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Friday, 29 March, 2024
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बिहार के सीमांचल में लाल आंखों वाले युवा दिखाते हैं कि नीतीश कुमार की शराब बंदी कैसे बैक फायर कर गई

बिहार में, फोकस अभी भी शराब सेवन घटाने पर है. लेकिन एक समस्या है जिसका नीतीश कुमार को बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था- ड्रग्स के नशेड़ी, अपराध, और एक नई ‘जेनरेशन नोव्हेयर’.

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पूर्णिया/कटिहार/अररिया/किशनगंज: आम के बाग़, स्कूलों की बंद इमारतें, सुनसान पड़े ऐतिहासिक स्थल, शहरों की अंधेरी गलियां, और श्मशान भूमि तक- इन सब में आपको लाल आंखों वाले, दुबले-पतले और खोए-खोए से युवा नज़र आ सकते हैं. वो लड़ते झगड़ते रहते हैं, मोबाइल फोन्स या सोने की चेनें छीनते हैं, और कुछ तो हैण्ड पंप्स तक चुरा लेते हैं.

पूर्वी बिहार, विशेषकर सीमांचल क्षेत्र में जो नेपाल सीमा से लगा है, वहां हर कोई इन नौजवानों की बात करता है.

जब से नीतीश कुमार की जनता दल (युनाइटेड) सरकार ने 2016 में शराब पर पाबंदी लगाई, तब से बिहारियों के बीच ड्रग्स का सेवन बढ़ गया है. हेरोइन, गांजा, चरस, और इंट्रावेनस ड्रग्स, राज्य के नशेड़ियों का सहारा बन गई हैं. एक उदय स्टडी में पाया गया है कि बिहार में इनका सेवन शहरों की अपेक्षा (17 प्रतिशत) ग्रामीण युवकों में अधिक (21 प्रतिशत) है. सीमांचल के ज़िलों की पुलिस का कहना है, कि छोटे-मोटे अपराधों की संख्या में इज़ाफा हो गया है, और साथ ही ड्रग्स, फोन्स तथा कफ सिरप की बोतलों की बरामदगी भी बढ़ गई है.

और फिर भी, इस बारे में कोई कुछ करता नज़र नहीं आ रहा है. आर्थिक रूप से ग़रीब और सामाजिक रूप से पिछड़ा सीमांचल, बेहतर शिक्षा और नौकरियों के लिए, हर साल अपने बेटों को दिल्ली, कोलकाता, और दूसरे बड़े शहरों को भेजता है. कुछ प्रवासी श्रमिकों की हैसियत से जाते हैं, और कुछ सरकारी नौकरियों की तलाश में. लेकिन 2020 में जब देशव्यापी लॉकडाउन घोषित हुआ, तो ये युवा बिना किसी नौकरी या काम के वापस लौट आए. और इनके साथ ही यहां दाख़िल हुए तरह तरह के लत, ड्रग्स, और बोरियत.

अपनी ‘जेनरेशन नोव्हेयर’ सीरीज की तीसरी कड़ी में, दिप्रिंट बिहार के सीमांचल में युवाओं के बीच, नशे की लत के बदसूरत पहलू को बेनक़ाब कर रहा है.

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कटिहार में बंद बिल्डिंग में हेरोइन लेते दो युवक | विशेष व्यवस्था द्वारा

एक विवाहित व्यक्ति, एक छात्र, एक रोज़गार का इच्छुक

पहले लॉकडाउन के बाद, जब युवा प्रवासी श्रमिक, सरकारी नौकरियों के उम्मीदवार, और कॉलेज छात्र बिहार लौटे, तो वो अपने साथ नशे की लत भी ले आए. नेपाल और बंगाल की सीमाओं से निकटता की बदौलत, दो साल के भीतर बिहार में ड्रग कल्चर फलने-फूलने लगा.

