसके भंग किए जाने तक इसके शासनकाल के दौरान, ईआईसी ने पूरे उपमहाद्वीप में टकसालों के माध्यम से सम्राटों और महाराजाओं के खिलाफ अपनी ताकत झोंकी. उन्होंने स्थानीय सिक्कों को चलाया जो लोकप्रियता हासिल नहीं कर सके या शासक राजाओं के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा. ऐसा करने के लिए, इसे क्षेत्रीय टकसालों से, स्थानीय चित्रों और लिपियों से प्रभावित और देश भर में प्रचलन में मौजूद विभिन्न सिक्कों से जूझना पड़ा.

7 जून को नई दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित अपने व्याख्यान, ‘क्वाइन्स ऑफ द रेल्म: ए न्यूमिस्कटिक ओवरव्यू ऑफ 18th सेंचुरी इंडिया, इतिहासकार संजय गर्ग ने मुगल इतिहासकार खफी खान के वृत्तांत का एक किस्सा सुनाया.

जब औरंगजेब को सूरत में किंग विलियम III और क्वीन मैरी के नाम पर फ़ारसी शैली के सिक्कों के प्रमाण मिले, जिन्हें कंपनी ने अपनी मुद्रा स्थापित करने के लिए ढाला था (जिस पर साम्राज्य की अत्यधिक अशिक्षित आबादी द्वारा ध्यान नहीं दिया जाएगा), तो वह बहुत क्रोधित हुआ. इसके बाद, उसने बंदरगाह शहर में रहने वाले कंपनी के सदस्यों को कैद करने का आदेश दिया. उसने अपनी सेना को बंबई के किले को घेरने का आदेश दिया, और कुछ समय तक ईआईसी अपनी मुद्रा का उत्पादन नहीं कर सकी.

कंपनी 1672 से बंबई में अपनी टकसाल चला रही थी, और तब से यूरोपीय शैली के सिक्के बनाने की कोशिश कर रही थी. हालांकि, इस मुद्रा में दो कमियां थीं.

सबसे पहले, इसने मुग़ल शासकों को काफी नाराज़ कर दिया. उन्होंने इन सिक्कों को सुल्तान और इस्लाम का अपमान माना.

इंस्टाग्राम पेज @sikkawala चलाने वाले मुद्रा के जानकार शाह उमैर ने कहा, “पवित्र पुस्तक में लिखे गए इस्लामी रीति-रिवाज और राजत्व के सिद्धांत के अनुसार, शुक्रवार की नमाज में अपने नाम का खुतबा [उपदेश] पढ़ना और अपने नाम का सिक्का चलाना राजा का दैवीय अधिकार है.”

सिक्कों से उनका नाम मिटा देना, विशेषकर विदेशी शक्तियों द्वारा, इस दैवीय अधिकार को छीन लेना था.

गर्ग के अनुसार, यहां तक कि पेशवाओं और पटवर्धन, जिनका मुगलों के साथ विवादास्पद संबंध था, ने भी 19वीं सदी की शुरुआत तक मुगल शैली के सिक्के (स्थानीय विविधताओं के साथ) चलाए क्योंकि यह सबसे व्यापक रूप से प्रसारित मुद्रा थी. शेख ने कहा, “उन्होंने इसमें [सिक्का निर्माण] एकरूपता लाने की कोशिश की और इसे कई तरीकों से मानकीकृत किया. इसने सूरत से ढाका तक देश को एकजुट किया. लेकिन लोग मुग़ल सिक्के को ही सिक्का मानते थे.”


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EIC सिक्कों ने भारत में कैसे जड़ें जमाईं?

लेकिन 1717 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी को बम्बई द्वीप पर मुग़ल बादशाह फर्रुखसियर के नाम पर सिक्के ढालने का अधिकार दे दिया गया. सौ साल से भी कम समय के बाद, भारत में इसका प्रभाव काफी बढ़ गया और इसने क्वाइनेज ऐक्ट,च 1835 का लागू किया.

