नई दिल्ली: क्या अपनी मर्जी से देह व्यापार के पेशे में आना ‘गैर कानूनी नहीं’ है? क्या वेश्यालयों पर पुलिस की छापेमारी में सेक्स वर्कर्स को गिरफ्तार किया जाना चाहिए और उन्हें सजा दी जानी चाहिए? पुलिस को सेक्स वर्कर की यौन उत्पीड़न या किसी अन्य आपराधिक शिकायत से कैसे निपटना चाहिए? क्या एक यौन कर्मियों के बच्चे को सिर्फ उनके पेशे की वजह से उनसे अलग कर देना चाहिए? क्या सेक्स वर्कर्स के लिए नीतियां तैयार करते समय उन्हें इस प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए?
देश में यौनकर्मियों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए पहली बार शुरू किए गए प्रयासों के एक दशक से भी ज्यादा समय बाद, ये कुछ सवाल थे जो सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते अपने आदेश में केंद्र सरकार से पूछे थे.
19 मई के एक आदेश में, जस्टिस एल नागेश्वर राव, बी.आर. गवई और ए.एस. बोपन्ना ने सेक्स वर्कर्स के पुनर्वास पर 10 सिफारिशों पर विचार किया. इन सिफारिशों को जुलाई 2011 में नियुक्त पांच सदस्यीय पैनल ने तैयार किया था. वरिष्ठ अधिवक्ता प्रदीप घोष की अध्यक्षता में पैनल को तीन मुद्दों पर अदालत को सलाह देने के लिए कहा गया था: तस्करी की रोकथाम, जो सेक्स वर्कर्स देह व्यापार छोड़ना चाहते हैं उनका पुनर्वास और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) के प्रावधानों के अनुसार सेक्स वर्कर्स को सम्मान के साथ जीने के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाना. पैनल ने 14 सितंबर 2016 को अपनी अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की थी.
19 मई को अपने आदेश में अदालत के ये सवाल अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल (एएसजी) जयंत सूद द्वारा पीठ को यह बताए जाने के बाद आए कि सरकार को 10 सिफारिशों में से चार के बारे में ‘कुछ आपत्तियां’ हैं.
एएसजी ने अदालत को बताया कि केंद्र की आपत्ति उन सुझावों पर थी जिनमें कहा गया था कि अपनी मर्जी से किया गया यौन कार्य गैर-कानूनी नहीं है, वेश्यालय पर छापा मारने पर इन सेक्स वर्कर्स को गिरफ्तार नहीं किया जाना चाहिए. उनकी आपराधिक शिकायतों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए, उन्हें अपने बच्चों से जबरन अलग नहीं किया जाना चाहिए और यौनकर्मियों को उनसे जुड़ी पॉलिसी मेकिंग प्रोसेस में शामिल किया जाना चाहिए.
केंद्र द्वारा आपत्ति जताए जाने के बाद अदालत ने कहा कि वह संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करके राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को शेष सिफारिशों के साथ ‘सख्त अनुपालन में कार्य करने’ का आदेश दे रही है. अदालत ने आदेश में कहा, ‘जब तक कानून नहीं बन जाता’ तब तक ‘यह फैसला लागू रहेगा.’
पीठ ने कहा कि केंद्र के पास जवाब दाखिल करने के लिए छह सप्ताह का समय है. कोर्ट मामले की अगली सुनवाई 27 जुलाई को करेगा.
सुप्रीम कोर्ट 1999 के एक मामले में हत्या की एक याचिका पर सुनवाई कर रहा था. याचिकाकर्ता बुद्धदेव कर्मस्कर पर एक सेक्सवर्कर द्वारा यौन संबंध बनाने से इनकार कर दिए जाने पर उसकी हत्या करने का आरोप लगाया गया था. उसे आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी.
2011 में ‘देवदास’ और ‘प्यासा’ जैसी फिल्मों से लेकर फेडर दोस्तोयेव्स्की के प्रसिद्ध उपन्यास ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ में सेक्स वर्कर्स की दर्शाई गई छवियों को ध्यान में रखते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने कर्मस्कर की सजा को बरकरार रखा.
हालांकि कोर्ट ने कर्मस्कर की अपील को खारिज कर दिया था लेकिन मामले की सुनवाई को यौनकर्मियों के जीवन को बेहतर बनाने में मदद करने के लिए जारी रखा. और केंद्र व राज्य सरकारों को देश भर में यौनकर्मियों के पुनर्वास के लिए योजनाएं बनाने का निर्देश दिया.
पिछले एक दशक में मामला कम से कम 55 बार अदालत के सामने आया और विभिन्न पीठों ने उनके पुनर्वास के लिए किए जा रहे प्रयासों की निगरानी की.