कटिहार का 18 वर्षीय उत्कर्ष कुमार, 2021 का अंत होते होते बिल्कुल असहनीय हो गया. वो माता-पिता से लड़ता था, चीज़ें तोड़ देता था और खाना छोड़ देता था. उसके जेब ख़र्च के साथ ही- जिसे 200 रुपए से बढ़ाकर 500 रुपए प्रतिदिन करना पड़ा- उसके दोस्तों का सर्कल भी फैल गया. उसने सिगरेट से शुरू किया और गांजे तक पहुंच गया. उसके परिवार ने सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करने से लेकर, भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करने, और शहर में उपलब्ध कुछ डॉक्टरों के पास ले जाने तक तमाम कोशिशें कर लीं, लेकिन परिवार के लिए एक निर्णायक मोड़ तब आया, जब पिछले साल उसने अपनी 12वीं की बोर्ड परीक्षा में बैठने से इनकार कर दिया. उसके बाद ही उसके माता-पिता को पता चला कि उनके बेटे को हेरोइन की लत लग चुकी थी. मार्च 2022 तक स्थिति ये है कि उत्कर्ष पूर्णिया ज़िले के नशा-मुक्ति केंद्र के सबसे कम उम्र नशेड़ियों में से एक है, जहां दिप्रिंट ने उससे मुलाक़ात की.

उत्कर्ष के माता-पिता कटिहार में | ज्योति यादव/दिप्रिंट

60 और नशेड़ियों के साथ बैठे हुए (18 से लेकर 60 वर्ष तक की उम्र के), उत्कर्ष बस वहां से भाग निकलना चाहता है. उसे लगता है कि रिहैब में पाबंदियां बहुत ज़्यादा हैं.

यहां पर एक और नशेड़ी है 23 वर्षीय हेमराज भारती, खालसा कॉलेज ग्रेजुएट और कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी) उम्मीदवार, जो बरसों दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहा है. अररिया के फॉरबिसगंज का निवासी भारती, कॉलेज के दिनों में कभी कभी शराब पीता था. पहला देशव्यापी लॉकडाउन घोषित होने के बाद, उसे भी दूसरे बहुत से लोगों के साथ, अपने गांव लौटना पड़ा.

उसने बताया, ‘इस इलाके से हम दस लोगों को उच्च-शिक्षा, और सरकारी नौकरियों की तैयारी के लिए, 2016 में दिल्ली भेजा गया था. हमने शराब पीनी शुरू कर दी, लेकिन आफत तब आन पड़ी जब देशभर में लॉकडाउन लग गया. जब हम यहां से गए थे तो हमने अपने इलाक़े में, स्मैक (हेरोइन) मिलने के बारे में कभी सुना भी नहीं था, लेकिन जब हम अपने गांवों को लौटे, तो यहां नशेड़ियों और ड्रग विक्रेताओं का एक पूरा नेटवर्क फल-फूल रहा था’. भारती ने किशनगंज के अपने एक मित्र के बारे में बताया, जो अब दवाओं की एक दुकान पर काम करता है, ताकि उसे ड्रग्स की अपनी दैनिक ख़ुराक मिलती रहे.

एक और उम्मीदवार, 27 वर्षीय शुभम कुमार, जो पूर्णिया शहर के लाइन बाज़ार इलाक़े से है, बीपीएससी (बिहार लोक सेवा आयोग) परीक्षा की तैयारी कर रहा है. बीपीएससी बिहार के राज्य प्रशासन में रिक्तियों को भरता है. बीपीएससी परीक्षा की तैयारी करते हुए, शुभम ने गांजा पीना शुरू कर दिया. एसएससी-सीजीएल में तीन प्रयासों में विफल रहने के बाद, उसका मन बदल गया और 2019 में वो घर वापस आ गया.

नशे की अपनी लत की शुरुआत की बात करते हुए, शुभम ने कहा, ‘दुर्गा पूजा समारोह चल रहे थे, और हर कोई मज़े कर रहा था. कुछ दोस्तों ने मुझसे स्मोक करने के लिए कहा, उन्होंने कहा कि इससे कुछ नहीं होगा’.

सात महीने पहले परिवार ने उसकी शादी कर दी.

उसने समझाया, ‘मेरे परिवार ने सोचा कि अगर उन्होंने ज़बर्दस्ती मेरी शादी करा दी, तो मेरी लत ख़त्म हो जाएगी’. वो इस साल की बीपीएससी परीक्षा में बैठना चाहता है.