इंग्लैंड के ऑक्सफ़ोर्ड में एशमोलियन संग्रहालय के सहायक संरक्षक शैलेन्द्र भंडारे ने तर्क दिया कि जब कंपनी भारतीय उपमहाद्वीप के तटों पर उतरी, तो वह एक लक्ष्य से प्रेरित थी: व्यापार से अधिकतम लाभ कमाना. ईआईसी के पास न तो राजनीतिक क्षमता थी और न ही अपने सिक्के ढालने की इच्छाशक्ति, अखिल भारतीय मुद्रा अधिनियम लागू करना तो दूर की बात है. भंडारे ने कहा, “अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए उन्हें एक ऐसी मुद्रा की आवश्यकता थी जो लोगों के बीच व्यापक रूप से स्वीकार्य हो.”

भारतीय रिज़र्व बैंक के इतिहासकार और पूर्व केंद्रीय बैंकर बज़िल शेख के अनुसार, कंपनी की अपने सिक्के ढालने की इच्छा का एक अन्य संभावित कारण मुगल राजाओं को ब्रैसेज (धातु को मुद्रा में परिवर्तित करने के लिए शुल्क) का भुगतान करने से बचना था.

इसने मुस्लिम सम्राट के नाम पर मुगल प्रोटोटाइप में सिक्का ढालना शुरू कर दिया.

भंडारे ने कहा, “सिक्के पर सिर्फ नाम ही मायने नहीं रखता. सिक्के ढालने के अधिकार की भी रक्षा की गई; उन पर लड़ाइयां लड़ी गईं.” उनके अनुसार, मुगल, कम से कम औरंगजेब तक, सिक्कों की ढलाई को बहुत अच्छी नजर से नहीं देखते थे. 18वीं शताब्दी तक, ईआईसी ने ऐसे सिक्के स्थापित करने के लिए संघर्ष किया जो शासकों के किसी भी विरोध के बिना ढाले जा सकें और आम जनता द्वारा इसका स्वागत किया जा सके.

औरंगजेब की मृत्यु और उसके बाद सदी की अशांति ने ईआईसी को राजनीतिक और आर्थिक रूप से उपमहाद्वीप पर अपनी पकड़ मजबूत करने की अनुमति दी.

ढहते मुगल साम्राज्य ने धीरे-धीरे सिक्कों पर अपना एकाधिकार खो दिया. शेख ने कहा, “1717 से 1765 तक, मौद्रिक अव्यवस्था थी. किसी ने भी सामग्री या डिज़ाइन के मानक का पालन नहीं किया.”

शुरुआत में इससे ईआईसी को फायदा हुआ. जैसे ही मुगलों ने क्षेत्रीय भागों में बिचौलियों को अपना अधिकार आउटसोर्स किया, कंपनी ने इन टकसालों का नियंत्रण का अधिकार पाने के लिए मुगल डिप्टी प्रतिनिधियों के साथ हेरफेर किया और रिश्वत दी. भंडारे के अनुसार, इन बिचौलियों ने अंग्रेज़ों को 1717 में बॉम्बे टकसाल में फर्रुखसियर के स्वीकृति हासिल करने में मदद की.

मुगल सिक्के, अंग्रेजी टकसाल

उस समय, ईआईसी के पास अपने सिक्के ढालने के लिए राजनीतिक शक्ति नहीं था, लेकिन उसके पास मुगल सिक्के ढालने की क्षमता और स्वतंत्रता थी. भंडारे ने कहा, “वे अब मौद्रिक परिदृश्य में समान हितधारक थे.”