आपत्तियां
सबसे पहले केंद्र सरकार ने इस सिफारिश पर आपत्ति जताई कि पुलिस को उस सेक्स वर्कर के खिलाफ कोई आपराधिक कार्रवाई नहीं करनी चाहिए जो ‘वयस्क है और अपनी सहमति से पेशे से आई है.’
इस सिफारिश में कहा गया है, ‘जब कोई सेक्स वर्कर आपराधिक/यौन/किसी अन्य प्रकार के अपराध की शिकायत करती है, तो पुलिस को इसे गंभीरता से लेना चाहिए और बिना किसी भेदभाव से कानून के अनुसार कार्रवाई करनी चाहिए.’
केंद्र को सेक्स वर्कर्स के लिए नीतियां तैयार करते समय यौनकर्मियों या उनके प्रतिनिधियों को शामिल की सिफारिश भी की गई थी.
इस सिफारिश में कहा गया था कि ‘केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को यौनकर्मियों और/ या उनके प्रतिनिधियों को सभी निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में शामिल करना चाहिए, जिसमें सेक्स वर्कर्स के लिए किसी भी नीति या कार्यक्रम की योजना बनाना, उसे तैयार करना और लागू करना या सेक्स वर्क से संबंधित कानूनों में कोई बदलाव या सुधार करना शामिल है. यह या तो उन्हें निर्णय लेने वाले अधिकारियों / पैनल में शामिल करके या उन्हें प्रभावित करने वाले किसी भी निर्णय पर उनके विचार लेकर किया जा सकता है.’
अदालत की जिस तीसरी सिफारिश से सरकार को समस्या थी, वह थी ‘ अपनी मर्जी से देह व्यापार के पेशे को अपनाना गैर-कानूनी नहीं है. लेकिन वेश्यालय चलाना गैरकानूनी है’, वेश्यालय पर पुलिस छापे के दौरान यौनकर्मियों को गिरफ्तार, दंडित, परेशान या पीड़ित नहीं किया जाना चाहिए.
केंद्र को इस सिफारिश पर भी आपत्ति थी कि सेक्स वर्कर्स के बच्चों को इस आधार पर कि वह देह व्यापार में लगी हुई हैं जबरन उनसे अलग नहीं किया जाना चाहिए.
सिफारिश में कहा गया है, ‘अगर कोई नाबालिग वेश्यालय में या सेक्स वर्कर्स के साथ रहता है, तो यह नहीं माना जाना चाहिए कि उसकी तस्करी की गई है’. अगर सेक्स वर्कर ये दावा करती है कि उसके साथ रहने वाला उसका बेटा या बेटी है तो उसके दावे की जांच की जा सकती हैं. अगर साथ रहने वाला नाबालिग उसका बेटा या बेटी है तो उसे जबरन अलग नहीं किया जाना चाहिए.
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कानून क्या कहता है
अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, 1956 भारत में सेक्स वर्क से संबंधित है. हालांकि अपनी मर्जी से किया गया यौन कार्य कानून के अंतर्गत अवैध नहीं है लेकिन वेश्यावृत्ति से संबंधित कुछ गतिविधियां मसलन वेश्यालय का मालिक होना और वेश्यावृत्ति में शामिल होना गैर-कानूनी है.
इसलिए ये कानून उन लोगों को सजा देता है जो वेश्यावृत्ति कराने में लिप्त होते हैं. कानून वेश्यावृत्ति को ‘यौन शोषण या व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए या पैसे या किसी अन्य प्रकार के विचार के लिए व्यक्तियों के दुरुपयोग’ के रूप में परिभाषित करता है.
इस स्थिति को पहले भी अदालत अपनी सहमति दे चुकी है. 2020 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने भी कहा था कि कोई भी कानून स्वैच्छिक यौन कार्य को आपराधिक अपराध नहीं बनाता है या यौनकर्मी को इसमें लिप्त होने के लिए दंडित नहीं करता है.
‘मानवीय शालीनता और गरिमा’
अदालत ने जिन सिफारिशों का समर्थन किया है उनमें पुलिस और अन्य कानून प्रवर्तन एजेंसियों को यौनकर्मियों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील बनाने का निर्देश भी शामिल है.
अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों को नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी, स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी और डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विस अथॉरिटी की मदद लेने का भी आदेश दिया है ताकि यौनकर्मियों को उनके अधिकारों, यौन कार्य की वैधता और पुलिस के अधिकार क्षेत्र में क्या है और क्या नहीं है इसके बारे में शिक्षित करने के लिए कार्यशालाएं आयोजित की जा सकें.