शुभम का दावा है कि उसके दोस्तों के ग्रुप में, कम से कम 25 लोग नशेड़ी हैं, उत्कर्ष का कहना कि वो ऐसे पांच क़रीबी दोस्तों को जानता है, और हेमराज भी 10 से परिचित है. ज़्यादातर स्कूल अथवा कॉलेज के छात्र हैं, या फिर सरकारी नौकरियों के उम्मीदवार हैं.

एक करोड़ लोगों पर केवल एक नशा-मुक्ति केंद्र

बिहार के सीमांचल में पूर्णिया, अररिया, कटिहार, और किशनगंज ज़िले आते हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार इस क्षेत्र में क़रीब 1 करोड़ लोग रहते हैं. इनमें से क़रीब 25 लाख 15 से 24 के आयु वर्ग में थे.

2016 में, बिहार सरकार ने यहां के सभी ज़िला अस्पतालों में, शराब के आदी लोगों के लिए नशा-मुक्ति केंद्र स्थापित किए थे. दिप्रिंट ने सीमांचल के चारों नशा-मुक्ति केंद्रों का दौरा किया, लेकिन वो चारों बंद पड़े हुए थे.

अररिया में काम न करने वाले सरकारी नशामुक्ति केंद्र | ज्योति यादव/दिप्रिंट

किशनगंज ज़िला अस्पताल के अकाउंटेंट भैरव कुमार झा सफाई देते हैं, ‘कोविड की वजह से ओपीडी और दूसरी सेवाएं बंद कर दी गईं थीं. उससे पहले, नशे के आदी लोग बहुत कम संख्या में, नशा-मुक्ति केंद्रों पर आते थे’.

कोई सरकारी सहायता न होने की वजह से, इस क्षेत्र के लोग इलाज के लिए झारखंड के रांची, या पश्चिम बंगाल के सिलिगुड़ी जाते हैं. थोड़ा बदलाव तब आया जब पूर्णिया के एक पूर्व नशेड़ी ने, अपने घर में एक नशा-मुक्ति केंद्र खोल लिया.

एक दशक पहले 31 वर्षीय प्रीतम आनंद ड्रग्स के आदी गिने-चुने लोगों में से एक था.

उसने दिप्रिंट को बताया, ‘उस समय हेरोइन लेने के लिए आपको नेपाल, या बंगाल के डलखोला का सफर करना पड़ता था. यहां आसानी से नहीं मिलती थी’.

दूसरे हज़ारों लोगों की तरह उसके पिता ने भी, जो अब एक रिटायर्ड पुलिसकर्मी हैं, उच्च शिक्षा के लिए उसे दिल्ली भेज दिया. कॉलेज के बाद प्रीतम को एक नौकरी भी मिल गई. लेकिन जब उसकी मां की कैंसर से मौत हुई, तो वो पूर्णिया वापस आ गया.

उसने आगे कहा, ‘मैं उस दुख को सहन नहीं कर सका, और ड्रग्स का सहारा लेने लगा, इसके लिए मैं अपने पिता को दोष देने लगा’.

प्रीतम आनंद अपने कार्यालय में | ज्योति यादव/दिप्रिंट

जब उसकी लत ज़्यादा बढ़ गई, तो प्रीतम के पिता ने शर्म के मारे उसे झारखंड के एक ‘पागलख़ाने’ में भेजने की तैयारी कर ली. लेकिन उसकी एक बहन ने ज़ोर दिया, कि उसे पुनर्वास के लिए सिलिगुड़ी भेजा जाना चाहिए.

प्रीतम ने बताया, ‘मैं वहां पर छह साल रहा. पहले एक नशेड़ी की हैसियत से, और फिर एक वॉलंटियर के नाते. अब मैं इगनू से सामाजिक कार्य में एमए कर रहा हूं, और मेरे पास नई दिल्ली के राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा संस्थान से एक प्रमाण पत्र भी है. मैंने एक काउंसलिंग कोर्स भी किया है’.

