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Monday, 4 November, 2024
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भारत में बने शिपिंग कंटेनर्स- मोदी सरकार कैसे बना रही चीन के ‘एकाधिकार’ पर निर्भरता कम करने का लक्ष्य

महामारी के दौरान शिंपिंग ग्रेड कंटेनर्स की भारी कमी देखी गई थी. इसके नतीजे में शिपिंग लाइन्स ने कंटेनर भाड़े की दरें बढ़ा दी थीं, जिससे भारत की निर्यात आयात सप्लाई चेन प्रभावित हुई थी.

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नई दिल्ली: चीन पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए मोदी सरकार एक व्यापक योजना पर काम कर रही है, जिसके तहत भारत में शिपिंग ग्रेड के कंटेनर्स का निर्माण किया जाएगा, इसके लिए स्वदेशी कंपनियों को ‘उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (पीएलआई) दिया जाएगा.

कोविड-19 महामारी के दौरान दुनिया भर में शिंपिंग ग्रेड कंटेनर्स की भारी कमी देखी गई थी. इनकी कमी के चलते दुनिया भर की शिपिंग लाइन्स ने कंटेनर भाड़े की दरों में भारी इज़ाफा कर दिया था, जिससे भारत की निर्यात आयात सप्लाई चेन बुरी तरह प्रभावित हुई थी.

वर्तमान में, कुछ गिनी-चुनी घरेलू कंपनियां कंटेनर्स बनाती हैं जो रेलमार्गों पर सेवा मुहैया कराते हैं, लेकिन उनकी संख्या बहुत कम है. रेल मंत्रालय के आधीन एक सार्वजनित क्षेत्र उपक्रम (पीएसयू) कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (कॉनकॉर), भारत में कंटेनर बेड़े की सबसे बड़ी संचालक है, जिसके पास 37,000 कंटेनर्स हैं. लेकिन घरेलू क्षेत्र की ज़रूरतें पूरा करने में लगा पूरा बेड़ा, चीन से आयात किया हुआ है जिसका इस क्षेत्र में एकाधिकार है.

अकेले घरेलू हिस्से के लिए कॉनकॉर को अगले तीन सालों में क़रीब 50,000 कंटेनर्स की ज़रूरत है.

कॉनकॉर, जिसने पिछले साल घरेलू कंपनियों को 8,000 कंटेनर्स के निर्माण का ऑर्डर दिया था, उसने अब भावनगर-स्थित एक निजी कंपनी को 10,000 और कंटेनर बनाने का एक दूसरा ऑर्डर दिया है.

समस्या को समझने और शिपिंग ग्रेड कंटेनर्स के निर्माण की क्षमता पैदा करने की योजना बनाने के लिए जून में प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर गठित एक अंतर-मंत्रालयी पैनल ने अब इसके लिए कई उपाय सुझाए हैं, जिनमें कंटेनर निर्माण के लिए स्वदेशी कंपनियों को पीएलआई (उत्पादन-लिंक्ड-प्रोत्साहन) देना शामिल है.

एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने, जो अपना नाम नहीं बताना चाहते थे, दिप्रिंट को बताया, ‘पीएलआई मसौदा तैयार है और उसे अंतर-मंत्रालयी परामर्श के लिए सर्कुलेट करने की प्रक्रिया चल रही है’.

अंतर-मंत्रालयी समिति ने- जिसमें जहाज़रानी, स्टील, तथा वाणिज्य मंत्रालयों और कॉनकॉर तथा राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा विकास निगम (एनआईसीडीसी) के अधिकारी शामिल हैं- कंटेनर निर्माण के लिए ज़रूरी एक विशेष प्रकार के स्टील की उपलब्धता और देश में बने कंटेनर्स की निगरानी तथा सत्यापन के लिए, पैनलों और एजेंसियों की संख्या बढ़ाने जैसे मुद्दों पर भी ग़ौर किया.

15 अगस्त को रेलमंत्री अश्विनी वैष्णव, जहाज़रानी मंत्री सर्बानंद सोनोवाल, तथा स्वास्थ्य मंत्री मंसुख मंडाविया ने कमेटी की सिफारिशों तथा संबंधित एजेंसियों द्वारा उनके ऊपर की गई कार्रवाइयों की समीक्षा की.

उद्योग के हितधारकों से बातचीत के दौरान कमेटी को बताया गया कि कंटेनर बनाने में एक ख़ास तरह का स्टील इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन वर्तमान में उसके लिए कोई भारतीय मानक उपलब्ध नहीं हैं.