एक अन्य निर्देश में कहा गया है कि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया से उचित दिशानिर्देश जारी करने का आग्रह किया जाना चाहिए. ताकि मीडिया गिरफ्तारी, छापेमारी और रेस्क्यू ऑपरेशन के दौरान सेक्स वर्कर की पहचान उजागर न करे, चाहे वह सर्वाइवर हो या आरोपी. ऐसी कोई भी तस्वीर को प्रकाशित या प्रसारित नहीं किया जाना चाहिए जिससे उसकी पहचान का खुलासा हो.’
आदेश में कहा गया, ‘मानवीय शालीनता और गरिमा की बुनियादी सुरक्षा यौनकर्मियों और उनके बच्चों तक भी पहुंचनी चाहिए, जो अपने काम से जुड़े सामाजिक कलंक का खामियाजा भुगतते हैं और हाशिये पर चले जाते हैं, गरिमा के साथ जीने के अपने अधिकार के अवसरों से वंचित हो जाते हैं. उनके बच्चे भी इसी तरह का जीवन जीने के लिए अभिशप्त हो जाते है.’
अदालत ने आदेश दिया कि इस देश में सभी व्यक्तियों को दी जाने वाली संवैधानिक सुरक्षा को उन अधिकारियों द्वारा ध्यान में रखा जाना चाहिए जो अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम, 1956 के तहत काम करते हैं.
आधार की समस्या का समाधान
पिछली सुनवाई में अदालत को बताया गया था कि सेक्स वर्कर्स के आधार कार्ड जारी नहीं किए गए क्योंकि वे अपने निवास पते का सबूत पेश नहीं कर सकते थे. अदालत ने तब यूआईडीएआई से इस संबंध में सुझाव मांगा था.
उनके सुझावों के आधार पर अदालत ने 19 मई को अपने आदेश में कहा कि यौनकर्मी जो निवास का प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर सकते, लेकिन राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन (NACO) के साथ पंजीकृत हैं, उन्हें ‘प्रोफार्मा प्रमाणपत्र’ के आधार पर आधार कार्ड जारी किए जा सकते हैं. इस प्रोफार्मा प्रमाणपत्र को एक राजपत्रित अधिकारी या राज्य एड्स नियंत्रण सोसायटी के परियोजना निदेशक द्वारा जारी किया जाएगा.
अदालत ने कहा, ‘इस प्रक्रिया में गोपनीयता का उल्लंघन नहीं होगा, जिसमें आधार नामांकन संख्या में किसी भी कोड को असाइन करना शामिल है जो कार्डधारक को सेक्स वर्कर के रूप में पहचानता है.’
कोई कानूनी पहचान या प्रमाण नहीं
सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त पैनल में वरिष्ठ अधिवक्ता जयंत भूषण, दरबार महिला समन्वय समिति (डीएमएससी), बहुउद्देशीय सहकारी समिति (उषा) और रोशनी (अल्पसंख्य लड़कियों के लिए अकादमी) की संस्थापक और सीईओ साइमा हसन शामिल हैं.
पैनल ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले सभी हितधारकों के साथ विस्तार से चर्चा की और पाया कि कानूनी पहचान न होने की वजह से सेक्स वर्कर्स के लिए राशन कार्ड या मतदाता पहचान पत्र जैसे पहचान प्रमाण प्राप्त करना मुश्किल काम बन गया है.
रिपोर्ट ने निष्कर्ष निकाला था कि यौनकर्मियों के पास न तो उनके पुनर्वास के लिए बनाई गई योजनाओं और न ही राज्यों द्वारा दी जाने वाली क्रेडिट सुविधाओं तक पहुंच थी, क्योंकि वे जरूरी दस्तावेज के अभाव में बैंक खाते खोलने में असमर्थ थीं.
19 मई के आदेश के अनुसार, केंद्र सरकार ने 2016 में अदालत को सूचित किया था कि उसने पैनल की सिफारिशों को शामिल करते हुए एक मसौदा कानून तैयार किया है.
फरवरी 2020 में, अदालत को फिर से सूचित किया गया कि पैनल की सिफारिशों के आधार पर दो मसौदा कानूनों की जांच के लिए मंत्रियों के एक समूह का गठन किया गया है. इस बीच सितंबर 2020 में अदालत ने सेक्स वर्कर्स पर कोविड -19 और लॉकडाउन की वजह से उन पर पड़ने वाले प्रभावों को ध्यान में रखते हुए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया कि वे नाको द्वारा पहचाने गए यौनकर्मियों को बिना आईडी प्रूफ के सूखा राशन उपलब्ध कराएं.
अदालत के 19 मई के आदेश में यह उल्लेख किया गया है कि केंद्र तब से इस आधार पर समय की मांग करता रहा कि इस संबंध में कानून बनाने पर विचार-विमर्श चल रहा है.
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