नई दिल्ली: ‘बेहतरीन, रूढ़िविरोधी आईपीएस अधिकारी’, एक सख्त वार्ताकार, नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो के लिए एक बार-बार ‘हस्तक्षेप करने वाले’ शख्श और राजभवन में एक ‘भाजपा राज्य प्रमुख’ – इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) में अपने लंबे करियर के लिए मिली ढेर सारी प्रशंसा के अलावा आर.एन. रवि ने साल 2019 और 2021 के बीच पहले नागालैंड और अब तमिलनाडु के राज्यपाल के रूप में अपने दो साल के कार्यकाल के दौरान मिली भरपूर आलोचना के साथ ही ये कई उपनाम भी अर्जित किए हैं.
नागालैंड में नगा विद्रोही समूहों को ‘विभाजित’ करने की कोशिश करने वाले सख्त मिजाज वार्ताकार के रूप में जाने जाने से लेकर राजनीतिक खुंदक रखने वाले राज्यपाल बनने तक, रवि आज के दिन में किसी भी राजभवन को सुशोभित वाले सबसे चर्चित व्यक्ति हैं’
अब तमिलनाडु के राज्यपाल के रूप में रवि ने इस महीने तब एक और विवाद खड़ा कर दिया, जब उन्होंने सुझाव दिया कि इस राज्य को ‘तामझिगम’ कहा जाना चाहिए’. जहां तमिलनाडु का मूल अर्थ तमिल ‘भूमि’ है, इसे अब ‘तमिल राष्ट्र ‘ के रूप में भी पढ़ा जाता है, वहीं ‘तमिझगम’ का अर्थ तमिल लोगों का ‘निवास’ या ‘भूमि’ होता है और यह प्राचीन तमिल देश का नाम भी था.’
उन्होंने अपने अभिभाषण से एम.के. स्टालिन के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा अनुमोदित भाषण के कुछ अंशों को छोड़ते हुए विधानसभा को संबोधित किया और फिर सदन की कार्यवाही पूरी होने से पहले ही वहां से बाहर निकल गए. इसके उपरांत उन्होंने एक और उकसावे वाली कार्रवाई के तहत राज्य के प्रतीक को शामिल किये बिना ही पोंगल का निमंत्रण पत्र भेजा और इसमें खुद को ‘तमिझगम’ का राज्यपाल भी बताया’. इस के बाद से राज्यपाल को वापस बुलाने की मांग जोर पकड़ रही है.
साल 2012 में आईबी से सेवानिवृत्ति पाने के बाद, रवि ने ‘द हिंदू’ में प्रकाशित एक ओपिनियन पीस (राय व्यक्त करने वाले आलेख) में नागालैंड में शांति प्रक्रिया शुरू करने के मकसद से नागा विद्रोही समूह एनएससीएन (आईएम) को चर्चा की मेज पर लाने के प्रयासों में शामिल होने के लिए यूपीए II सरकार की आलोचना की थी. ‘चेज़िंग ए चिमेरिक पीस’ शीर्षक वाले इस लेख में रवि ने राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो पर भी निशाना साधा था और उनके प्रयासों को ‘नाटक’ के अलावा कुछ और नहीं बताया था.
रवि ने लिखा था, ‘दिल्ली और एनएससीएन (आईएम) के बीच तथाकथित रूप से तैयार की जा रही इस ‘शांति’ का समर्थन करने के लिए मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो और नागालैंड के विधायकों के बीच की प्रतिस्पर्धी उत्सुकता का हालिया प्रदर्शन एक ‘नाटक’ के अलावा और कुछ नहीं हैं.‘ उन्होंने रियो सरकार पर एनएससीएन (आईएम) का समर्थन करने का आरोप लगाया था, जिसने अन्य नगा ‘मिलिशिया’ को उग्र प्रतिक्रिया के लिए उकसाया, और जिसके परिणामस्वरूप ‘खूनी झड़पें’ हुईं.
उन्होंने लिखा, ‘मिस्टर रियो सत्ता में आए और फिर उनकी सरकार पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ नगालिम की सरकार (गवर्नमेंट ऑफ़ पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ नगालिम- जीपीआरएन) के लिए एक प्रॉक्सी बन गई, जिसमें मिस्टर मुइवा (नागा अलगाववादी नेता थुइनगालेंग मुइवा) वहां के स्वयंभू ‘प्रधान मंत्री’ हैं. कई बार यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि राज्य पर किसका शासन है – मि. रियो का या मि. मुइवा का.’ रवि ने यह सब लिखने के साथ ही यह निष्कर्ष भी निकाला कि एनएससीएन (आईएम) और केंद्र सरकार के बीच बातचीत से ‘शांति’ प्राप्त करना ‘असंभव’ था.