1765 में, यह आधिकारिक तौर पर उपमहाद्वीप में रूलिंग बॉडी बन गया जब इसने दीवान-ए-बंगाल की शक्तियां हासिल कर लीं. इसका मतलब यह हुआ कि कंपनी अब रेवेन्यू कलेक्ट करेगी. शेख ने कहा, “यह तब हुआ जब कंपनी को बाजार में सिक्कों की विविधता के साथ राजस्व एकत्र करने की हानि के बारे में पता चला. विभिन्न सिक्कों के साथ लेन-देन की दर अधिक थी. वे एक ऐसा सिक्का चाहते थे जिससे बिना किसी विवाद के राजस्व एकत्र किया जा सके,”

1835 तक, कंपनी ने कठपुतली शासक शाह आलम के नाम पर सिक्के ढाले, यहां तक कि उनकी मृत्यु के काफी समय बाद भी. शेख ने 1765 के बाद सिक्कों को मानकीकृत करने के कंपनी के प्रयास पर भी प्रकाश डाला. उन्होंने विभिन्न सिक्कों को तब तक भी ‘विमुद्रीकृत’ किया जब तक कि पूरे भारत में केवल पांच तरह के सिक्के बचे थे. 1793 तक, किस्मों को घटाकर तीन कर दिया गया और सिक्के पर अंकित वर्ष निश्चित कर दिया गया.

‘एकसमान सिक्के’ की ओर बदलाव

19वीं शताब्दी में जब ईआईसी ने मराठों को हराया, तब तक वह भारत पर एक पूर्ण राजनीतिक गढ़ स्थापित कर चुका था. अब उसके पास अधिकांश स्थानों पर अपनी मुद्रा बनाने का कानूनी अधिकार था. शेख ने कहा, “मुग़ल को टोकन देने की कोई आवश्यकता नहीं थी; वे विलियम चतुर्थ के प्रति वफादार थे,”

इस प्रकार, 1835 का यूनिफॉर्म क्वाइनेज ऐक्ट 1835 अधिनियमित किया गया. विलियम चतुर्थ के चेहरे वाले सिक्के ढाले गए और पूरे उपमहाद्वीप में प्रसारित किए गए.

उमैर ने इन सिक्कों के महत्व पर प्रकाश डालते हुए कहा, “यह पहली बार था कि भारत के लोग किसी दूसरे देश में शासन कर रहे राजा की तस्वीर देख रहे थे.”

हालांकि, सिक्कों में इस भारी बदलाव से आम लोगों पर उतना प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि वे विभिन्न शासकों और उनकी मुद्राओं के आदी थे. कृष्णोकोली हाजरा ने कहा, “उनके लिए यह महसूस करना संभव नहीं था कि यह कितना बड़ा बदलाव था. वे तो टैक्स दे ही रहे थे. व्यापारियों को ईस्ट इंडिया कंपनी से कोई समस्या नहीं होगी. वे पिछले 150 से अधिक वर्षों से उनके साथ व्यापार कर रहे थे.”

हालांकि, सिक्कों में बदलाव के सभी विवरण एक जैसे नहीं हैं. जैसा कि उमैर और भंडारे दोनों ने उल्लेख किया है, उस समय के ‘शॉफ़’ या मनी चेंजर एक समान सिक्के के कट्टर विरोधी थे जो उनकी आय का स्रोत छीन लेने वाला था. एक समान सिक्के को स्थिर होने में लगभग 50 वर्ष लग गए.

भंडारे के अनुसार, मशीन टकसालों और रेलवे (दोनों औद्योगिक क्रांति के उपहार) के आगमन ने सौदे को सील कर दिया. कंपनी ने बाज़ारों को अपने सिक्कों से भर दिया. ब्रिटिश ताज के तहत ब्रिटिश सिक्का केवल मजबूत हुआ क्योंकि अन्य नियम लाए गए, जिनमें 1861 का पेपर करेंसी अधिनियम और 1906 का यूनिफॉर्म क्वाइनेज ऐक्ट शामिल था.

इसके अपमानजनक अंत के 130 से अधिक वर्षों के बाद, ईआईसी को भारतीय व्यवसायी संजीव मेहता द्वारा रिवाइव किया गया था. उन्होंने 2005 में कंपनी को एक लक्ज़री ब्रांड में बदलने के उद्देश्य से इसके बौद्धिक संपदा अधिकार खरीदे. आज, लंदन में इसका प्रमुख स्टोर लक्जरी चाय, चॉकलेट और सिक्के बेचता है.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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