नई दिल्ली: केरल के यूट्यूबर सूरज पलाकरण के उस कदम पर कड़ी आपत्ति जताते हुए, जिसमें उन्होंने यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (POCSO) अधिनियम के तहत दर्ज एक मामले में शामिल बच्चे की पहचान उजागर कर दी थी, सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को उन्हें इसके लिए बिना शर्त माफ़ी मांगने को कहा है.
जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की बेंच यूट्यूबर की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उन्होंने अपने खिलाफ चल रही आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की मांग की थी. बेंच ने पलाकरण से माफ़ी मांगने पर विचार करने को कहा और यह भी निर्देश दिया कि वह कुछ रकम जमा करें, क्योंकि उन्होंने उस वीडियो से पैसे कमाए थे जिसमें बच्चे की पहचान उजागर की गई थी.
इसके बाद अदालत ने मामले की अगली सुनवाई 12 दिसंबर के लिए तय की.
यह मामला पलाकरण के यूट्यूब चैनल ट्रू टीवी से जुड़ा है, जिसने एक ऐसे व्यक्ति पर “इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्ट” अपलोड की थी, जिस पर आरोप था कि उसने अपनी पत्नी को POCSO अधिनियम के तहत फंसाने की कोशिश की और अपने बेटे से उसके खिलाफ झूठे आरोप लगवाए.
अपने चैनल पर महिला की कहानी दिखाने की कोशिश में, पलाकरण खुद कानूनी मुश्किलों में फंस गए क्योंकि उन्होंने बच्चे की पहचान उजागर कर दी थी — जो POCSO अधिनियम की धारा 23 और भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 228A के तहत अपराध है.
इसके बाद पलाकरण ने केरल हाई कोर्ट में याचिका दायर की, जिसमें उन्होंने इन धाराओं के तहत दर्ज आपराधिक मामला रद्द करने की मांग की थी. कोर्ट ने उन्हें आंशिक राहत दी — उसने IPC की धारा हटाने का आदेश दिया, लेकिन POCSO अधिनियम के तहत लगे आरोप को बरकरार रखा.
कानून के तहत किसकी पहचान सुरक्षित है?
कानून यौन अपराधों के पीड़ितों और उन बच्चों को, जो कानून से टकराव में हैं, कुछ हद तक सुरक्षा प्रदान करता है.
POCSO अधिनियम की धारा 23 में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति किसी बच्चे से संबंधित रिपोर्ट या टिप्पणी किसी भी प्रकार के मीडिया, स्टूडियो या फोटोग्राफिक माध्यम से तब तक नहीं कर सकता जब तक उसके पास “पूरी और प्रमाणिक जानकारी” न हो. ऐसी जानकारी देना, जिससे बच्चे की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचे या उसकी निजता का उल्लंघन हो, अपराध माना जाएगा.
यह कानून न केवल POCSO अधिनियम के तहत किसी बच्चे का नाम उजागर करने से रोकता है, बल्कि ऐसे अन्य विवरणों के खुलासे से भी मना करता है जिनसे बच्चे की पहचान सामने आ सकती है.
धारा 23 के अनुसार, “किसी भी मीडिया में प्रकाशित रिपोर्ट में बच्चे की पहचान उजागर नहीं की जा सकती. इसमें बच्चे का नाम, पता, फोटो, पारिवारिक विवरण, स्कूल, पड़ोस या अन्य कोई भी जानकारी शामिल है जिससे उसकी पहचान हो सके.”
हालांकि, इस कानून में कुछ अपवाद हैं. अगर विशेष अदालत लिखित में यह कारण बताए कि पहचान उजागर करना बच्चे के हित में है, तो इसे अनुमति दी जा सकती है.
इसके अलावा, अगर किसी संस्था द्वारा POCSO अधिनियम के तहत किसी बच्चे से जुड़ी जानकारी उजागर की जाती है, तो मीडिया हाउस या स्टूडियो के मालिक और प्रकाशक अपने कर्मचारियों के कार्यों या चूक के लिए संयुक्त रूप से जिम्मेदार होंगे.