‘दिल्ली और एनएससीएन (आईएम) के बीच चल रही (शांति) प्रक्रिया से स्थाई शांति की उम्मीद करना नामुमकिन है. शांति के लिए किया गया ऐसा कोई भी प्रयास जो इसके महत्वपूर्ण हितधारकों को बाहर करता है, एक उपहास ही है,’ यह रवि द्वारा नवंबर 2012 में प्रकाशित ‘द हिंदू’ वाले एक लेख की अंतिम पंक्ति थी.
इस के दो साल बाद, साल 2014 में, उन्हें मोदी सरकार द्वारा नागालैंड में एक वार्ताकार नियुक्त किया गया और साल 2015 में, रवि एनएससीएन के थुइनगालेंग मुइवा को बात-चीत की मेज पर ले आए. उन्हें व्यापक रूप से साल 2015 में हुए नगा शांति समझौते को अंतिम रूप देने के लिए केंद्र सरकार और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (इसाक-मुइवा) के बीच के फ्रेमवर्क एग्रीमेंट (एफए) के वास्तुकार के रूप में देखा जाता है. इस फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किया जाना एक बहुप्रचारित घटना थी जिसमें प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हुए थे.
फिर, साल 2018 में, रियो एक बार फिर से मुख्यमंत्री चुने गए, लेकिन रवि वार्ताकार के पद पर बने रहे और इसके एक साल बाद ही मोदी सरकार ने उन्हें इस राज्य का राज्यपाल नियुक्त कर दिया. इसके बाद रियो और रवि के बीच लगातार टकराव होते रहे. रियो की पार्टी – नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) – के एक वरिष्ठ नेता, जो इस कथन को उनके नाम के साथ उद्धृत नहीं करना चाहते थे, ने कहा कि साल 2020 में आरएन रवि ने सीएम रियो को एक पत्र लिखा था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि राज्य में ‘कानून और व्यवस्था’ चरमरा गई है, जिसके कारण दोनों उच्च पदस्थ कार्यालयों के बीच टकराव हुआ.’
फिर साल 2021 में, कथित तौर पर एक निर्वाचित सरकार के साथ रवि की बार-बार की आमने-सामने की तकरार और शांति समझौते में कोई प्रगति हासिल करने में उनकी विफलता से परेशान होकर, उन्हें चेन्नई के राजभवन में स्थांतरित कर दिया गया था. लेकिन तमिलनाडु में भी निर्वाचित सरकार के साथ उनका टकराव आवृत्ति और पैमाने के मामले में केवल तेज ही हुआ है.
केरल कैडर के 1976 बैच के आईपीएस अधिकारी रवि, जिन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल का संरक्षण प्राप्त है, को एक टास्क मास्टर (सख्ती से काम करवाने वाले) और ‘आक्रामक’ रवैये वाले अधिकारी के रूप में जाना जाता था. हालांकि, सीधे तौर पर उनके साथ काम करने वाले अधिकारी और राजनेता उनके स्वभाव को लेकर बंटे हुए हैं. रियो के करीबी माने जाने वाले एनडीपीपी नेताओं का कहना है कि रवि एक नौकरशाह ही बने हुए हैं और ‘लोगों और राजनीति से संबंधित संवेदनशील मुद्दों’ को मैनेज करने में असमर्थ रहे हैं.
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जारी है तकरार
तमिलनाडु का राज्यपाल बनाए जाने के पंद्रह महीने बाद भी रवि राज्य की द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) के नेतृत्व वाली सरकार के साथ हर दिन एक लड़ाई का रास्ता चुनकर सुर्खियां बटोरते रहते हैं.
दिप्रिंट ने रवि के साथियों, उनके सहयोगियों और आईपीएस सर्कल के वरिष्ठ लोगों से बात की, जिनमें से कई ने तमिलनाडु के राज्यपाल को आक्रामक रवैये वाला ‘व्यावहारिक’ अधिकारी बताया. के.होर्मिस थरकान, जो रॉ प्रमुख के रूप में सेवानिवृत्त हुए और केरल कैडर में रवि से वरिष्ठ अधिकारी थे, ने उन्हें एक शानदार अधिकारी के रूप में याद किया, जो केरल के सबसे अशांत जिले कन्नूर में राजनीतिक हिंसा की दर को कम करने में कामयाब रहे थे.