एक अधिकारी ने जो उस कमेटी का हिस्सा थे, दिप्रिंट को बताया, ‘कंटेनर्स बनाने के लिए आपको एक विशेष कॉर्टन-ए स्टील की ज़रूरत होती है. कमेटी ने ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टैंडर्ड्स (बीआईएस) के साथ इस मुद्दे को उठाया, जिसने अब एक भारतीय मानक जारी किया है, जो कॉर्टन-ए स्टील की विशेषताओं के बराबर है’.

इस्पात मंत्रालय स्टील निर्माताओं से भी बात कर रहा है कि वो ख़ुद को बीआईएस के साथ पंजीकृत कराएं, और निर्दिष्ट मानकों के अनुसार स्टील बनाने के लिए लाइसेंस हासिल करें. इसी तरह कमेटी के निर्देश पर महानिदेशक (शिपिंग) ने निरीक्षण और प्रमाणन एजेंसियों की संख्या दो से बढ़ाकर छह कर दी है.

ये एजेंसियां आईएसओ मानक टेस्ट के अनुसार कंटेनर्स को प्रमाणित करती हैं.


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उद्योग विशेषज्ञों ने कहा- कंटेनर हब बनने का रास्ता लंबा है

हालांकि, भारत ने उचित दरों पर अंतर्राष्ट्रीय गुणवत्ता के शिपिंग ग्रेड कंटेनर्स के बड़े पैमाने पर निर्माण का काम शुरू कर दिया है, लेकिन उद्योग विशेषज्ञों को लगता है कि भारत को अभी एक लंबा रास्ता तय करना होगा, उसके बाद ही वो ऐसे कंटेनर्स के निर्यात का केंद्र बन पाएगा.

विशेषज्ञों का कहना था कि अगर भारत कंटेनर निर्माण को बढ़ाना चाहता है, तो उसके लिए पीएलआई के रूप में सराकारी सहायता देना बेहद ज़रूरी है, लेकिन सिर्फ वही काफी नहीं है. लॉजिस्टिक्स चेन के एकीकरण को पूरा करने के लिए सरकार को अपनी ख़ुद की शिपिंग लाइन शुरू करने के बारे में सोचना चाहिए.

कंटेनर निर्माण करने वाली एक कंपनी कल्याणी कास्ट टेक प्रा. लिमिटेड के निदेशक नरेश कुमार ने कहा कि आज कंटेनर्स की मालिक या तो शिपिंग लाइन्स हैं या फिर बड़ी लीज़िंग कंपनियां हैं. ‘भारत में कोई शिपिंग लाइन्स नहीं हैं. भारत के पास कंटेनर्स की एक बहुत छोटी सी संख्या है, और भारत के 98.99% कंटेनर्स चीन में निर्मित हैं. हमारे बढ़ते हुए निर्यात को देखते हुए, ये एक ऐसा क्षेत्र में जिसमें भारत को योगदान देना चाहिए’.

कुमार ने आगे कहा कि अगर भारत को कंटेनर हब बनना है, तो उसे एक्सिस (निर्यात-आयात) बाज़ार की ज़रूरतों को पूरा करना होगा और घरेलू बाज़ार बहुत नाज़ुक है.

फेडरेशन ऑफ इंडियन एक्सपोर्ट ऑर्गनाइज़ेशन के अध्यक्ष डॉ ए शक्तिवेल इससे सहमत हैं. उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘शिपिंग लाइन्स की मांग हमेशा बनी रहेगी, क्योंकि हमें निर्यात और आयात दोनों करने होते हैं. एक बार हमारी अपनी शिपिंग लाइन हो जाए, तो कंटेनर्स की मांग अपने आप पैदा हो जाएगी. सरकार को निजी कंपनियों को प्रोत्साहित करना चाहिए कि वो आगे आएं और शिपिंग लाइन्स स्थापित करें, और साथ ही कंटेनर निर्माण का काम भी हाथ में लें’.

ड्रीवरी शिपिंग कंसल्टेंट्स लिमिटेड के डायरेक्टर शैलेष गर्ग ने कहा कि भारत को देखना होगा कि विश्व बाज़ार कैसे काम करता है: ‘फिलहाल काफी हद तक इसमें एकाधिकार की स्थिति है, और इसमें घुसना एक चुनौती है. हम क़ीमतों को कम करके शायद इसमें घुसने की कोशिश कर सकते हैं’.

