नई दिल्लीः रूस, अमेरिका, चीन, जापान, यूरोपियन स्पेस एजेंसी सहित पूरी दुनिया ने चांद पर निगाहें गड़ा रखी हैं. हर कोई चांद पर जाना चाहता है, वहां बेस कैंप बनाना चाहता है. भारत भी 14 जुलाई को चंद्रयान-3 भेजने वाला है जो कि चंद्रमा के साउथ पोल पर लैंड करेगा और वहां से तमाम तरह के साक्ष्य जुटाएगा.
पहले भी तमाम मिशन भेजे गए जिनमें से कुछ सफल रहे तो कुछ असफल. सोवियत रूस, अमेरिका और चीन चंद्रमा पर सफलतापूर्वक मिशन भेज चुके हैं.
सवाल उठता है कि आखिर पूरी दुनिया क्यों चांद पर जाना चाहती है, ऐसा कौन सा राज़ चांद ने अपने अंदर छिपा के रखा है जिसकी वजह से पूरी दुनिया की निगाहें वहीं पर लगी हुई हैं.
सौरमंडल की उत्पत्ति के बारे में मिलेगी जानकारी
याद कीजिए चांद पर पहली बार पैर रखने वाले अपोलो एस्ट्रोनॉट नील आर्म्स्ट्रॉन्ग के जूतों के निशान के बारे में जिसके बारे में दावा किया जाता है कि वह अंतरिक्ष से दिखता है. क्या आपके मन में यह सवाल नहीं उठता कि 1969 से लेकर अब तक चंद्रमा की सतह पर यह निशान कैसे बना हुआ है. तो इसका जवाब है कि चंद्रमा पर वातावरण का न होना, जिसकी वजह से वहां आंधियां या तूफान नहीं चलते और अपरदन या इरोज़न की प्रक्रिया नहीं होती.
दरअसल 4 अरब साल पहले जब हमारे सौर मंडल का निर्माण हुआ था तब तमाम एस्टोरॉयड और उल्का पिंडों की सभी ग्रहों और उपग्रहों पर बारिश हो रही थी जिससे सभी ग्रहों और उपग्रहों पर तमाम तरह के क्रेटर्स या गर्तों का निर्माण हुआ. इन्हीं उल्का पिंडों की वजह से ही पृथ्वी पर पानी और माइक्रो ऑर्गेनिज़म्स भी आए जिससे पृथ्वी पर जीवन का विकास हुआ लेकिन वातावरण के विकास के कारण पृथ्वी सहित अन्य भी तमाम ग्रहों पर अपरदन या इरोज़न की प्रक्रियाएं होने लगीं जिससे समय के साथ तमाम भू आकृतियां बनती और मिटती रहीं.
पर चंद्रमा पर वातावरण नहीं है इसलिए वहां की सतह पर वे सौरमंडल की शुरुआत के सारे प्रमाण ज्यों के त्यों मौजूद हैं. तो अगर हम चंद्रमा की सतह का अध्ययन कर पाते हैं तो सौरमंडल की उत्पत्ति के बारे में पता लगा सकते हैं.
अन्य ग्रहों के बारे में जान सकेंगे
चंद्रमा का प्रयोग वैज्ञानिक अन्य ग्रहों जैसे मंगल, बुध इत्यादि की विशेषताओं की आयु के संदर्भ में भी करते हैं. चंद्रमा पर पृथ्वी और शुक्र इत्यादि ग्रहों की तरह टेक्टॉनिक ऐक्टिविटी नहीं होती है जिसकी वजह से चंद्रमा की आंतरिक संरचना इसकी उत्पत्ति के समय से वैसी ही है, इसमें किसी तरह का कोई बदलाव नहीं हुआ है. इसका अध्ययन करके वैज्ञानिक यह पता लगा सकते हैं कि ग्रहों की आंतरिक संरचना का निर्माण कैसे हुआ.
डीप-स्पेस स्टडी करने में होगी मदद
वैज्ञानिक इसलिए भी चंद्रमा का अध्ययन कर रहे हैं क्योंकि यह डीप स्पेस के लिए एक पायलट प्रोजेक्ट की तरह काम कर सकता है. दरअसल चंद्रमा के अध्ययन से वैज्ञानिक यह पता लगाने में सफल होते हैं कि कॉस्मिक रेडिएशन और चंद्रमा जैसे वातारण-विहीन ग्रहों पर छोटे-छोटे कणों की बारिश का क्या प्रभाव पड़ता है और इससे अंतरिक्ष में आगे के मिशन के लिए वैज्ञानिकों को यह समझने में मदद मिलती है कि उन ग्रहों या पिंडों पर जाने के लिए किस तरह की टेक्नॉलजी का प्रयोग किया जाना चाहिए.
