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Tuesday, 3 December, 2024
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मेरठ में ‘स्टार्टअप कल्चर’ का मतलब है- कर्ज़ लेने में मुश्किलें, कम मांग, ग़लत उम्मीद

सरकार छोटे शहरों और गांवों में कर्ज़ों पर सब्सीडी के ज़रिए ‘उद्यमिता’ को बढ़ावा दे रही है. उत्तर प्रदेश के एक ज़िले में अभी तक के नतीजे कुछ इस तरह नज़र आते हैं.

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मेरठ: जब महामारी ने 2020 में उसकी सेल्स की नौकरी ले ली तो उत्तर प्रदेश के मेरठ का निवासी सचिन निराश नहीं हुआ. इसकी बजाय उसने सपने देखने शुरू कर दिए.

दलित समाज का सचिन बहुत लंबे समय से अपने नगरपालिका कर्मचारी पिता को लोगों की गंदगी साफ करते हुए देखता आ रहा था. उसने सोचा कि कैसा रहेगा अगर उसका परिवार जाति की अपेक्षाओं को पूरी तरह उलटते हुए टॉयलेट सफाई का सोल्यूशन बनाकर अपनी क़िस्मत संवार ले.

सचिन ने, जो अब 32 वर्ष का है और कंप्यूटर एप्लिकेशंस में स्नातक डिग्री रखता है, कहा, ‘मेरे मन में विचार आया कि टॉयलट क्लीनर्स बनाने के लिए दो मशीनों के साथ एक छोटी सी फैक्ट्री लगाई जाए. मेरे छोटे भाई (जो केमिस्ट्री ग्रेजुएट है) के पास ज्ञान था और मेरे पास मार्केटिंग तथा दूसरी चीज़ों का कौशल था.’

तेज़ी से काम करते हुए सचिन और उसके भाई विपुल ने प्रधानमंत्री रोज़गार सृजन कार्यक्रम (पीएमईजीपी) के अंतर्गत 7 लाख रुपए के कर्ज़ के लिए आवेदन कर दिया. इस कार्यक्रम का लक्ष्य छोटे उद्यमियों को सहायता प्रदान करना है.

लेकिन हर बीते वर्ष के साथ उनका सपना दूर होता जा रहा है.

अप्रैल के अंतिम सप्ताह में सचिन ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमारी फाइलें दो बार ख़ारिज की जा चुकी हैं. अब हम तीसरी बार आवेदन कर रहे हैं’. उसने आग्रह किया कि उसका पूरा नाम इस्तेमाल न किया जाए, चूंकि इससे उसके कर्ज़ मिलने की संभावनाओं पर असर पड़ सकता है.

जब दिप्रिंट ने उद्योग विभाग के ज़िला अधिकारियों से बात की, तो उन्होंने बताया कि सचिन और विपुल के पास उद्यमिता कर्ज़ के लिए ज़रूरी शिक्षा और कौशल तो है, लेकिन बैंक ने उनका आवेदन इसलिए ठुकरा दिया, क्योंकि भाइयों के पास ज़मीन या घर जैसी कोई सामाजिक सुरक्षा संपत्ति नहीं थी.

सचिन ने कहा, ‘शहर की स्टेट बैंक शाखा ने जहां मेरे भाई का खाता था, कहा कि हमें किसे दूसरे नज़दीकी बैंक से कर्ज़ लेना चाहिए.’

ये स्थिति विडंबना से भरी है: केंद्र तथा उत्तर प्रदेश सरकार दोनों 2 टियर और 3 टियर शहरों में, युवाओं को छोटे कारोबार शुरू करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं- जिसके लिए ‘एक जिला एक उत्पाद’ (ओडीओपी), मुद्रा ऋण, और पीएमईजीपी जैसी बहुत सी कर्ज़ सब्सिडी योजनाओं का सहारा लिया जा रहा है- लेकिन इनमें या तो बैंक की ज़रूरतों को लेकर समस्याएं आ रही हैं या फिर मार्केटिंग और मांग की समझ की कमी के कारण बाज़ार तक पहुंच में बाधाएं आ रही हैं.

दिप्रिंट ने मेरठ का दौरा किया, जो यूपी का एक महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्र है, ये देखने के लिए कि ‘स्टार्ट-अप कल्चर’ और स्वरोज़गार को प्रोत्साहन देने वाली पहलक़दमियां, महानगरों के बाहर कैसा कर रही हैं.


