नई दिल्ली: उत्तर भारत के कुछ मुट्ठी भर राज्य केंद्रीय सब्सिडी तथा किसानों को किए जाने वाले ट्रांसफर का ज़्यादातर हिस्सा हथिया लेते हैं- ये खुलासा पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम के सह-लेखन में हुई एक स्टडी में किया गया है.
‘एग्रीकल्चरल फेडरलिज़्म: न्यू फैक्ट्स, कंस्टीट्यूशनल विज़न ’ शीर्षक से इस पेपर में, जिसे 3 सितंबर को इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली में प्रकाशित किया गया, मौलिक सुधार का एक एजेंडा प्रस्तावित किया गया है, जिसमें राज्यों को कृषि का ज़िम्मा सौंपने की बात कही गई है.
स्टडी में तर्क दिया गया है कि राज्य सरकारों को अपने किसानों को उनकी ज़रूरत के अनुरूप प्रोत्साहन उपलब्ध कराने चाहिए, जबकि केंद्र सरकार को प्रतिकूल जलवायु घटनाओं से निपटने के लिए रिसर्च तथा जोखिम कम करने पर फोकस करना चाहिए.
स्टडी में कहा गया है कि सरकारी स्कीमों पर आरोपण दांव या श्रेय की होड़ एक और रोग है जिसने भारतीय कृषि को जकड़ा हुआ है.
सुब्रमण्यम के अलावा पेपर के दूसरे सह-लेखक थे- शौमित्रो चटर्जी, देवेश कपूर और प्रद्युत सेखसारिया.
स्टडी में पता चला कि पांच अलग-अलग मदों में केंद्रीय सब्सिडी और ट्रांसफर्स- समर्थन मूल्यों पर किसानों से खरीद, फर्टिलाइज़र सब्सिडी, सीधे आय हस्तांतरण, खाद्य भंडारों को बनाए रखने की लागत और (समर्थन मूल्यों पर खरीद के लिए) कृषि उत्पादन पर राज्यों के करों का भुगतान- 2019-20 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का करीब 1-1.2 प्रतिशत थे.
लेकिन पैसे का वितरण कुछ मुट्ठी भर राज्यों की ओर झुका हुआ था. मसलन, पूरे देश को देखें तो केंद्रीय ट्रांसफर्स और सब्सिडीज का औसत लाभ प्रति कृषि परिवार 18,000-20,000 रुपए आता है. इसके विपरीत पंजाब में एक कृषि परिवार को करीब 1.2-1.5 लाख रुपए प्राप्त हुए- जो राष्ट्रीय औसत से कई गुना ज़्यादा थे.
कृषि परिवारों को औसत सालाना ट्रांसफर्स हरियाणा में 52,000-65,000 रुपए से लेकर आंध्र प्रदेश में 29,000-32,000 रुपए बिहार में मात्र 14,000 रुपए और पश्चिम बंगाल में 7,000 रुपए से भी कम थे.
मात्रा की दृष्टि से पंजाब और उत्तर प्रदेश प्रमुख लाभार्थी थे लेकिन प्रति परिवार औसत ट्रांसफर के मामले में पंजाब और हरियाणा के मुकाबले दूसरे प्रांत बौने थे. खासकर यदि बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे पूर्वी प्रांतों से तुलना की जाए.
संवैधानिक जनादेश को देखते हुए जिसमें कृषि को राज्य का विषय करार दिया गया है, लेखकों का सुझाव था कि किसानों को प्रोत्साहन और संरक्षण देने के लिए राज्यों के पास योजनाएं लागू करने की आज़ादी और जिम्मेदारी दोनों होनी चाहिए. राज्य खरीद, फसल बीमा और ट्रांसफर्स का काम अंजाम दे सकते हैं लेकिन केंद्र सरकार इनके लिए पैसा नहीं देगी.
पेपर में कहा गया, ‘दीर्घकाल में लक्ष्य ये होना चाहिए कि केंद्र सरकार की भूमिका (उपभोक्ताओं की खाद्य सब्सिडी जारी रखकर) बेहतर पोषण के लिए धन जुटाने तक सीमित हो जाए, जिसमें कृषि तथा उत्पादन विकल्पों का रूप भी बिगड़ने न पाए’.
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श्रेय की होड़
लेखकों ने स्वीकार किया कि पूरी दुनिया और भारत में भी ‘हकदारी को वापस लेना भयानक रूप से कठिन है’ और भारतीय राजनीति तेज़ी से ‘श्रेय की होड़’ को लेकर अति-संवेदनशील हो गई है- जिसमें राजनेता अपने द्वारा शुरू की गई योजनाओं और उनसे मिलने वाले फायदों का सेहरा अपने सर बांधना चाहते हैं.
लेखकों ने कहा, ‘तेलंगाना और ओडिशा प्रांतों में कृषि में सीधे ट्रांसफर की योजनाओं के जवाब में जिस तरीके से पीएम-किसान (किसानों को सीधे नकद सहायता) लाई गई, उससे ये डर ज़ाहिर होता है कि राज्य सरकारें किसानों की सहायता करने का श्रेय अपने ऊपर ले लेंगी’.
इसी प्रकार, चिंतित पश्चिम बंगाल सरकार ने पीएम-योजना को लागू करने से इनकार कर दिया, ताकि केंद्र किसानों की सहायता करने का श्रेय न ले ले. ‘आरोपण दांव इस लगातार फैले चक्र में फंसे हुए हैं’.
पेपर में कहा गया कि कृषि एक खराब यथास्थिति में फंसी हुई है लेकिन ये एक तरह का राजनीतिक संतुलन है…इसके लिए सहकारी संघवाद के एक बड़े डोज़ की जरूरत होगी…जिसमें धीरे-धीरे सब्सिडीज़ और ट्रांसफर्स हटाए जाने के साथ राज्यों को सहायता देनी होगी’.
लेखकों ने आगे कहा कि राज्यों को सुधारों के साथ प्रयोग करने की जरूरत है और उन्हें अपना पैसा वहीं खर्च करना होगा जहां उसकी जरूरत है. मसलन, पश्चिम बंगाल के हालिया बजट में कृषि पर पूंजी खर्च में तेज़ गिरावट देखी गई, जिससे ‘जाहिर होता है कि राज्यों ने कृषि के साथ किस तरह का बर्ताव किया है’.
पेपर में कहा गया कि पंजाब ‘एक दुर्लभ और दुखद मिसाल है कि कैसे कृषि की सफलता ने व्यापक संरचनात्मक परिवर्तन को सुविधाजनक नहीं बनाया है, आंशिक रूप से इसलिए कि केंद्र से मिली बड़ी सब्सिडीज़ ने बेकार यथास्थिति को और सुरक्षित कर दिया है. ऐसा कहा जा सकता है कि पंजाब एक तरह से सहायता के अभिशाप का शिकार है’.
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