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Friday, 15 November, 2024
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वैज्ञानिकों ने देसी कॉटन की खेती के लिए हरियाणा की आलोचना की- BJP किसी भी देसी चीज़ के प्रति ऑबसेस्ड है

राज्यपाल को लिखे पत्र में आईसीएआर के एक रिटायर वैज्ञानिक ने देसी कॉटन की खेती को 'अव्यवहारिक' बताया, है और कहा 'इससे किसानों को मदद नहीं मिलेगी' हरियाणा कृषि विभाग ने किया कदम का बचाव, कहा 'फसल को कम पानी की जरूरत.'

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गुरुग्राम: पिछले साल देसी कॉटन के उत्पादन को प्रोत्साहित करने की हरियाणा सरकार की घोषणा की कृषि वैज्ञानिकों ने तीखी आलोचना की है और भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के एक रिटायर प्रिंसिपल साइंटिस्ट ने बुधवार को राज्यपाल को पत्र लिखकर इस कदम को “अवास्तविक” और ” किसानों के हित में नहीं” बताया है.”

हरियाणा के राज्यपाल को ईमेल किए गए अपने पत्र में, मुख्य सचिव और राज्य कृषि विभाग को भेजी गई प्रतियों के साथ, आईसीएआर के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. वीरेंद्र लाठर ने कहा कि एक विज्ञापन, जिसमें कहा गया है, “देसी कपास उगाएं, प्रोत्साहन पाएं”, मंगलवार को सभी प्रमुख दैनिक समाचार पत्रों में प्रकाशित यह किसानों और कपड़ा उद्योग दोनों को ध्यान में रखते हुए एक “अवास्तविक” निर्णय था. दिप्रिंट के पास यह पत्र है.

डॉ. लाठर ने लिखा, “विज्ञापन का समय गलत है क्योंकि राज्य में देसी कपास की बुआई अप्रैल महीने में होती है. बीज के अंकुरण के लिए फसल को 40 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान की आवश्यकता होती है. इसलिए, अगस्त महीने में इस प्रोत्साहन की घोषणा करना एक अव्यवहार्य कदम है जिससे किसानों के हित में मदद नहीं मिलेगी,”

उन्होंने बताया कि कपड़ा उद्योग को नरम फाइबर और अच्छी स्टेपल लंबाई के साथ अमेरिकी कपास की आवश्यकता होती है, और देसी कॉटन, अपने मोटे फाइबर और कम स्टेपल लंबाई के साथ, अपने उद्देश्य को पूरा नहीं करता है. उन्होंने अपने पत्र में कहा, इसलिए, मार्केटिंग के एंगल से भी यह निर्णय अवास्तविक है.

दिप्रिंट से बात करते हुए, डॉ. लाठर ने कहा कि यह कदम सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के “देसी या जैविक किसी भी चीज़ के प्रति जुनून” से उभरा है, इसकी व्यावहारिकता पर विचार किए बिना.

लाठर ने कहा, “सरकार ने पिछले एक दशक में कृषि में किसी भी देसी या जैविक या अवैज्ञानिक प्रौद्योगिकियों के प्रति जुनून दिखाया है. इनमें से कुछ में शून्य बजट प्राकृतिक खेती, देसी कपास, नैनो यूरिया आदि शामिल हैं, जो समग्र रूप से कम कृषि उत्पादन के साथ निकट भविष्य में भारत की खाद्य सुरक्षा को खतरे में डाल सकते हैं. ”

हालांकि, हरियाणा के कृषि विभाग में संयुक्त निदेशक (कपास) राम प्रताप सिहाग ने कहा कि हालांकि मंगलवार को प्रकाशित विज्ञापन में देसी कपास उगाने के लिए प्रोत्साहन का उल्लेख है, लेकिन यह कपास की फसलों के लिए राज्य सरकार की एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) और एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन (आईएनएम) योजनाएं कीटनाशकों और पोषक तत्वों की खरीद के लिए दिए जा रहे प्रोत्साहन के बारे में अधिक था.

उन्होंने कहा, राज्य सरकार देसी कपास उगाने के लिए किसानों को प्रोत्साहन के रूप में 3,000 रुपये प्रति एकड़ प्रदान कर रही है और कपास उगाने वाले सभी किसानों को आईपीएम और आईएनएम योजनाओं के तहत 4,000 रुपये प्रति एकड़ भी दे रही है, चाहे वे किसी भी किस्म की कपास उगाते हों.

सिहाग ने दिप्रिंट को बताया, “हमें हरियाणा सरकार के ‘मेरी फसल मेरा ब्योरा’ पोर्टल पर किसानों द्वारा अपलोड किया गया डेटा पहले ही मिल चुका है. अब तक, लगभग 68,000 एकड़ भूमि के किसानों ने अपने खेतों में देसी कपास का डेटा अपलोड किया है, जबकि पिछले साल यह आंकड़ा 17,000 एकड़ था.”

उन्होंने कहा कि सरकार को उम्मीद है कि इस महीने के अंत तक यह आंकड़ा 85,000 एकड़ तक पहुंच जाएगा.

राज्य के कृषि विभाग की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस साल राज्य में 6.65 लाख हेक्टेयर (16.63 लाख एकड़) भूमि पर कपास की फसल उगाई गई है. अगर सरकार की उम्मीदें पूरी हुईं तो देसी कपास का रकबा बढ़कर कुल रकबे का 5 फीसदी हो जाएगा. बाकी हिस्सा अमेरिकी कपास के अंतर्गत आता है, जो बड़े पैमाने पर आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) है.

पिछले साल हरियाणा में 6.45 लाख हेक्टेयर (16.12 लाख एकड़) भूमि पर कपास उगाई गई थी. 17,000 एकड़ में देसी कपास है, जो कुल का लगभग 1 प्रतिशत है.