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‘वास्तव में स्टार्ट-अप कल्चर नहीं’

पिछले महीने केंद्रीय सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम मंत्रालय (एमएसएमई) ने एक बयान जारी किया, जिसमें कहा गया कि पीएमईजीपी के अंतर्गत ‘अभूतपूर्व’ 1.03 लाख नई निर्माण तथा सेवा इकाइयों तथा आठ लाख से अधिक नौकरियों का प्रबंध किया गया है.

वाणिज्य मंत्रालय ने भी आंकड़े जारी किए हैं जिनसे पता चलता है कि स्टार्ट-अप्स की संख्या 2016-17 में केवल 700 से बढ़कर इस साल मार्च में 66,000 से अधिक हो गई है. और भी अहम ये है कि इनमें से क़रीब आधी इकाइयां टियर-2 और टियर-3 शहरों में हैं.

समय-समय पर जोशीली विज्ञप्तियां जारी की जाती हैं कि किस तरह उत्तर प्रदेश ओडीओपी जैसी स्कीमों का समर्थन कर रहा है, जिनका मक़सद राज्य के अनोखे हैंडिक्राफ्ट्स तथा उत्पादों और मुख्यमंत्री युवा स्वरोज़गार योजना (एमवाईएसवाई) को प्रोत्साहन देना और शिक्षित बेरोज़ार युवाओं को स्वरोज़गार के अवसर मुहैया कराना है.

मेरठ में जिला उद्योग केंद्र । फोटोः ज्योति यादव । दिप्रिंट

दिप्रिंट ने इन स्कीमों पर मेरठ ज़िला प्रशासन के आंकड़े देखे और पाया कि स्वरोज़गार के लिए दिए गए कर्ज़ों में मामूली सी वृद्धि देखने में आई है. मसलन, एमवाईएसवाई स्वरोज़गार स्कीम के लाभार्थियों की संख्या, जो 2019-20 में 77 थी, 2021-22 में बढ़कर 97 हो गई. अनुदान राशि भी 2019-20 में 1.99 करोड़ से बढ़कर, 2021-22 में 3.1 करोड़ हो गई.

ज़िला स्तर पर एमएसएमई को बढ़ावा देने का ज़िम्मा निभाने वाले, ज़िला उद्योग केंद्र (आईसी) के महाप्रबंधक वीके कौशल ने कहा, ‘बीते सालों में हमने दिए गए अपने लक्ष्यों को हासिल कर लिया है’. उन्होंने आगे कहा, ‘ऐसे ही आंकड़े दूसरी स्कीमों में भी दिखाई देते हैं.’

वास्तव में, मेरठ में ओडीओपी लाभार्थियों की संख्या 2019-2020 में 17 से बढ़कर, 2021-22 में 45 हो गई, और उसी अवधि में पीएमईजीपी के अंतर्गत ये संख्या 13 से बढ़कर 43 पहुंच गई. 2019-20 में सब्सीडी पर दी गई कर्ज़ की राशि 32.02 लाख थी, जो 2021-22 में बढ़कर 1.36 करोड़ हो गई.

लेकिन, मेरठ में एमएसएमई कर्ज़ वितरण की तस्वीर कुछ अलग दिखाई देती है. 2019 में जहां इसके 45,116 लाभार्थी थे, वहीं 2022 में ये संख्या केवल 24,385 थी. कर्ज़ की राशि 2019 में 4,291.82 करोड़ से घटकर 2022 में 3,601.17 करोड़ रह गई.

नाम न बताने की शर्त पर दिप्रिंट के साथ बात करते हुए डीआईसी के एक सहायक मैनेजर रैंक के एक अधिकारी ने कहा कि हालांकि विभिन्न योजनाओं के लाभार्थियों की संख्या बढ़ रही है, लेकिन इसके मतलब ये ज़रूरी नहीं है कि नए उद्यम शुरू हो रहे हैं.

अधिकारी ने कहा, ‘फिलहाल जो हो रहा है वो वास्तव में स्टार्ट-अप कल्चर नहीं है. जो लोग पांच लाख रुपए से कम का कर्ज़ ले रहे हैं, वो वास्तव में कोई नया व्यवसाय खड़ा नहीं कर सकते. इस पैसे को अंत में निजी कामों में लगा लिया जाता है’.

