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Sunday, 5 May, 2024
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क्या हत्या के दोषी को बच्चा पैदा करने के लिए पैरोल मिलनी चाहिए? SC में दायर याचिका पर कोर्ट करेगा विचार

राजस्थान हाईकोर्ट की ओर से उम्रकैद की सजा पाने वाले अपराधी को संतान पैदा करने के लिए पैरोल देने के फैसले को चुनौती देने वाली राज्य सरकार की याचिका पर विचार करने के लिए सुप्रीम कोर्ट तैयार हो गया है. उच्च न्यायालयों ने इस विषय पर परस्पर विरोधी फैसले सुनाए हैं.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट सोमवार को राजस्थान सरकार की एक याचिका पर विचार करने के लिए सहमत हो गया है. इस याचिका में राजस्थान उच्च न्यायालय के उस फैसले को चुनौती दी गई है जिसमें अपनी पत्नी के साथ परिवार शुरू करने के लिए आजीवन कारावास के दोषी को 15 दिन की पैरोल पर रिहा करने के लिए कहा गया है.

राजस्थान की ये याचिका कैदियों के वैवाहिक अधिकारों और उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए परस्पर विरोधी फैसलों को चर्चा में ले आया है. कुछ लोगों का मानना है कि ‘कैद के दौरान प्रजनन का अधिकार सुरक्षित रहता है’ और हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) के दायरे में आता है और कुछ लोग इसे एक अलग ही नजरिए से देख रहे हैं.

भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) एन वी रमना की अगुवाई वाली पीठ के समक्ष अपील का उल्लेख करते हुए, राजस्थान सरकार के वकील ने इस आधार पर जल्द सुनवाई का आग्रह किया कि 7 अप्रैल के आदेश ने मुकदमेबाजी के लिए एक ऐसा रास्ता खोल दिया है, जिसमें कई अपराधी पेरोल लेने के लिए उसी तरफ भाग रहे हैं.

हाईकोर्ट का आदेश हत्या के दोषी की पत्नी की याचिका पर आया जिसमें उसने तर्क दिया था कि वह निःसंतान है, इसलिए उसके पति को पेरोल पर रिहा किया जाना चाहिए ताकि उसे संतान हो सके. अदालत ने याचिका पर विचार करते हुए कहा कि कैदी को उसके दाम्पत्य अधिकारों को पूरा करने के अवसर से वंचित करना, विशेष रूप से प्रजनन के उद्देश्य के लिए, पत्नी के अधिकारों पर प्रतिकूल असर डालेगा.

शीर्ष अदालत में राजस्थान सरकार ने कहा कि उच्च न्यायालय का आदेश राज्य के जेल नियमों के अनुरूप नहीं था, जो रिहाई के हकदार कैदियों की श्रेणियों और उन आधारों की रूपरेखा तैयार करता है जिन पर एक दोषी को पेरोल दी जा सकती है. सरकार ने विचार करने के लिए अदालत के समक्ष दस्तावेज प्रस्तुत किए जो बताते हैं कि जेल नियमों के तहत प्रजनन के लिए सहवास पैरोल के लिए वैध आधार नहीं है.

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राजस्थान सरकार ने दलील दी कि पैरोल पूरी तरह से दोषी की पत्नी के बच्चा पैदा करने के अधिकार पर आधारित है और अपराध के पीड़ितों के अधिकारों की पूरी तरह से अनदेखी करता है. यह एकपक्षीय फैसला है.

राज्य सरकार की याचिका पर संज्ञान लेते हुए मुख्य न्यायाधीश की पीठ अगले सप्ताह मामले की सुनवाई के लिए तैयार हो गई. यह पहली बार है कि शीर्ष अदालत इस मुद्दे पर विचार कर रही है. इसलिए उम्मीद की जा रही है कि इस विषय पर उनका फैसला नजीर बन सकता है.