उन्होंने कहा, ‘मैं जिस रवि को जानता था वह एक बेहतरीन अधिकारी था जिसका कोई राजनीतिक झुकाव या पूर्वाग्रह नहीं था. उसे हमारे सबसे बेहतरीन अधिकारी, एम.के. जोसेफ (जो केरल के पूर्व डीजीपी थे) द्वारा संवारा और तैयार किया गया था. रवि कन्नूर के एडिशनल एसपी (अतिरिक्त पुलिस आयुक्त थे) और उन्होंने जिस सक्रिय रूप से वहां की हिंसा को कम किया, यह चर्चा का विषय था. फिर वह रैंक्स (पदानुक्रम) में आगे बढ़ गए और उन्हें वहां के एसपी के रूप में पदोन्नत किया गया.’
थरकान ने कहा, ‘वह आईपीएस सर्कल में नॉर्थ ईस्ट स्पेशलिस्ट (पूर्वोत्तर मामले के विशेषज्ञ) के रूप में जाना जाते हैं. वह बहुत अच्छा काम कर रहा थे. हालांकि, एक ही समय में एक वार्ताकार और एक राज्यपाल होने के नाते चीजें वास्तव में जटिल हो सकती हैं. एक वार्ताकार के रूप में विद्रोही समूहों से बात-चीत करना और उन्हें राज्यपाल के रूप में क्रियान्वित करना दो अलग-अलग चीजें हैं और यह जटिल मसला है.’
बहुत अधिक शक्ति
हालांकि उनके सहकर्मियों ने एक पुलिस अधिकारी के रूप में उनकी सराहना की, मगर उनमें से कई ने नागालैंड के राज्यपाल के रूप में उनकी भूमिका के बारे में अपनी आपत्तियां भी व्यक्त की.
रवि के साथ काम करने वाले एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी ने कहा, ‘बहुत अधिक शक्ति लोगों को भ्रष्ट बना देती है. सेवानिवृत्ति के दो साल बाद, वह मोदी सरकार के बहुत करीब हो गए थे. उन्हें उस संयुक्त खुफिया समिति (जॉइंट इंटेलिजेंस कमिटी-जेआईसी) का प्रमुख बनाया गया, जो राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा मुद्दों पर प्रधानमंत्री को सलाह देने वाली नोडल एजेंसी है, और फिर साल 2014 में नागा शांति वार्ता का वार्ताकार नियुक्त कर दिया गया. चार साल बाद, साल 2018 में, उन्हें उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (डिप्टी एनएसए) बनाया गया और उसके एक साल बाद. साल 2019 में, उन्हें नागालैंड का राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया.’
इन सेवानिवृत्त अधिकारी ने कहा: ‘कोई भी इस ट्रेजेक्टरी (प्रक्षेपवक्र) को देख सकता है, यह एक व्यक्ति के पास बहुत अधिक शक्ति निहित करना है. एक वार्ताकार को राज्यपाल के रूप में नियुक्त करने का विचार त्रुटिपूर्ण लगता है.
नागालैंड कैबिनेट के एक वरिष्ठ मंत्री, जो उनका नाम नहीं बताना चाहते थे, ने कहा कि ऐसी नियुक्ति ने हितों का टकराव पैदा किया.
इन मंत्री ने कहा, ‘नागालैंड की राज्य सरकार एनडीए और स्थानीय दल एनडीपीपी का गठबंधन है. इसमें भाजपा हमेशा से एक ऊंचा स्थान चाहती थी और रवि काम बिगाड़ने वाले शख्श की तरह व्यवहार कर रहे थे. वह नागा जनजातियों, इनके गुटों, आंतरिक संघर्षों और एनडीपीपी की कमजोरियों को समझते हैं. उन्होंने मुख्यमंत्री के साथ नियमित रूप से दखलंदाजी करनी शुरू कर दी और इसी प्रक्रिया में उन्होंने सारी गड़बड़ी की. मुइवा का विरोध करना एक बुरा विचार था.’
एनडीपीपी के कई नेताओं ने दिप्रिंट को बताया कि पूर्व राज्यपाल ने प्रशासन और शासन की नियमित प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया और अंत में अपनी हरकतों से केंद्र को भी ‘शर्मिंदा’ किया.
एनडीपीपी के कार्यकारी अध्यक्ष अलेमतेमशी जमीर ने दावा किया, ‘उनके कार्यकाल के दौरान राजभवन और मुख्यमंत्री के बीच कई सारे मतभेद थे. उन्होंने सरकार के कामकाज में दखल देना शुरू कर दिया था और सरकार के कई फैसलों का सार्वजनिक रूप से विरोध भी किया था. उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि (राज्य) सरकार ने एनएससीएन (आईएम) के साथ हाथ मिला लिया है.’