यह पूछे जाने पर कि राज्य सरकार देसी कपास को बढ़ावा क्यों दे रही है जबकि इस किस्म के खरीददार कम हैं, सिहाग ने कहा कि देसी किस्म को सिंचाई के लिए कम पानी की आवश्यकता होती है और इसलिए इसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों में उगाया जा सकता है. उन्होंने कहा कि हरियाणा सरकार ने भारतीय कपास निगम (सीसीआई) के अधिकारियों से भी बात की थी, जिन्होंने कहा था कि अगर खुले बाजार में कीमतें गिरती हैं तो वे एमएसपी पर देसी कपास खरीद सकते हैं.

हरियाणा के सिरसा के शुष्क क्षेत्र में पड़ने वाले खारियां गांव के किसान सज्जन नैन अपनी जमीन पर देसी कपास उगाते थे, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में उन्होंने बागवानी की ओर रुख किया. अब उनकी कृषि भूमि पर किन्नू और अमरूद के बगीचे हैं.

नैन ने कहा, ”मुझे देसी कपास फायदेमंद फसल नहीं लगी.” उन्होंने कहा, “यहां तक कि इसकी मार्केटिंग भी समस्याओं से भरी थी. जैसे-जैसे देसी कपास उगाने वाले किसान कम होते गए, देसी कपास उगाने वालों की संख्या भी गिरती गई. मैंने 2006 में अपनी कुछ एकड़ ज़मीन पर किन्नू और अमरूद उगाकर बागवानी में विविधता लाना शुरू किया. अब, पिछले तीन वर्षों से, मेरी सारी ज़मीन पर मैं बागवानी कर रहा हूं.”


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‘देसी कॉटन की कटाई मुश्किल’

सिरसा के बेगू गांव के किसान रत्ती राम अपनी पांच एकड़ जमीन में से एक एकड़ में देसी कपास उगाते हैं. उनके अनुसार, वह बिक्री के लिए “हाइब्रिड बीज” तैयार करने के लिए इस किस्म को उगाते हैं.

उनके अनुसार, बुधवार को जहां अमेरिकी कपास की कीमत 6,500 रुपये प्रति क्विंटल थी, वहीं देसी कपास की कीमत 800 रुपये से 1,000 रुपये प्रति क्विंटल अधिक थी.

राम ने बताया, “हालांकि बाजार में देसी कॉटन की दर अमेरिकी कपास से अधिक है, लेकिन इसकी कटाई करना मुश्किल है क्योंकि मजदूर, जो कपास चुनते हैं और काटी गई फसल के वजन के आधार पर भुगतान प्राप्त करते हैं, कम वजन के कारण देसी कपास लेने से इनकार कर देते हैं.” राम ने आगे कहा कि जब भी वह फसल काटता है तो उसे अपने परिवार के सदस्यों को काम पर लगाना पड़ता है.

सिरसा स्थित आईसीएआर के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ कॉटन रिसर्च (सीआईसीआर) के पूर्व प्रमुख डॉ. दिलीप मोंगा ने बताया कि देसी कपास के एक बीज का औसत वजन 2 से 2.5 ग्राम होता है, जबकि अमेरिकी कपास का वजन 4 से 5 ग्राम होता है.

मोंगा ने कहा, “जितना समय एक श्रमिक को अमेरिकी किस्म से 70 से 80 किलोग्राम कपास चुनने में लगता है, देसी कपास चुनने वाले व्यक्ति को केवल 30 से 35 किलोग्राम कपास मिलता है.”

हालांकि, उन्होंने कहा कि देसी कपास का लाभ यह है कि इसे कम पानी की आवश्यकता होती है, यह सफेद मक्खी जैसे चूसने वाले कीटों से प्रतिरक्षित है, लीफ कर्ल वायरस से ग्रस्त नहीं है और, वर्तमान में, बाजार में इसकी कीमत भी अमेरिकी की तुलना में बेहतर है.

उन्होंने कहा, “कल, अगर अधिक किसान देसी किस्में उगाना शुरू कर देंगे, तो कीमतें गिर सकती हैं क्योंकि इस किस्म की मांग सीमित है.”

कपास की देसी किस्मों की कटाई करते समय आमतौर पर बॉल्स का टूटना (गिरना) एक और समस्या है.

मोंगा ने कहा, “अगर कोई किसान समय पर कपास नहीं तोड़ पाता है, तो टिंडे टूट जाते हैं, जिससे उपज में गिरावट आती है, हालांकि अब कुछ टूटन सहन करने वाली किस्में भी आ गई हैं.”

हरियाणा कॉटन जिनर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष सुशील मित्तल ने द प्रिंट को बताया कि हालांकि देसी कपास का उपयोग सर्जिकल उद्देश्यों के लिए किया जाता है, लेकिन कपड़ा उद्योग में इस वस्तु की कोई मांग नहीं है, जहां देश में उत्पादित अधिकांश कपास का उपयोग किया जाता है.

मित्तल ने कहा, “इसके बेहतर उत्पादन (अमेरिकी कपास के मामले में 35 किलोग्राम के मुकाबले 38 से 40 किलोग्राम प्रति क्विंटल बीज कपास) के कारण, जिनर्स ने पहले गांठों को पैक करने से पहले अमेरिकी कपास के साथ मिश्रण के लिए देसी कपास का उपयोग किया थाय हालांकि, देसी कपास की कीमत अब अमेरिकी कपास से अधिक है, और इसलिए मिक्सिंग एक व्यवहार्य विकल्प नहीं है.”

(अनुवाद: पूजा मेहरोत्रा)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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