पैरोल विशेष उद्देश्य के लिए एक कैदी की अस्थायी रूप से या पूरी तरह से जेल की सजा पूरी होने से पहले रिहाई है. राज्यों के अपने नियम हैं जिसके आधार पर पैरोल को लेकर फैसला किया जाता है.

सुप्रीम कोर्ट के वकील गौरव अग्रवाल ने दिप्रिंट को बताया कि पैरोल देने का एकमात्र आधार दाम्पत्य अधिकार नहीं हो सकता है. जेल सुधारों पर शीर्ष अदालत की मदद करने वाले अग्रवाल ने कहा, ‘दोषी और पीड़ित के अधिकारों के बीच एक अच्छा संतुलन बनाया जाना चाहिए. साथ ही यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपायों का उल्लेख किया जाना चाहिए कि अपराधी इस अधिकार का दुरुपयोग नहीं करेगा.’


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‘संतान के अधिकार का ज़िक्र धर्मग्रंथों में भी’

ऊपर दिए गए मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय ने पत्नी की याचिका पर ‘धार्मिक, सामाजिक और कानूनी’ पहलुओं पर उसके ‘वैवाहिक अधिकार’ और ‘संतान के अधिकार’ पर विचार करते हुए फैसला सुनाया है.

धार्मिक आधार पर जस्टिस संदीप मेहता और फरजंद अली की खंडपीठ ने हिंदू धर्म, यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और इस्लाम के धर्मग्रंथों का हवाला देते हुए कहा कि धार्मिक और सांस्कृतिक जनादेश में संतान का अधिकार शामिल है.

निर्णय में कहा गया है कि हिंदू दर्शन ‘गर्भ के धन’ की बात करता है, जबकि इस्लामी शरिया वंश के संरक्षण पर जोर देता है.

सामाजिक पहलू पर हाईकोर्ट ने कहा कि हिंदू दर्शन के अनुसार मानव जीवन के चार वास्तविक लक्ष्य या उद्देश्य हैं, जिनमें से एक काम या प्रजनन है. अन्य तीन यानी धर्म, अर्थ और मोक्ष को अकेले पाया जा सकता हैं लेकिन चौथा उद्देश्य यानी काम (इच्छा), केवल एक पति या पत्नी के साथ ही पूरा किया जा सकता है.

इसमें कहा गया है कि आजीवन कारावास की सजा पाने वाला व्यक्ति और उसकी पत्नी दोनों काम से वंचित हैं. उच्च न्यायालय ने कहा, ‘ऐसे मामले में जहां निर्दोष पति या पत्नी एक महिला है और वह मां बनना चाहती है, राज्य की जिम्मेदारी अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है. क्योंकि एक विवाहित महिला के लिए नारीत्व को पूरा करने के लिए बच्चे को जन्म देना जरूरी है.’

कानूनी आधार पर न्यायाधीशों ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के 2014 के एक फैसले का हवाला देते हुए कहा कि ‘कैद के दौरान प्रजनन का अधिकार सुरक्षित रहता है’ और हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 के दायरे में आता है.

अपनी अपील में राजस्थान सरकार ने तर्क दिया कि किसी दोषी को पैरोल दिए जाने का एकमात्र आधार अच्छा व्यवहार नहीं हो सकता है. अन्य बातों पर भी विचार किया जा सकता है जैसे कि जेल में बिताया गया समय, समान रूप से महत्वपूर्ण है.

राज्य ने कहा, राज्य के जेल नियम आपातकालीन आधार पर या ‘प्राकृतिक आपदा से जीवन या संपत्ति को गंभीर नुकसान’ की स्थिति में पैरोल की अनुमति देते हैं. लेकिन इन कारणों को इतने व्यापक रूप से नहीं बढ़ाया जा सकता कि इसमें ‘संतान होने का अधिकार’ शामिल किया जाए, जो ‘एक बेतुकी स्थिति’ का कारण बन सकता है.