संस्थागत ऋणों के लाभार्थियों के जनसांख्यिकी प्रोफाइल से भी आभास होता है, कि ‘युवा’– 20 से अधिक उम्र के, स्कूल या कॉलेज से हाल में निकले लोग अपने ख़ुद के उद्यम शुरू करने में ज़्यादा रूचि नहीं दिखा रहे हैं.

बल्कि अधिकतर लाभार्थी 30 या 40 से ऊपर की उम्र के हैं, और कुछ के पास पहले से ही अपना ख़ुद का व्यवसाय चलाने का अनुभव होता है. डीआईसी अधिकारी ने कहा, ‘2017 में हमें लोगों को समझाना मुश्किल होता था कि उन्हें ये कर्ज़ लेने की क्यों ज़रूरत है. लेकिन अब चीज़ें थोड़ा बदल गई हैं. 20 वर्ष से अधिक उम्र वालों का भरोसा जीतने के लिए हमें भी एक लंबा रास्ता तय करना है.’


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मांग की कमी, फंड्स का निजी इस्तेमाल

32 वर्षीय हर्ष भटनागर जब स्कूटर से अपनी नूडल फैक्ट्री पहुंचे तो परेशान लग रहे थे. वो ये फैक्ट्री मेरठ शहर के बाहर 300 वर्ग फीट के एक परिसर से चलाते हैं. कारोबार अच्छा नहीं चल रहा है और अपने सात कर्मचारियों का वेतन निकालना उनके लिए एक चुनौती है.

भटनागर ने बताया, ‘मुझे अपनी कार बेंचनी पड़ी. मेरे घर के कागज़ भी एक व्यक्ति के पास गिरवी रखे हैं, जिसने मुझे 3 लाख रुपए दिए थे’. उन्होंने आगे कहा कि कोविड लॉकडाउंस के बाद वो अपनी यूनिट को बंद करने की कगार पर थे, जिसने उन्हें कर्ज़ में डुबा दिया था और वो छह लाख रुपए का मुद्रा (माइक्रो यूनिट्स डेवलपमेंट एंड रीफाइनेंस एजेंसी) ऋण नहीं चुका पाए, जो उन्होंने 2015 में कारोबार शुरू करने के लिए लिया था.

मेरठ में हर्ष भटनागर की नूडल्स फैक्टरी के अंदर । फोटोः ज्योति यादव । दिप्रिंट

कॉमर्स में स्नातक डिग्री रखने वाले भटनागर ने बताया कि कोविड लॉकडाउन्स के बाद से उनके बाज़ार के एक बड़े हिस्से- सड़क विक्रेताओं और छोटे भोजनालयों ने अपना काम बंद कर दिया है. उन्होंने कहा, ‘मेरे सभी ग्राहक चले गए हैं.’

उन्हें उम्मीद है कि एक और लोन से वो कारोबार में बने रह सकते हैं, लेकिन उसे हासिल करने में जूझ रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘पीएमईजीपी के अंतर्गत मैं फिर से एक और लोन के लिए आवेदन करने जा रहा हूं’. उन्होंने आगे कहा कि ज़िला अधिकारियों ने आश्वासन दिया है, कि वो बैंक को राज़ी कराने में उनकी सहायता करेंगे.

जहां भटनागर कई सालों से नूडल कारोबार में लगे हैं, वहीं 32 वर्षीय आशु जैसे लोग भी अपने आपको एक अनिश्चितता की स्थिति में पा रहे हैं.

2021 में आशु ने, जो चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में एक रिसर्च स्कॉलर हैं, एक वर्मीकम्पोस्टिंग प्लांट स्थापित करने के लिए यूपी की स्वरोज़गार योजना के अंतर्गत 1 लाख रुपए के कर्ज़ के लिए आवेदन किया. उन्होंने कहा, ‘मैं एक प्रामाणिक व्यवसाय शुरू करना चाहता था.’ छोटे शहरों के दूसरे उद्यमियों की तरह उन्होंने भी अपने परिवार की पृष्ठभूमि से प्रेरणा ली जो खेती की थी.

शुरू में प्रक्रिया सुगम थी और उन्हें बैंक को कर्ज़ के लिए राज़ी करने में ज़्यादा जूझना नहीं पड़ा, क्योंकि उनके परिवार के पास मुज़फ्फरनगर में चार एकड़ ज़मीन थी. हालांकि, मेरठ में कंपोस्ट की भले ज़रूरत थी, लेकिन आशु उस समय चित हो गए जब उन्हें ये सच्चाई पता चली कि वहां पहले ही मांग से अधिक सप्लाई मौजूद थी.

