नयी दिल्ली, एक अगस्त (भाषा) राज्यों को अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के बीच भी मलाईदार तबके (क्रीमी लेयर) की पहचान करने और उन्हें आरक्षण का लाभ देने से इनकार करने के लिए एक नीति विकसित करनी चाहिए। उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.आर. गवई ने बृहस्पतिवार को यह बात कही।
न्यायमूर्ति गवई ने एक अलग लेकिन सहमति वाला फैसला लिखा, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने बहुमत के फैसले से कहा कि राज्यों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है, ताकि अधिक वंचित जातियों के लोगों के उत्थान के लिए आरक्षित श्रेणी के भीतर कोटा प्रदान किया जा सके।
प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय संविधान पीठ ने 6:1 के बहुमत वाले फैसले में कहा कि राज्यों को अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण करने का संवैधानिक अधिकार है, ताकि उन जातियों को आरक्षण प्रदान किया जा सके जो सामाजिक और आर्थिक रूप से अधिक पिछड़ी हैं।
जिन छह न्यायाधीशों ने सहमति व्यक्त की कि राज्यों को उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है, उनमें से चार ने अपने अलग-अलग निर्णयों में लिखा कि मलाईदार तबके के लोगों को आरक्षण के लाभों से बाहर रखा जाना चाहिए।
न्यायमूर्ति गवई ने 281 पृष्ठों का अलग लेकिन सहमति वाला फैसला लिखा और कहा कि राज्य का यह कर्तव्य है कि वह नागरिकों के पिछड़े वर्ग को तरजीह दे, जिनका सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।
उन्होंने कहा, “राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में से भी मलाईदार तबके की पहचान करने के लिए एक नीति बनानी चाहिए ताकि उन्हें सकारात्मक कार्रवाई के लाभ से बाहर रखा जा सके। मेरे विचार से, केवल यही और एकमात्र यही संविधान के तहत निहित वास्तविक समानता को प्राप्त कर सकता है।”
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश ने कहा कि अनुसूचित जाति के जिन बच्चों को आरक्षण का लाभ मिला है, उन्हें उन बच्चों के समान दर्जा नहीं दिया जा सकता जिन्हें इसका लाभ नहीं मिला है।
न्यायमूर्ति विक्रमनाथ, न्यायमूर्ति पंकज मिथल, न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा ने भी न्यायमूर्ति गवई की राय से सहमति जताई।
न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि समानता का मौलिक अधिकार “औपचारिक समानता नहीं बल्कि तथ्यात्मक समानता” की गारंटी देता है, और यदि विभिन्न व्यक्तियों की स्थिति समान नहीं है, तो वर्गीकरण स्वीकार्य है।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि संविधान वैध वर्गीकरण की अनुमति देता है, बशर्ते दो शर्तें पूरी हों, पहली यह कि एक स्पष्ट अंतर होना चाहिए जो एक साथ समूहीकृत व्यक्तियों को समूह से बाहर रखे गए अन्य व्यक्तियों से अलग करता हो।
उन्होंने कहा, “दूसरा, विभेद का कानून द्वारा प्राप्त किए जाने वाले उद्देश्य से तर्कसंगत संबंध होना चाहिए, अर्थात वर्गीकरण का आधार वर्गीकरण के उद्देश्य से जुड़ा होना चाहिए।”
फैसले में इस बात की पड़ताल की गई कि क्या उप-वर्गीकरण का सिद्धांत अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) का उल्लंघन करता है।
उन्होंने कहा, “यह स्थापित है कि अनुच्छेद 14 औपचारिक समानता की नहीं बल्कि तथ्यात्मक समानता की गारंटी देता है। इस प्रकार, यदि व्यक्ति कानून के उद्देश्य के संदर्भ में समान स्थिति में नहीं हैं, तो वर्गीकरण अनुमेय है। वर्गीकरण का यही तर्क उप-वर्गीकरण पर भी समान रूप से लागू होता है….।”
भाषा प्रशांत नेत्रपाल
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