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Saturday, 20 April, 2024
होमदेश‘बदले में तोड़फोड़ नहीं कर सकते’—सुप्रीम कोर्ट ने UP सरकार को नोटिस जारी किया, लेकिन बुलडोजर अभियान पर कोई रोक नहीं

‘बदले में तोड़फोड़ नहीं कर सकते’—सुप्रीम कोर्ट ने UP सरकार को नोटिस जारी किया, लेकिन बुलडोजर अभियान पर कोई रोक नहीं

शीर्ष कोर्ट ने राज्य को यह बताने के लिए तीन दिन का समय दिया है कि सप्ताहांत में कानपुर और प्रयागराज में चला ध्वस्तीकरण अभियान क्या प्रक्रियात्मक तौर पर सही और नगरपालिका कानूनों के अनुरूप था.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को कहा कि विध्वस्तीकरण अभियान केवल कानून के तहत चलाया जा सकता है, राज्य की जवाबी कार्रवाई के तौर पर नहीं.

शीर्ष कोर्ट ने पैगंबर मुहम्मद पर भाजपा के पूर्व प्रवक्ताओं की टिप्पणी को लेकर भड़की हिंसा के बाद कानपुर और प्रयागराज में चले बुलडोजर अभियान को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस जारी करते हुए यह टिप्पणी की.

हालांकि, खंडपीठ ने ध्वस्तीकरण अभियान रोकने की आवेदकों की अपील को खारिज कर दिया.

जस्टिस ए.एस. बोपन्ना और जस्टिस विक्रम नाथ की अवकाशकालीन पीठ ने कहा कि इस संदर्भ में पूरी प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए ताकि नागरिकों के बीच यह भावना बनी रहे कि देश में कानून का राज कायम है.

कोर्ट इस्लामी विद्वानों के एक संगठन जमीयत उलमा-ए-हिंद की ओर से दायर याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी जिसमें राज्य को अनधिकृत ध्वस्तीकरण अभियान चलाने से रोकने की मांग की गई है. ताजा आवेदन जमीयत की तरफ से अप्रैल में दायर एक रिट याचिका का ही हिस्सा है, जो उत्तरी दिल्ली नगर निगम ने राष्ट्रीय राजधानी के दंगा प्रभावित जहांगीरपुरी इलाके में कथित तौर पर अतिक्रमण विरोध अभियान चलाए जाने के खिलाफ दायर की गई थी.

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यूपी सरकार की ओर से पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने ध्वस्तीकरण अभियान के बचाव की कोशिश करते हुए कहा कि यह कार्रवाई उन्हें कानूनी तौर पर पूर्व नोटिस देने के बाद की गई थी. वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे भी उनका साथ दे रहे थे और बहस के दौरान उनकी मौजूदगी ऑनलाइन थी.

डिमोलिशन अभियान चलाने वाले अधिकारियों का प्रतिनिधित्व करते हुए साल्वे ने याचिकाकर्ताओं के इस आरोप का खंडन किया कि ध्वस्तीकरण में कानूनी प्रक्रियाओं का उल्लंघन हुआ है.

हालांकि, पीठ ने दोनों पक्षों को मौखिक तौर पर बताया कि वह ‘ध्वस्तीकरण अभियान को ना नहीं कह सकती’ लेकिन इसे पूरी प्रक्रिया का पालन करते हुए ही अंजाम दिया जाना चाहिए.

शीर्ष कोर्ट ने कहा, ‘सब कुछ पूरी निष्पक्षता के साथ नजर आना चाहिए, और हम उम्मीद करते हैं कि अधिकारी केवल कानूनों के तहत ही कार्य करेंगे.’ साथ ही यूपी सरकार को यह बताने के लिए तीन दिन का समय दिया कि क्या हालिया ध्वस्तीकरण कार्रवाई प्रक्रियात्मक तौर पर सही और नगरपालिका कानूनों के अनुरूप थी.

पीठ ने इस पर जोर दिया कि प्रशासनिक अधिकारी कानूनों का पालन करें, खासकर उन मीडिया रिपोर्टों के परिप्रेक्ष्य में, जिसमें कहा गया था कि ध्वस्तीकरण अभियान सप्ताहांत में चलाया गया जब अदालतें बंद थीं ताकि प्रभावित पक्ष किसी भी कानूनी उपाय का लाभ न उठा सकें.

जमीयत उलमा-ए-हिंद ने अपनी रिट याचिका में यूपी और मध्य प्रदेश में पूर्व में चले ऐसे ध्वस्तीकरण अभियानों को बतौर उदाहरण सामने रखा जिसमें कथित तौर पर किसी तरह के अपराध, खासकर दंगों में शामिल होने के आरोपी मुसलमानों के घर ध्वस्त किए गए थे.

