नई दिल्ली/देहरादून: उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाते हुए सरकार की तरफ से गठित समिति को सैकड़ों की संख्या में सुझाव मिले हैं.
दिप्रिंट को मिली जानकारी के मुताबिक, इनमें मुस्लिम महिलाओं को पूर्ण उत्तराधिकार, तलाक और लिव-इन रिश्तों का पंजीकरण, पुरुषों के एक से ज्यादा विवाह करने या बहुपति व्यवस्था पर पूरी तरह प्रतिबंध और बच्चों की संपत्ति में माता-पिता का अधिकार सुनिश्चित करना आदि शामिल है.
उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार ने पहाड़ी राज्य में समान नागरिक संहिता लागू करने की कवायद के तहत मई में सुप्रीम कोर्ट की रिटायर्ड जज रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में एक पांच सदस्यीय समिति गठित की थी.
इसमें हाई कोर्ट के रिटायर्ड जज प्रमोद कोहली, सामाजिक कार्यकर्ता मनु गौर, पूर्व मुख्य सचिव शत्रुघ्न सिंह और दून यूनिवर्सिटी की वीसी सुरेखा डंगवाल भी शामिल हैं.
शत्रुघ्न सिंह ने बताया, ‘समिति को मेल और ईमेल के जरिये अपने पोर्टल पर लाखों लोगों के सुझाव मिले हैं, और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर भी अपने सुझाव दिए हैं.
हालांकि, अभी यह प्रक्रिया जारी है, इसलिए इन सुझावों के बारे में सार्वजनिक तौर पर विस्तार से नहीं बताया जा सकता है. लेकिन तमाम सुझाव सराहनीय हैं और काफी उपयोगी भी है, और इन्हें आम लोगों के समक्ष लाया जाना चाहिए.’
ऑनलाइन सुझावों में लिव-इन रिलेशनशिप के पंजीकरण अनिवार्य बनाने और लड़के-लड़कियों दोनों की विवाह आयु समान रखने की वकालत की गई है.
ये सुझाव भेजने वालों का मानना है कि यद्यपि अभी लिव-इन रिलेशनशिप को नियंत्रित करने वाला कोई कानून नहीं है लेकिन इसे अवैध भी नहीं माना जाता है. जोड़े लिव-इन में रहते तो हैं लेकिन इस रिश्ते को ‘छिपाकर’ रखते हैं.
पूरे घटनाक्रम से वाकिफ एक अधिकारी ने कहा, ‘यदि इस पर कानूनी मुहर लग जाएगी तो जोड़ों को ये रिश्ता छिपाकर नहीं रखना पड़ेगा और वे पड़ोसियों और अन्य लोगों के साथ बातचीत के दौरान अधिक सहज महसूस करेंगे.
अभी तो उन्हें दूसरों से ताने मिलने की आशंका सताती रहती है. उन्हें लगता है कि यह एक अच्छी बात नहीं है. उनका यह भी मानना है कि लिव-इन रिलेशनशिप का रजिस्टर्ड होना दोनों भागीदारों को भी एक-दूसरे के प्रति अधिक जवाबदेह बनाएगा.’
सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि राज्य के विभिन्न हिस्सों में समिति की तरफ से सार्वजनिक स्तर पर किए गए संवाद और ऑनलाइन मिले सुझावों के मुताबिक, कई मुस्लिम संगठनों और आम लोगों का मानना है कि प्रस्तावित समान नागरिक संहिता में महिलाओं के व्यापक हितों को ध्यान में रखते हुए तलाक के पंजीकरण को शामिल किया जाना चाहिए.
ऊपर उल्लिखित अधिकारी ने कहा, ‘मुसलमानों ने यूसीसी के प्रस्तावित मसौदे में अपनी बेटियों के लिए पूर्ण उत्तराधिकार अधिकार शामिल करने पर जोर दिया.
कई लोगों का कहना है कि हिंदू उत्तराधिकार कानून की तरह मुस्लिम लड़कियों को भी अपने माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार मिलना चाहिए. उनका तर्क है कि माता-पिता की मृत्यु की स्थिति में मुस्लिम लड़कियों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है.
वहीं, विवाहित महिलाओं को अपने पति पर निर्भर रहना पड़ता है. उन्होंने कहा कि यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि जीवन निर्वाह के लिए उनके पास अपने खुद के संसाधन हों.’
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कुछ ने पूछा—इस पर कैसे होगा अमल
सूत्रों ने कहा कि अधिकांश सुझाव यूसीसी के पक्ष में रहे हैं, हालांकि, कुछ लोगों ने ये सवाल उठाया कि इस पर अमल कैसे होगा.
कई सार्वजनिक संवाद जनजातीय बेल्ट और ग्रामीण व पहाड़ी क्षेत्रों में आयोजित किए गए जहां बहुविवाह और बहुपति प्रथा पर पूरी तरह पाबंदी लगाने के सुझाव भी दिए गए.
