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Saturday, 9 November, 2024
होमदेशविशेषज्ञों ने कहा- सफल भारतीय विदेश नीति के लिए अगले एक दशक में सामरिक स्वायत्तता जरूरी

विशेषज्ञों ने कहा- सफल भारतीय विदेश नीति के लिए अगले एक दशक में सामरिक स्वायत्तता जरूरी

शनिवार को प्रमुख नीति निर्माताओं और विश्लेषकों की ओर से जारी नए पेपर में भारत की 'नेबरहुड फर्स्ट नीति' और उन उपायों पर चर्चा की गई है, जिनसे अगले दशक में वो एशिया में अग्रणी ताकत बन सकता है.

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नई दिल्ली: प्रमुख नीति निर्माताओं, विश्लेषकों और विचारकों के समूह की ओर से जारी नए पेपर के अनुसार, अगर भारत अगले दशक में एशिया में अग्रणी ताकत बनना चाहता है, तो सामरिक स्वायत्तता, खुलापन और समावेशी आर्थिक विकास, उसके मार्गदर्शक सिद्धांत होने चाहिए.

शनिवार को सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने इंडियाज़ पाथ टु पावर: स्ट्रेटजी इन अ वर्ल्ड एड्रिफ्ट के शीर्षक से 53 पन्नों का एक दस्तावेज़ जारी किया.

जिन लेखकों ने मई 2020 के बाद से साथ मिलकर पेपर पर काम किया है, उनमें पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन, ले. जन. (रिटा) प्रकाश मेनन, पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन, अकादमिक सुनील खिलनानी व श्रीनाथ राघवन और विश्लेषक यामिनी अय्यर, नितिन पई तथा अजीत रानाडे शामिल हैं.

पेपर में भारत की नेबरहुड फर्स्ट नीति के सामने पेश चुनौतियों पर चर्चा की गई है कि अफगानिस्तान पर तालिबानी कब्ज़े से आने वाले दशक में भारत के पड़ोस में और अधिक समस्याएं पैदा होंगी और भारत किस तरह चीन और पाकिस्तान सीमाओं के दोहरे खतरे से निपट सकता है.


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भारत को सामरिक स्वायत्तता का विस्तार करना होगा

कुछ लेखकों ने 2012 में भी ऐसा ही एक पेपर प्रकाशित किया था, जिसका शीर्षक था ‘नॉन अलाइंनमेंट 2.0: अ फॉरेन एंड स्ट्रेटजिक पॉलिसी फॉर इंडिया इन द ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी ’. लेकिन ‘गुट-निरपेक्ष’ शब्द के स्थान पर हालिया पेपर में उन्होंने ‘सामरिक स्वायत्तता’ का विकल्प चुना है.

पेपर सामरिक स्वायत्तता की व्याख्या, ‘गंभीर राजनीतिक और रणनीतिक निर्णय’ के तौर पर करता है. वो इसकी व्याख्या आर्थिक पदचिन्हों के विस्तार के रूप में भी करता है.

पेपर में कहा गया है, ‘भू-राजनीतिक परिवर्तन और बदलाव के दौर में जोखिम होता है लेकिन इसमें भारत जैसे उभरते देशों के लिए जगह भी बनती है कि वो अपनी सामरिक स्वायत्तता को विस्तार दे सके, यानी अपने महत्वपूर्ण हितों के मामलों में अपेक्षाकृत स्वायत्त फैसले लेने की अपनी क्षमता को बढ़ा सके.

उसमें आगे कहा गया है, ‘महत्वपूर्ण फैसले लेने का समय अभी है ताकि आने वाले दशक में भारत के एशिया तथा उसके बाहर एक अग्रणी शक्ति बनकर उभरने की स्थिति पैदा हो सके.

पेपर में आगे ये भी कहा गया है, ‘घरेलू क्षेत्रीय चिंताओं के मद्देनज़र अपने आर्थिक पदचिन्हों को संकुचित करने की बजाय, भारत को सामरिक स्वायत्तता के लिए संघर्ष करना चाहिए, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था के अंदर प्रतिस्पर्धा से पैदा होती है’.