वापस आने के बाद, 2019 में उसने आनंद फाउण्डेशन के नाम से एक एनजीओ पंजीकृत कराई. 2020 के शुरू में उसने पूर्णिया के रामनगर इलाक़े में एक नशा-मुक्ति केंद्र खोल लिया. ये केंद्र शराब, हेरोइन, ब्राउन शुगर, गांजा, भांग, चरस, डेंड्राइट, व्हाइटनर, गोलियां, इंजेक्शन, और कफ सिरप सब के आदी लोगों के लिए है. दो डॉर्मिटरीज़, एक क्लासरूम, एक रिसेप्शन के साथ ये केंद्र, सीमित साधनों से काम करता है. और यहां पहले ही काफी भीड़ है. अधिकतर नशेड़ी 22 से 28 वर्ष के बीच के हैं, और अररिया, पूर्णिया, तथा कटिहार ज़िलों के रहने वाले हैं. केंद्र की दीवारों पर मोटिवेशनल कोट्स पेंट किए हुए हैं, और मेन गेट पर हमेशा ताला रहता है, क्योंकि युवा नशेड़ी भाग निकलने की कोशिश करते हैं.

रिहैब कोर्स 4-5 महीने के लिए होता है, जिसमें दाख़िले की फीस 6,000 रुपए, और मासिक फीस 10,000 रुपए है.

पूर्णिया में प्रीतम आनंद के निजी नशामुक्ति केंद्र में मरीज | ज्योति यादव/दिप्रिंट

प्रीतम ने कहा, ‘अगर कोई नशेड़ी पलटा हुआ केस है, तो उसे छूट दी जाती है, और ग़रीब परिवारों के लिए हम फीस को घटाकर 5,000-6,000 रुपए कर देते हैं’.

बिहार सरकार के नियमों के अनुसार पुनर्वास केंद्रों के पास, पर्याप्त श्रमबल, काउंसलिंग, लत का इलाज, ‘होल पर्सन रिकवरी’, रेफरल, फॉलो अप और बाद की देखभाल सेवाओं का बंदोबस्त होना चाहिए, और उन्हें नशेड़ी के परिवार की सहायता करनी चाहिए. सरकार इस बात का भी ख़याल रखती है, कि केंद्र में रहने वालों को अच्छा भोजन दिए जाए.

प्रीतम के रिहैब में कोई मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सक नहीं है, लेकिन उनका मानना है कि सामाजिक कार्य की उनकी डिग्री, और एक पूर्व नशेड़ी होने का उनका अनुभव, उन्हें दूसरों पर बढ़त देता है. नशेड़ियों के लिए भोजन का एक निर्धारित मेन्यू, और एक कड़ा दैनिक शेड्यूल है जिसमें ध्यान और योग कक्षाएं शामिल हैं. मोबाइल फोन्स की अनुमति नहीं है, और महीने में एक बार माता-पिता के साथ मुलाक़ात अनिवार्य है.

भाग जाना, रोमांच, और बोरियत से बचने का रास्ता

पूरे सीमांचल में आपको जगह जगह पोस्टर और भित्ति चित्र नज़र आ जाएंगे. लिखित चेतावनी जिसमें कहा जाता है, ‘मद्यपान वर्जित’ है. शराब पर पाबंदी है लेकिन लोगों का ध्यान अभी ड्रग्स के दुरुपयोग पर नहीं गया है. इससे समझ आता है कि नीतीश कुमार सरकार ने, अभी तक नशे की लत की समस्या को स्वीकार ही नहीं किया है- सारे जागरूकता अभियान, मैराथॉन्स, और सामुदायिक पुलिस पहलक़दमियां, अभी तक सिर्फ शराब के लिए हैं.

पूरे बिहार में शराब के सेवन के खिलाफ आम जागरूकता पोस्टर. ज्योति यादव/दिप्रिंट

कटिहार का 22 वर्षीय सुहर्ष भारद्वाज एक औसत छात्र था, और उसने सेकंड डिवीज़न में कॉलेज पास किया था. लेकिन वो एक ईमानदार छात्र था.