राज्य की याचिका में कहा गया, ‘यह एक बेतुकी स्थिति पैदा कर सकता है. इसके आधार पर कई बार पैरोल की मांग की जा सकती है और अधिकारी स्थिति या जरूरत को सत्यापित करने में भी सक्षम नहीं होंगे.’ इस याचिका की एक प्रति दिप्रिंट के पास है.


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HC के परस्पर विरोधी फैसले 

भारत में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने 2014 में एक कैदी के ‘वैवाहिक अधिकारों’ पर पहला फैसला सुनाया था. हत्या के एक मामले में उम्रकैद की सजा काट रहे पंजाब के एक दंपति की याचिका पर यह फैसला आया था. दोनों जेल परिसर के भीतर दाम्पत्य जीवन और प्रजनन की अनुमति चाहते थे.

हालांकि दंपति को राहत देने से इनकार कर दिया गया था, लेकिन अदालत ने माना कि ‘वैवाहिक संबंध’ के लिए पैरोल पंजाब जेल नियम, 1962 की धारा 3 (1) (डी) के तहत एक वैध और पर्याप्त आधार होगा, जो ‘किसी अन्य पर्याप्त कारण’ के लिए एक दोषी की अस्थायी रिहाई की अनुमति देता है.’

‘वैवाहिक अधिकारों’ को अनुच्छेद 21 का एक हिस्सा बताते हुए, उच्च न्यायालय ने पंजाब सरकार को ‘जेल के कैदियों के लिए वैवाहिक जीवन निभाने के लिए एक वातावरण बनाने के लिए एक योजना तैयार करने और … ऐसी सुविधाओं की लाभकारी प्रकृति और सुधारात्मक लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए, हकदार कैदियों की श्रेणियों की पहचान करने के लिए एक जेल सुधार समिति का गठन करने का निर्देश दिया.’

हालांकि पंजाब ने अभी तक ऐसा नहीं किया है. मगर हरियाणा ने पिछले साल अक्टूबर में इस मामले को देखने के लिए रिटायर्ड हाईकोर्ट जज, न्यायमूर्ति एच.एस. भल्ला के तहत एक पैनल की स्थापना की. पैनल को एक साल का कार्यकाल दिया गया और साथ ही खुली जेलों के दायरे का विस्तार करने के लिए जेल नियमावली में सुधार का सुझाव देने का अधिकार भी दिया गया.

हालांकि, HC के अलग-अलग फैसले ‘वैवाहिक अधिकारों’ पर अलग-अलग कानूनी राय देते नजर आए हैं. उदाहरण के लिए, पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने खुद दो अलग-अलग फैसले दिए हैं. 2019 में इसने वैवाहिक जीवन निभाने और प्रजनन के लिए पैरोल पर रिहाई के लिए एक व्यक्ति की याचिका को अनुमति दी. लेकिन इस साल फरवरी में उच्च न्यायालय ने अपने दोषी पति के लिए पैरोल की मांग करने वाली एक महिला की याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यह ‘पूर्ण अधिकार’ नहीं है.

इसी तरह मद्रास उच्च न्यायालय ने 2018 में पत्नी द्वारा दायर याचिका पर दांपत्य जीवन के लिए आजीवन सजा पाए दोषी को पैरोल दी और कहा कि वैवाहिक जीवन के लिए पैरोल देने से पारिवारिक बंधन मजबूत होते हैं और परिवार को बनाए रखते हैं.

लेकिन 2019 में मद्रास उच्च न्यायालय डिवीजन बेंच ने तीन न्यायाधीशों की एक बड़ी बेंच से यह तय करने का आग्रह किया था कि क्या वैवाहिक अधिकारों से इनकार एक कैदी के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन होगा. जनवरी में एक आधिकारिक घोषणा में हाईकोर्ट ने कहा कि एक दोषी को अपने पति या पत्नी के साथ संबंध रखने के लिए साधारण कारणों से पैरोल पर रिहा नहीं किया जा सकता है. इसके लिए एक असाधारण कारण होना चाहिए, जैसे कि बांझपन के उपचार की जरूरत.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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