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भारत को चीन की ‘नकल’ नहीं करनी चाहिए

पेपर में इस विचार की आलोचना की गई है कि भारत को एक नई अंतर्राष्ट्रीय पहचान की जरूरत है, जो उपनिवेशवाद के प्रभावों से मुक्त हो. पेपर में कहा गया है, ‘चीन के एक सभ्यतागत राज्य होने के दावों की एक नकल पेश करने की बजाय, जो उपनिवेशवाद से आहत है, भारत को अपनी ऐतिहासिक राष्ट्रीय पहचान की ताकत और उसके लचीलेपन को मज़बूती के साथ रखना चाहिए’.

उसमें आगे कहा गया है कि भारत को चीन के अधिनायकवादी प्रक्षेपपथ का शिकार नहीं होना चाहिए और उसकी बजाय पूंजी, तकनीक और ज्ञान के संसाधनों का प्रवाह बढ़ाने के लिए अमेरिका, यूरोप और जापान के साथ भागीदारियों का फायदा उठाना चाहिए.

पेपर में ये भी कहा गया कि भारत ‘आज जितना कम समावेशी है, उतना इतिहास में पहले कभी नहीं था’ और वो ‘बिना नियम की सत्ता की होड़’ की ओर बढ़ रहा है. उसमें चेतावनी दी गई है कि इससे देश आंतरिक संघर्षों के जाल में फंस सकता है, जो उसके संसाधनों को सोख लेंगे और उसकी अंतर्राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को भी कमज़ोर कर देंगे.

चीन और पाकिस्तान के साथ विवादित जमीनी सीमाओं के मुद्दे पर पेपर में सुझाव दिया गया है कि भारत को अपनी समुद्री क्षमताओं पर ध्यान लगाकर अपने सामरिक विकल्पों को विस्तार देना चाहिए.

उसमें कहा गया है कि नई दिल्ली ‘हिंद महासागर से प्रशांत महासागर तक फैली संचार की समुद्री लाइनों पर एक अनुकूल स्थान पर होने का’ फायदा उठा सकती है.


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भारत को सार्क तथा नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी को बढ़ावा देते रहना चाहिए

लेखकों का कहना है कि अपनी अर्थव्यवस्था का निरंतर वैश्वीकरण करने और क्षेत्रीय व्यापार समझौतों में शरीक होने से भारत की अर्थव्यवस्था को सहारा मिलेगा.

मसलन, भारत को सार्क को बढ़ावा देते रहना चाहिए और नेबरहुड फर्स्ट पॉलिसी को भी और ज्यादा मजबूती से आगे बढ़ाना चाहिए. वो कहते हैं, ‘पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ संवेदनशील रिश्तों के प्रबंधन में ये विशेष रूप से प्रासंगिक हो जाता है’.

अमेरिका, यूरोपीय संघ, गल्फ को-ऑपरेशन काउंसिल और हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के साथ व्यापार-वार्त्ता को फिर से पटरी पर लाने के भारत के कदम की कुछ विश्लेषकों ने ऐसे व्याख्या की है कि भारत, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी) से बाहर आने के उसके फैसले के प्रभावों को बराबर करना चाहता है.

पेपर में आत्मनिर्भर भारत या आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था की सीमा की भी आलोचना की गई है.

पेपर में चेतावनी दी गई है, ‘आर्थिक आत्म-निर्भरता या आत्मनिर्भर भारत, एक सराहनीय उद्देश्य है लेकिन इसके नतीजे में हमें ऊंची लागत और नीची गुणवत्ता वाली अर्थव्यवस्था में दाखिल नहीं हो जाना चाहिए, जो 1990 के शुरुआती दशक के आर्थिक सुधारों और उदारीकरण से पहले भारत के आर्थिक रिकॉर्ड की विशेषता थी’.


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पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ विकास की रणनीति

पेपर में भारत के विकास के मौजूदा मॉडल और आर्थिक प्रगति की रणनीति की आलोचना की गई है और ये सुझाव दिया गया है कि आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग जैसी उन्नत तकनीकों का फायदा उठाया जाना चाहिए.

पेपर में कहा गया है कि अपनी जलवायु परिवर्तन कूटनीति को नई दिशा देने की ओर जल्द कदम बढ़ाने से भारत को विकासशील देशों के बीच नेतृत्व की भूमिका हासिल करने में मदद मिल सकती है.

इसमें आगे कहा गया है कि क्वॉड संभवत: एक आर्थिक आयाम भी हासिल कर सकता है लेकिन इसमें सिंगापुर, इंडोनेशिया और वियतनाम को भी शामिल किया जाना चाहिए जिससे ‘व्यवहारिक तौर पर एक क्वाड-प्लस बन जाए’.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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