पीछे वर्मीपोस्ट के बैग्स के साथ उद्यमी आशु । फोटोः ज्योति यादव । दिप्रिंट

उन्होंने कहा, ‘अमेज़ॉन पर सस्ता कंपोस्ट मिल जाता है और स्थानीय स्तर पर भी बहुत प्रतिस्पर्धा है. अकेले मेरठ में 10 से 15 कंपनियां हैं जो घर की बाग़बानी के लिए कंपोस्ट बेंच रही हैं’.

फिलहाल, आशु के ‘पौधा अमृत’ कंपोस्ट के लिए बहुत ज़्यादा ग्राहक नहीं हैं, जिसकी वजह से वो अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं.

उन्होंने कहा, ‘मैं टीचिंग में नहीं जाना चाहता. मुझे बहुत उम्मीदें हैं कि अगर ये काम चल जाता है, तो मैं इस स्टार्ट-अप को और बढ़ावा दूंगा. उन्हें उम्मीद है कि अगर वो पर्याप्त समय तक इस कारोबार में बने रहते हैं, तो वो मार्केटिंग पर काम कर पाएंगे और प्रतिस्पर्धात्मक क़ीमतों पर पहुंच जाएंगे.

ज़िला अधिकारियों ने स्वीकार किया कि जिस तरह की समस्याओं का हर्ष और आशु सामना कर रहे हैं, वो असामान्य नहीं हैं और कई कारणों से नए व्यवसायों के लिए फलना-फूलना मुश्किल हो रहा है.

पहले हवाला दिए गए डीआईसी अधिकारी ने कहा, ‘उद्योग में शामिल होने और नए अवसर शुरू करने के लिए हमें कुशल और जानकार युवाओं की ज़रूरत है, लेकिन दो लॉकडाउन्स ने उत्साह को बुरी तरह प्रभावित किया है’.

‘जानकारी और कौशल’ की समस्याओं को हल करने के लिए योगी आदित्यनाथ सरकार ने पिछले महीने ऐलान किया कि वो उद्यमिता पर एक ऑनलाइन कोर्स और प्रमाणीकरण शुरू करेगी. ज़ाहिर है कि इसमें पेंच ये है कि युवा लोगों को नौकरी खोजने वालों की जगह, नौकरी देने वाले बनना चाहिए.

हालांकि इसमें कुछ प्रणालीगत बाधाएं बहुत स्पष्ट हैं.

एक बाधा ये है कि ऋण योजनाएं मांग की बजाय, सप्लाई पक्ष के कारकों से चलती हैं जैसे कि हर ज़िले के लिए निर्धारित लक्ष्य.

बाज़ार में भी मांग अक्सर एक समस्या रहती है, जिसका मतलब है कि ख़ासकर मार्केटिंग की जानकारी के अभाव में, व्यवसायों का टिकाऊपन भी एक समस्या है. व्यवहार्यता मूल्यांकन पर भी कोई ख़ास ध्यान नहीं होता- मसलन, कई बार उद्यमियों को कच्चा माल दूर से मंगाना पड़ता है, जिससे उनके मुनाफे पर विपरीत असर पड़ता है.

एक स्टार्ट-अप ईकोसिस्टम के दूसरे सहायक पहलू भी कम उपलब्ध रहते हैं, जैसे संरक्षण कार्यक्रम, तकनीकी सहायता, इन्क्यूबेशन सेंटर्स, और सरकार, शैक्षणिक संस्थाओं तथा निजी उद्यमों के बीच सहयोग योजनाएं.

ज़िला मजिस्ट्रेट दीपर मीणा के अनुसार एक और फैक्टर भी काम करता है: मेरठ में ख़ासकर खेल उपकरण क्षेत्र में, पहले से निर्माण उद्योग मौजूद हैं इसलिए इन स्थापित उद्योगों में रोज़गार के ज़्यादा अवसर रहते हैं, जिस वजह से युवा लोगों को नए उद्यम शुरू करने की ज़्यादा ज़रूरत महसूस नहीं होती.

इस परिदृश्य में कोविड लॉकडाउन्स के स्थायी प्रभाव को जोड़ लीजिए, और मेरठ में उद्यमिता के नज़ारे में फिलहाल स्टार्ट-अप में दूर दूर तक कोई तेज़ी नज़र नहीं आती.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए क्लिक करें.)


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