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Friday, 15 November, 2024
होमदेश1973 में संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का आधार बने धर्माचार्य केशवानंद भारती नहीं रहे

1973 में संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का आधार बने धर्माचार्य केशवानंद भारती नहीं रहे

1973 में केशवानंद भारती की तरफ से एक याचिका दायर किए जाने के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि संसद संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ को नहीं बदल सकती है.

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नई दिल्ली: केरल के कासरगोड जिले में स्थित एडनीर मठ के प्रमुख केशवानंद भारती का रविवार सुबह 80 वर्ष की आयु में निधन हो गया. केरल भूमि सुधार (संशोधन) अधिनियम 1969 को चुनौती देने वाली इनकी याचिका पर ही 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के ‘बुनियादी ढांचे’ संबंधी ऐतिहासिक फैसला सुनाया था.

भूमिहीन किसानों को जमीन बांटने के उद्देश्य से केरल सरकार द्वारा पारित भूमि सुधार कानून के खिलाफ भारती ने 21 मार्च 1970 को शीर्ष अदालत का रुख किया था.

भारती का तर्क था कि भूमि सुधार कानून मठ की संपत्ति के प्रबंधन पर पाबंदियां लगाने का सरकार का एक प्रयास है, जो कि उनके आश्रम के लिए आय का एकमात्र स्रोत था.

उनकी याचिका ने संसद को मौलिक अधिकारों को बदलने का अधिकार शक्ति देने के लिए इंदिरा गांधी सरकार द्वारा पारित तीन संवैधानिक संशोधनों- 24, 25 और 29 — को भी चुनौती दी थी.

भारती ने तर्क दिया कि तीन संशोधनों ने अनुच्छेद 25 (धार्मिक अनुष्ठान और प्रचार का अधिकार), अनुच्छेद 26 (धार्मिक कार्यों से जुड़े संपत्ति प्रबंधन और प्रशासन आदि का अधिकार) और अनुच्छेद 31 (संपत्ति का अधिकार) के तहत उनके मौलिक अधिकारों का हनन किया है.

हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने मठ प्रमुख को तो कोई व्यक्तिगत राहत नहीं मिली लेकिन अदालत ने यह व्यवस्था जरूर दे दी कि संविधान की ‘मूल संरचना’ बदलाव से परे है और इसे संसद द्वारा संशोधित नहीं किया जा सकता है.

‘बुनियादी संरचना’ सिद्धांत भारतीय न्यायपालिका को संसद में पारित उन संविधान संशोधनों की समीक्षा या उन्हें रद्द करने की शक्ति देने का आधार बना, जिन्हें लेकर विवाद हो या इस सिद्धांत के विपरीत हों.

24 अप्रैल 1973 को आए फैसले में उस समय सुप्रीम कोर्ट के सभी 13 जज शामिल थे-शीर्ष अदालत में बैठने वाली यह सबसे बड़ी बेंच थी. फैसला छह के मुकाबले सात मतों से आया था.

मामले में 31 अक्टूबर 1972 से 23 मार्च 1973 तक यानी 69 दिनों तक सुनवाई चली, जिसमें जाने-माने

संविधान विशेषज्ञ नानी पालखीवाला ने भारती की ओर से बहस की.


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गोलक नाथ मामले में क्या था फैसला

भारती मामले में जिन तीन संवैधानिक संशोधनों को चुनौती दी गई थी उन्हें इंदिरा गांधी सरकार ने गोलक नाथ मामले में शीर्ष अदालत के 1967 के फैसले को दरकिनार करने के लिए पारित कराया था, जिसमें व्यवस्था दी गई थी कि संसद मौलिक अधिकारों में संशोधन नहीं कर सकती है जिसमें संपत्ति का अधिकार भी शामिल है.

गोलक नाथ फैसले ने संविधान के अनुच्छेद 13 और 368 की व्याख्या की थी. जहां अनुच्छेद 13 संसद को ऐसे ‘कानून’ बनाने से रोकता है जो संविधान के पार्ट-3 के तहत मौलिक अधिकारों की गारंटी देते हैं, वहीं अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में संशोधन का अधिकार देता है.

इस मामले में व्यवस्था दी गई कि अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन को अनुच्छेद 13 के दायरे में आने वाले ‘कानून’ के तौर पर परिभाषित किया जा सकता है.

संसद ने तब 24वां, 25वां और 29वां संशोधन पारित किया था जिसमें मौलिक अधिकारों में संशोधन किया गया और संपत्ति के कुछ मुद्दों को न्यायिक समीक्षा से परे रखा गया.

1971 में पारित किए गए 24वें संशोधन ने विशेष रूप से संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन का अधिकार दे दिया था. इसका मतलब था कि गोलक नाथ मामले में अनुच्छेद 13 के तहत लगाई गई रोक अनुच्छेद 368 के तहत किसी भी संवैधानिक संशोधन पर लागू नहीं होगी.

इसलिए, संसद को मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति मिल गई थी.

भारती मामले में फैसला क्या कहता है

भारती मामले में अपने फैसले में शीर्ष अदालत ने कहा कि संशोधनों से संविधान की ‘बुनियादी संरचना’ में कोई बदलाव नहीं होना चाहिए.

हालांकि, यह स्पष्ट तौर पर निर्देशित नहीं किया गया कि ‘बुनियादी संरचना’ का स्वरूप किया होगा, इससे अदालत को अलग-अलग मामलों के आधार पर व्याख्या करने की छूट मिल गई.


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तब से शीर्ष अदालत विभिन्न फैसलों के माध्यम से संविधान की सर्वोच्चता, कानून का शासन, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, पृथक शक्तियों का सिद्धांत, संघवाद, धर्मनिरपेक्षता, संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य, सरकार की संसदीय प्रणाली, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव और कल्याणकारी राज्य संबंधी सिद्धांत आदि की व्याख्या करती रही है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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