आंखों में आंसू भरे हुए उसकी मां ने दिप्रिंट को बताया, ‘वो बिजली की दुकान में अपने पिता की मदद किया करता था’. 2020 में सुहर्ष ड्रग्स की ओर मुड़ गया. बहुत से दूसरे लोगों की तरह वो भी एक फरार चाहता था. लॉकडाउन में ‘घर बैठे वो उकता गया’, और अपने साथियों की निगाहों में ‘कूल दिखने’ के लिए उसने ड्रग्स लेनी शुरू कर दीं.

सुदर्शन ने कहा, ‘शराब के विपरीत इसमें कोई गंध या बोतल नहीं होती. पुलिस से आराम से बचा जा सकता है’.

बहुत से परिवार और नशेड़ी मानते हैं कि शराब बंदी एक बड़ा कारण है, जिसकी वजह से युवा लोग हार्ड ड्रग्स की ओर जा रहे हैं.

एक पूर्व नशेड़ी पुरुषोत्तम झा ने समझाया, ‘अगर शराब बंदी नहीं होती, तो हम कभी-कभार शराब पी सकते थे’.

उत्कर्ष और सुहर्ष दोनों के परिवारों के इस दावे का समर्थन सरकारी अधिकारियों ने भी किया, कि शराब बंदी की वजह से सीमांचल के युवाओं में ड्रग्स की लत शुरू हुई.

पुरुषोत्तम झा, एक फॉर्मल ड्रग एडिक्ट | ज्योति यादव/दिप्रिंट

‘मज़ा’ और ‘बदमाशी’ के बीच ग्रामीण भारत

ऐसा नहीं है कि सीमांचल में नशे की इस आग से, छोटे गांव अछूते रह गए हैं. कुछ ड्रग विक्रेताओं ने नाम छिपाने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, कि लॉकडाउन के बाद उन्हें अपने गांवों को लौटना पड़ा, और हेरोइन भी उनके साथ ही आ गई.

19 वर्षीय अजीत कुमार पूर्णिया के सबसे पिछड़े ब्लॉक बैसी का रहने वाला है. उसका गांव माला एक प्रमुख केंद्र बन गया है. उसका दावा है कि यहां कम से कम 200 युवा लोग ड्रग्स लेते हैं, और हर कोई चिकित्सा सहायता नहीं ले रहा है.

अजीत एक ग़रीब परिवार से आता है. उसका बड़ा भाई और पिता दहाड़ी मज़दूरी पर एक ज्यूलरी शॉप में काम करते हैं. उसकी मां घर का काम संभालती है. अजीत के लिए इसकी शुरूआत गांजे से हुई, और फिर वो बियर और हेरोइन पर आ गया. उत्कर्ष की तरह उसने भी अपनी बोर्ड परीक्षा नहीं दी.

ये समझाते हुए कि वो ड्रग्स के सेवन में कैसे फंसा, उसने बताया, ‘हमारा भी अपने दोस्तों की तरह स्कूल छोड़कर जाने का मन करता था. असली ‘मज़ा’ हाई होने और ‘बदमाशी’ करने में आता है. जब तक मेरे जीवन में गांजा था, तब तक सब सही था’.

पूर्वी बिहार में युवाओं के लिए ‘बदमाशी’ का मतलब होता है, हाई होना, बाइक पर घूमना, किसी को टक्कर मार देना, और फिर बखेड़ा खड़ा कर देना.

गांवों में ड्रग विक्रेता शुरू में गांजा मुफ्त पेश करते हैं, लेकिन धीरे धीरे जब आप उसके लिए पलटकर आने लगते हैं, तो दाम बढ़ने लगते हैं और दूसरी ड्रग्स से परिचय कराया जाता है. हेरोइन की एक पुड़िया आमतौर से 300 रुपए में मिल जाती है, लेकिन अगर नशेड़ी को वो तुरंत चाहिए, तो रेट 500 रुपए तक चला जाता है. एक पुड़िया में एक ग्राम से कम हेरोइन होती है.

जल्द ही, ओवरडोज़ की वजह से अजीत मरने के क़रीब पहुंच गया.