उन्होंने कहा, ‘समस्या ये है कि हमारी लागतें थोड़ा ऊपर की तरफ हैं, और अगर हमें मुक़ाबले में आना है तो हम कितनी सब्सिडी दे सकते हैं, क्या भारत की स्टील कंपनियां ज़रूरी स्टील की सप्लाई बढ़ाएंगी? सरकार कितनी सब्सिडी और प्रोत्साहन दे रही है, और तीसरे, अगर हम हर साल 1,000-5,000 का निर्माण करते हैं, तो हम बड़े पैमाने की किफायतों पर कैसे मुक़ाबला करेंगे?’

गर्ग ने आगे कहा कि भारत ने महामारी के दौरान सामने आई क़िल्लत को देखते हुए प्रतिक्रिया स्वरूप इस बारे (कंटेनर निर्माण) में सोचना शुरू किया है. उन्होंने ये भी कहा, ‘लेकिन अगर हम फौरन इस पर काम नहीं करते, तो ये ऐसे ही ख़त्म हो जाएगा जैसे पहले हुआ है. कंटेनर निर्माण को बढ़ाना अच्छी बात है, लेकिन भारत को अपने ख़ुद के कंटेनर बेड़े को समर्थन और बढ़ावा देने के बारे में भी सोचना चाहिए’.

गर्ग ने आगे कहा कि 2020 से पहले शिपिंग लाइन्स वित्तीय दबाव में थीं और उनके सामने मांग सुस्त थी, और इसके नतीजे में कंटेनर इनवेंटरी में निवेश सीमित होता था. ‘शिपिंग लाइन्स की ओर से मांग कम होने के कारण, चीन की दो-तीन कंपनियां अपनी 50-60 प्रतिशत क्षमता पर काम कर रहीं थीं. इसलिए सीमित इनवेंटरी 2020 के दूसरे हिस्से में अचानक बढ़ी मांग, और उसके साथ सप्लाई चेन की बाधाओं को संभालने के लिए पर्याप्त नहीं थी. इसके नतीजे में प्रमुख बाज़ारों में कंटेनर्स की कमी पैदा हो गई, जिसका पूरी कंटेनर सप्लाई चेन पर असर पड़ा’.

लेकिन पिछले दो सालों में शिपिंग लाइन्स और लीज़िंग कंपनियों ने अपनी इनवेंटरी बनाने के लिए ज़्यादा ऑर्डर्स दिए हैं, और ज़्यादा कंटेनर्स का निर्माण हुआ है. उन्होंने कहा, ‘इसके अलावा, सप्लाई चेन बाधाओं को दूर करने से भी सहायता मिली है. कुल मिलाकर अब स्थिति में सुधार नज़र आया है’.

चीनी कंटेनर निर्माण कंपनियां भी अपनी पूरी क्षमता पर काम कर रही हैं, और विश्व व्यापार में अपेक्षित मंदी को देखते हुए, शिपिंग लाइन्स भी नए ऑर्डर्स को सीमित कर सकती हैं, ऐसे में ड्रीवरी डायरेक्टर ने समझाया, ‘तो सवाल ये उठता है कि अगर भारत इन कंटेनर्स का निर्माण करेगा, तो उन्हें कौन ख़रीदेगा? इसलिए अगर हम कंटेनर निर्माण को वाक़ई बढ़ावा देना चाहते हैं, और विश्व स्तर पर मुक़ाबला करना चाहते हैं, तो हमें एक समग्र दृष्टिकोण अपनाने की ज़रूरत है’.

पहले हवाला दिए गए कुमार ने कहा कि अगर भारत को चीन से मुक़ाबला करना है, तो सरकार को पीएलआई देने होंगे जैसा चीन दे रहा है. ‘हमारी क़ीमतें चीन के मुक़ाबले ज़्यादा हैं. चीनी सरकार कंटेनर निर्माताओं को 15 प्रतिशत पीएलआई दे रही है. निजी क्षेत्र को आकर्षित करने के लिए भारत को सही परिस्थितियां पैदा करना होंगी. जब तक हमारी दरें प्रतिस्पर्धात्मक नहीं होतीं, तब तक कोई कंटेनर्स ख़रीदने के लिए हमारे पास क्यों आएगा?’

उन्होंने आगे कहा, ‘कंटेनर निर्माण 9-10 बिलियन डॉलर का उद्योग है. भारत को शुरू में इसके कम से कम 9 से 10 प्रतिशत का लक्ष्य बनाना चाहिए’.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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