इसने तब कोर्ट से सभी ध्वस्तीकरण अभियानों को रोकने के लिए एक व्यापक आदेश जारी करने की मांग रखी थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया था. हालांकि, शीर्ष अदालत ने याचिका पर नोटिस जारी किया था.


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डिमोलिशन यूपी शहरी योजना कानून के अनुरूप नहीं’

जमीयत उलमा-ए-हिंद की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता सी.यू. सिंह ने अपनी दलील पेश करते हुए कहा कि चूंकि कोर्ट ने यथास्थिति पर कोई आदेश नहीं दिया था, इसलिए यूपी के अधिकारियों ने इसका फायदा उठाया और हाल में कथित तौर पर कानपुर और प्रयागराज में हिंसक विरोध प्रदर्शनों में शामिल लोगों की संपत्तियों पर बुलडोजर चला दिया.

उनकी दलील थी कि यह ध्वस्तीकरण उत्तर प्रदेश शहरी नियोजन और विकास अधिनियम, 1973 की धारा 27 का पालन नहीं करते, जिसके तहत अनधिकृत निर्माण के लिए जिम्मेदार व्यक्ति या संबंधित संपत्ति के मालिक को वहां से हटने के लिए 15 दिन का नोटिस जारी किया जाता है.

15 दिन की अवधि के अलावा संपत्ति के मालिक अथवा वहां रहने वाले को इस नोटिस को चुनौती देने के लिए 25 दिन का और समय भी दिया जाता है.

सी.यू. सिंह ने कहा कि 40 दिन की अवधि पूरी होने से पहले अधिकारी कोई कार्रवाई नहीं कर सकते.

उन्होंने दलील दी कि राज्य प्रशासन ने लोगों को नोटिस जारी किए जाने की बात कहकर ध्वस्तीकरण अभियान को जायज ठहराया है. हालांकि, उच्च संवैधानिक पदों पर आसीन राजनीतिक नेताओं के बयानों से साफ है कि ध्वस्तीकरण अभियान में केवल उन लोगों को निशाना बनाया गया जो विरोध प्रदर्शन का हिस्सा थे.

उन्होंने कोर्ट को बताया, ‘ये घर पिछले 20 वर्षों से बने हुए हैं, और पक्के हैं और एक दिन अचानक किसी प्रक्रिया के पालन के लिए पर्याप्त समय दिए बिना उन्हें ढहा दिया गया.’

उन्होंने आगे कहा कि इसके अलावा जिन घरों को ध्वस्त किया गया, वे उन लोगों के स्वामित्व वाले नहीं थे जिनका नाम हिंसा के संबंध में दर्ज एफआईआर में है, या जिन्होंने विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया था.

‘तथ्यों को रिकॉर्ड में लाएं’

मेहता और साल्वे दोनों ने वरिष्ठ अधिवक्ता सिंह की दलीलों को निराधार ठहराया और कोर्ट से किसी संगठन की याचिका पर विचार नहीं करने का आग्रह किया. उन्होंने इस पर जोर दिया कि ऐसे मामलों में केवल पीड़ित पक्षों को ही आकर अपनी बात रखनी चाहिए.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने मेहता और साल्वे से कहा कि वे मामले को एक कानूनी याचिका में न बदलें.

इस दौरान बेंच ने टिप्पणी की, ‘विचार का विषय यह नहीं है कि हमारे सामने किसे अपील करनी चाहिए. बिना नोटिस के ध्वस्तीकरण अभियान नहीं चलाया जा सकता, हम इसके प्रति सजग हैं.’

पीठ ने आगे कहा, ‘हमें इस तथ्य को ध्यान में रखना होगा कि जिन लोगों के घर ध्वस्त हुए हैं, वे शायद कोर्ट का दरवाजा खटखटाने में सक्षम न हों.’

साल्वे ने अपनी इस दलील, कि पूर्व नोटिस जारी करने की प्रक्रिया अपनाई गई थी, की पुष्टि के लिए याचिकाकर्ताओं द्वारा उद्धृत तीन मामलों—एक प्रयागराज और दो कानपुर—में पूरे घटनाक्रम का ब्योरा कोर्ट के सामने रखा.

उन्होंने घटनाओं का ब्योरा एक हलफनामे के तौर पर रखने की पेशकश की, जिसे अदालत ने अनुमति दे दी.

हालांकि, पीठ ने कहा, ‘आवेदनों पर जवाब दें और तथ्यों को रिकॉर्ड में लाएं. साथ ही, यह भी सुनिश्चित करें कि इस दौरान कुछ भी अप्रिय न घटे. मामला कोर्ट के सामने है, कुछ तो सम्मान होना चाहिए.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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