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नागा शांति समझौते को लागू करने में विफल रहे
रवि, जो मूल रूप से पटना, बिहार के रहने वाले हैं, ने अपनी सेवा के शुरुआती वर्षों में केरल में काम किया, क्योंकि वे केरल कैडर के अधिकारी के रूप पुलिस सेवा में शामिल हुए थे. वह एक युवा अधिकारी के रूप में आईबी में शामिल हुए और उन्होंने जम्मू-कश्मीर, उत्तर-पूर्वी राज्यों और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों सहित कई क्षेत्रों में काम किया. उन्होंने आईबी के संयुक्त निदेशक के रूप में भी काम किया और लंबे समय तक गुवाहाटी में तैनात रहे.
साल 2012 में हुई अपनी सेवानिवृत्ति के बाद, दो साल तक, रवि सरकार में किसी पद पर नहीं रहे; लेकिन पूर्वोत्तर में उग्रवाद की रोकथाम में किया गया उनका योगदान, और साथ ही खुफिया इकाई में उनका योगदान भी, जगजाहिर था.
साल 2014 में, पीएम मोदी के कार्यभार संभालने के बाद, रवि को नागा शांति प्रक्रिया के लिए वार्ताकार नियुक्त किया गया और तत्कालीन वार्ताकार के रूप में कार्यरत आईबी में उनके वरिष्ठ अधिकारी रहे अजीत लाल को हटा दिया गया. साल 2018 में उन्हें डिप्टी एनएसए भी बनाया गया था और 2019 में उन्हें नागालैंड का राज्यपाल नियुक्त किया गया था. हालांकि, वह वार्ताकार के रूप में बने रहे. सितंबर 2021 में इस्तीफा देने से पहले रवि ने सात साल तक नागा शांति वार्ता वार्ताकार के रूप में कार्य किया.
कैबिनेट सचिवालय के पूर्व विशेष सचिव और राष्ट्रीय सुरक्षा विशेषज्ञ वप्पला बालचंद्रन ने कहा, ‘वह पहले शख्श हैं जो सभी हितधारकों को एक मेज पर लाने में कामयाब रहे और साल 2015 में शांति वार्ता की शुरुआत की, लेकिन अगले सात वर्षों में शांति समझौते को लागू नहीं किया जा सका. और यह अब एक गड़बड़झाले जैसा है. वरिष्ठ होने के नाते हम उन्हें हमेशा से एक कुशल अधिकारी के रूप में जानते रहे हैं.’
शांति समझौते की धाराओं से संबंधित मुद्दों असहमति के कारण एनएससीएन के थुइनगालेंग मुइवा के साथ उनकी भिड़ंत ने उन्हें एनएससीएन के निशाने पर ला दिया. इसी वजह से शांति समझौते को औपचारिक रूप नहीं दिया जा सका और न ही इसे कार्यान्वित किया जा सका.
1977 बैच के आईपीएस अधिकारी अमिताभ माथुर, जो रॉ के उप निदेशक के रूप में सेवानिवृत्त हुए थे, ने कहा, ‘आर एन रवि की हमेशा एक सक्षम और कुशल अधिकारी के रूप में चर्चा की गई है, जिन्होंने शांति प्रक्रिया की शुरुआत की और कई भूमिगत नागा संगठनों को बात चीत की मेज पर लाया. लेकिन सात से आठ साल की चर्चा के बाद भी, इस समझौते को अभी तक लागू नहीं किया जा सका है.’
हालांकि, तमिलनाडु में उनका कार्यकाल विवादास्पद प्रतीत होता है, मगर राज्य की आरएसएस और भाजपा इकाइयों ने उनके विचारों का समर्थन किया है. तमिलनाडु के भाजपा राज्य इकाई के अध्यक्ष, प्रोफेसर पी. कनगसबापथी ने कहा, ‘हमें (राज्य के नाम पर) राज्यपाल के बयान में कुछ भी गलत नहीं दिखता है. उन्होंने यह नहीं कहा कि इसे अभी ही लागू कर दिया जाना चाहिए. उन्होंने इस बारे में केवल अपनी राय दी, या कोई इसे उनका सुझाव भी कह सकता है, कि इस राज्य को ‘तमिझगम’ के नाम से बुलाया जा सकता है.’
कनगसबापथी ने कहा: ‘भले ही भाजपा या आरएसएस ने आधिकारिक तौर पर इसके बारे में कभी बात नहीं की हो, मगर यह प्राचीन रूप में उपयोग में रही है. तमिल राष्ट्र या तमिलनाडु का अलगाववादी तत्वों द्वारा दुरुपयोग किया जाता है और इस बात को द्रमुक द्वारा प्रोत्साहित किया जाता है. इस विवाद को द्रमुक ने अपने निहित राजनीतिक स्वार्थ के चलते ही हवा दी है.’’
(संपादनः अलमिना)
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