इस प्रावधान का उल्लंघन करने पर छह महीने से एक साल तक की कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं.
इसके अतिरिक्त, किशोर न्याय अधिनियम की धारा 74 भी बच्चे की पहचान उजागर करने पर रोक लगाती है. इसमें कहा गया है कि कोई भी अखबार, पत्रिका, न्यूज़ शीट, ऑडियो-विज़ुअल मीडिया या अन्य संचार माध्यम किसी जांच, पूछताछ या न्यायिक प्रक्रिया की रिपोर्टिंग नहीं कर सकता जिससे कानून से टकराव में आए किसी बच्चे या देखभाल और सुरक्षा की आवश्यकता वाले बच्चे की पहचान उजागर हो। यह कानून ऐसे मामलों में बच्चों की तस्वीरें प्रकाशित करने पर भी रोक लगाता है. इस अपराध के लिए छह महीने तक की कैद, दो लाख रुपये का जुर्माना या दोनों सजा हो सकती है.
इसके अलावा, भारतीय दंड संहिता (IPC) और अब भारतीय न्याय संहिता (Bharatiya Nyaya Sanhita) की धारा 228A और 72(1) के तहत बलात्कार या यौन अपराध की शिकार पीड़िता की पहचान उजागर करने पर भी दंड का प्रावधान है. इसके लिए दो साल तक की कैद और जुर्माना हो सकता है.
अदालती फैसले
साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस मदन बी लोकुर और दीपक गुप्ता की पीठ ने बलात्कार और यौन अपराधों के पीड़ितों की सुरक्षा के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे. अदालत ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति ऐसे पीड़ितों का नाम किसी भी रूप में प्रकाशित या छाप नहीं सकता जिससे उनकी पहचान उजागर हो.
पिछले साल, सुप्रीम कोर्ट ने किंनौरी घोष मामले में यह निर्णय दिया कि ऐसे यौन अपराधों की शिकार पीड़िताओं को, जिनकी मृत्यु हो चुकी है, उनकी गुमनामी और गरिमा का अधिकार मृत्यु के बाद भी बरकरार रहेगा. यह फैसला आरजी कर मेडिकल कॉलेज में हुए बलात्कार और हत्या मामले के बाद दिया गया था.
अदालत ने कहा था, “यह अदालत इस बात के लिए विवश है कि रोक लगाने का आदेश जारी करे क्योंकि सोशल और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने मृतक की पहचान और उसके शरीर की तस्वीरें प्रकाशित कर दी हैं.”
2018 के निपुण सक्सेना बनाम भारत संघ मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई भी व्यक्ति किसी यौन अपराध की पीड़िता का नाम या पहचान किसी भी तरह से प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक या सोशल मीडिया पर प्रकाशित नहीं कर सकता.
अदालत ने यह भी कहा था कि किसी भी ऐसी जानकारी का खुलासा करना जिससे पीड़िता की पहचान हो सके, पूरी तरह प्रतिबंधित है. जिन पीड़ितों की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है या जिनकी मृत्यु हो चुकी है, उनके नाम भी उजागर नहीं किए जा सकते, भले ही उनके परिजन इसकी अनुमति दें.
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि पुलिस को ऐसे सभी दस्तावेज, जिनमें पीड़िता का नाम या अन्य महत्वपूर्ण जानकारी हो, यथासंभव सीलबंद लिफाफे में रखने चाहिए. अदालत ने यह भी निर्देश दिया था कि बलात्कार और POCSO अधिनियम से जुड़े मामलों की एफआईआर सार्वजनिक रूप से साझा नहीं की जानी चाहिए.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: दिल्ली दंगों के साजिश मामले की सुनवाई क्यों फंसी है—500 तारीखें, 160 स्थगन और गिनती अभी जारी है