अजीत ने कहा, ‘आपको किसी भी क़ीमत पर ड्रग्स चाहिए होती हैं. मुझे दिन भर में 15 पुड़ियां चाहिएं थीं. इसलिए पहले तो मैं घर से पैसा लेता था, लेकिन फिर मेरे घर वालों को हेरोइन के बारे में पता चल गया. फिर मैं लोगों को झांसा देने लगा, और उधार लेने लगा. मैंने वो पैसा कभी नहीं लौटाया- मुझपर शायद 2-3 लाख रुपए का कर्ज़ है’. उसने फोन्स और बाइकें चुराने की बात भी स्वीकार की.

उसने कहा कि अगर उसे नशा-मुक्ति केंद्र में दाख़िल न कराया जाता, तो 15-20 दिनों में उसकी मौत हो जाती. हेरोइन के बिना उसका शरीर काम नहीं करता था, और सोबर होने की स्थिति में अजीत पांच मिनट भी नहीं चल पाता था.

पूर्णिया के निजी नशामुक्ति केंद्र में लगा पोस्टर | ज्योति यादव/दिप्रिंट

पुलिस थानों में दिखने लगी हैं कफ सिरप और हेरोइन

मोबाइल छीनना, चेन छीनना, बाइक चोरी और दुकानों में चोरी सीमांचल में बहुत आम हो गई हैं. सरकारी इमारतों में हैण्डपंप्स तक नहीं बचे हैं. ज़िलों में छोटे-मोटे अपराधों में उछाल देखा जा रहा है, जिन्हें ज़्यादातर युवा लोग अंजाम देते हैं. दिप्रिंट को पुलिस अधिकारियों से अपराधों का विवरण मिला है.

पूर्णिया में 2019 में, स्वापक औषधि और मनःप्रभावी पदार्थ अधिनियम के तहत 15 मामले दर्ज किए गए थे, लेकिन 2021 तक ये संख्या बढ़कर 71 हो गई. हेरोइन की बरामदगी भी 2019 में 1.82 ग्राम से बढ़कर, 2021 में 1.8 किलोग्राम पहुंच गई. ज़िले में चोरियों की संख्या जो 2019 में 894 थी, 2021 तक बढ़कर 1,024 हो गई.

इससे सटे हुए ज़िलों- अररिया, कटिहार और किशनगंज में भी, स्थिति ज़्यादा अलग नहीं है.

मसलन, 2019 में अररिया पुलिस ने कोई हेरोइन बरामद नहीं की थी, लेकिन 2021 में, उसने 11.8 ग्राम की बरामदगी की. ज़ब्त की गई कफ सिरप की बोतलों की संख्या, जो 2019 में 120 थी, 2021 तक बढ़कर 2,962 बोतल पहुंच गई. किशनगंज में 2019 में हेरोइन की बरामदगी 18.31 ग्राम थी, लेकिन 2021 में ये मात्रा बढ़कर 1.36 किलोग्राम हो गई. कटिहार में 2021 में कोई हेरोइन बरामद नहीं हुई, लेकिन ज़ब्त हुए गांजे की मात्रा 2019 में 5 किग्रा से बढ़कर 2021 में 358 किग्रा. से अधिक हो गई.

किशनगंज के एसपी इनामुल हक़ ने दिप्रिंट को बताया: ‘हम उन युवाओं पर अपराधिक मुक़दमे नहीं कर रहे हैं, जो सरकारी इनफ्रास्ट्रक्चर की चोरी में शामिल पाए जाते हैं. हमने उन्हें प्रशिक्षण देने के लिए निजी एजेंसियों को साथ लिया है, और बाद में उन्हें निजी रोज़गार से जोड़ देते हैं’.

पूर्णिया के ज़िला मजिस्ट्रेट राहुल कुमार ने एक किताबदान अभियान शुरू किया है, ताकि युवाओं को लाइब्रेरियों की ओर आकर्षित किया जा सके, और एक ऐसा सार्वजनिक संस्थान उपलब्ध कराया जाए, जहां जाकर वो घंटों तक बैठ सकें.

लेकिन नीतीश कुमार के सामने निश्चित रूप से एक समस्या है, जिसके बढ़ जाने का उन्हें उस समय अंदाज़ा नहीं हुआ, जब उन्होंने बिहार में शराब पर पाबंदी लगाई थी.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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