इसके अलावा चंद्रमा पर अगर हम टेलीस्कोप स्थापित कर पाते हैं तो अन्य आकाशीय पिंडों के बारे में ज्यादा बेहतर तरीके से स्टडी कर पाएंगे क्योंकि चंद्रमा पर वातावरण नहीं है इसलिए वहां अंतरिक्ष में देखने पर किसी तरह का व्यवधान नहीं होता है.
ग्रीन एनर्जी सहित कई आर्थिक लाभ
नासा और इसरो ने चंद्रमा के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों पर बर्फ की खोज की है जो कि आने वाले समय में मनुष्य के लिए चंद्रमा पर रिहायश की एक उम्मीद जगाते हैं. चूंकि, पानी, हाइड्रोजन और ऑक्सीज़न के अणुओं से मिलकर बना होता है जिसे तोड़कर वातावरण में ऑक्सीज़न की उपलब्धता कराई जा सकती है. हालांकि, निकट भविष्य में इसकी संभावना काफी कम है और चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण भी चूंकि पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का 1/6 है, इसलिए मनुष्यों के लिए सामान्य तरीके से वहां रह पाना लगभग असंभव है.
कुछ एक्स्पर्ट्स का ऐसा भी मानना है कि भविष्य में बेहतर तकनीक के विकास के ज़रिए वहां के खनिजों का उपयोग मनुष्य अपने लिए कर सकता है. दरअसल, चंद्रमा पर हीलियम-3 काफी मात्रा में जो कि पृथ्वी पर बहुत कम मात्रा में पाया जाता है. अगर हम इसे पृथ्वी पर ला पाते हैं तो फ्यूज़न की प्रक्रिया के ज़रिए इससे काफी ऊर्जा पैदा की जा सकती है और यह काफी बेहतरीन ग्रीन एनर्जी का स्रोत बन सकता है. इसके अलावा अगर हम बेहतर तकनीक का निर्माण कर लेते हैं और चंद्रमा पर बेस कैंप बनाते हैं तो उस दौरान हम वहां पर भी इससे ऊर्जा की आवश्कता की पूर्ति कर सकते हैं.
चंद्रयान-3 में किए कई तकनीकी सुधार
दरअसल, चंद्रयान-2 की असफलता के बाद इसरो ने चंद्रयान-3 को लेकर कई तरह के बदलाव किए हैं ताकि रोवर को चंद्रमा की सतह पर सफलतापूर्वक उतारा जा सके. इसके लिए इस बार चंद्रमा के ऑर्बिट में पहुंचने के लिए ऑर्बिटर की जगह की जगह प्रोपल्शन मॉड्यूल का प्रयोग किया जाएगा. इसके अलावा लैंडर में भी तमाम तरह के तकनीकी सुधार किए गए हैं जिसकी वजह से सफल सॉफ्ट लैंडिंग की काफी संभावना है.
मीडिया को दिए एक इंटरव्यू में पूर्व इसरो चीफ के सिवन ने कहा कि पिछली बार चंद्रयान-2 में जो कमियां थीं जिसकी वजह से हम सॉफ्ट लैंडिंग नहीं कर पाए, वह दूर कर ले गई हैं इसलिए इस बात चंद्रमा के साउथ पोल पर लैंड करने की संभावनाएं काफी प्रबल हैं.
इसरो चीफ एस सोमनाथ ने भी चंद्रयान-3 के बारे में बात करते हुए मीडिया से कहा कि चंद्रयान-2 की तुलना में इस बार आवश्यक सुधार किए हैं ताकि हम चंद्रमा पर सफल लैंडिंग कर पाएं.
बता दें कि यदि ऐसा होता है तो भारत चंद्रमा के साउथ पोल पर सॉफ्ट लैंडिंग करने वाला पहला देश बन जाएगा. अब तक यूएसएसआर, अमेरिका और चीन चांद पर सफलतापूर्वक मिशन भेज चुके हैं लेकिन इनमें से किसी ने भी साउथ पोल पर सॉफ्ट लैंडिंग नहीं कराई है.
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