यूसीसी समिति के एक सदस्य ने कहा, ‘सार्वजनिक स्तर पर संवाद कार्यक्रमों के दौरान लोगों ने ऐसी प्रथाओं पर कड़ी आपत्ति जताई, खासकर महिलाओं ने कहा कि ऐसी प्रथाएं जारी नहीं रहनी चाहिए.
वहीं, कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया कि यूसीसी को आखिर लागू कैसे किया जाएगा क्योंकि यह एक बेहद जटिल प्रक्रिया होगी. हम इस मुद्दे को धार्मिक नहीं बल्कि लैंगिक समानता के नजरिये से देख रहे हैं.’
समिति से जुड़े सूत्रों ने यह भी कहा कि सार्वजनिक संवाद के दौरान वरिष्ठ नागरिकों की तरफ से बच्चों को सौंपी गई संपत्ति वापस लेने के हक की वकालत की गई, साथ ही साथ बच्चों की संपत्ति पर माता-पिता का अधिकार सुनिश्चित करने पर भी जोर दिया गया.
माता-पिता ने मांग की कि जरूरत पड़ने पर उन्हें अपने बच्चों को सौंपी संपत्ति वापस लेने का अधिकार हो. इसके पीछे कारण यह बताया गया कि कई बार अपनी संपत्ति कानूनी तौर पर बच्चों के नाम पर करके माता-पिता फंस जाते हैं और बेहतर जीवन जीने से वंचित रह जाते हैं.
उन्हें खुद को असुरक्षित महसूस करने की स्थिति में अपना फैसला पलटने का अधिकार होना चाहिए, भले ही आंशिक रूप से ही सही.
बुजुर्ग मुसलमानों ने समिति से बातचीत के दौरान कहा कि वे अपना पूरा जीवन और कमाई बच्चों को किसी लायक बनाने में लगा देते हैं और बदले में बुढ़ापे में उनकी तरफ से देखभाल की अपेक्षा करते हैं.
उन्होंने मांग की कि ऐसी कानूनी व्यवस्था की जाए जिसमें बच्चों द्वारा माता-पिता की देखभाल करना सुनिश्चित हो सके और कुछ परिस्थितियों में बच्चों की संपत्ति में माता-पिता को भी अधिकार मिल सके.
बुजुर्गों का कहना था कि अभी बेटों की मृत्यु की स्थिति में उनकी संपत्ति में माता-पिता का कोई कानूनी अधिकार नहीं होता. यह उनकी पत्नियों को मिलता है, जो अक्सर अपने ससुराल वालों से अलग हो जाती हैं.
तर्क दिया गया है कि कई माता-पिता, खासकर जो पूरी तरह अपने बेटों पर निर्भर होते हैं, उस समय अधर में रह जाते हैं जब उनकी बेटों की संपत्ति बहुओं के पास चली जाती है.
समिति को राज्य में व्यक्तिगत नागरिक अधिकारों के मामलों के संबंध में प्रासंगिक कानूनों की पड़ताल करने और बाकायदा एक मसौदा तैयार करके विवाह, तलाक, संपत्ति के अधिकार, उत्तराधिकार या विरासत, गोद लेने, देखभाल, कस्टडी आदि विषयों पर मौजूदा कानूनों में जरूरी संशोधन सुझाने का जिम्मा सौंपा गया था.
इसके बाद, समिति ने अपने पोर्टल, ईमेल और डाक संदेशों के जरिये सार्वजनिक सुझाव आमंत्रित किए और लोगों को सीधे दफ्तर आकर सुझाव देने की सुविधा भी दी गई.
इसे अब तक करीब 4.4 लाख सुझाव मिल चुके हैं. इसमें कार्यालय में व्यक्तिगत स्तर पर जमा कराए गए लगभग 3.5 लाख पत्र, पोर्टल में मिली 61,000 पोस्ट और ईमेल के माध्यम से आए लगभग 24,000 सुझाव शामिल हैं.
इसके अलावा समिति के सदस्यों ने चमोली, रुद्रप्रयाग, उधम सिंह नगर, चंपावत, पिथौरागढ़ और हरिद्वार जिलों में 16 सार्वजनिक संवाद किए.
शत्रुघ्न सिंह ने कहा, ‘अभी तक केवल आधे सार्वजनिक संवाद ही आयोजित हो पाए हैं, यद्यपि सुझाव लेने की समयसीमा पूरी हो गई है लेकिन ऐसा किया जाना अभी जारी है.
जनसंवाद के एक और दौर का आयोजन 9 नवंबर के बाद होगा. हम सर्दियां बढ़ने से पहले नवंबर में सभी तय पहाड़ी क्षेत्रों तक पहुंचना चाहते हैं.’
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