नई दिल्ली: जेल सुधारों पर सुप्रीम कोर्ट के नियुक्त पैनल द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में जानकारी दी गई है कि कई राज्यों ने मौत की सज़ा पाए दोषियों को एकांत कोठरियों में रखना जारी रखा है.
शीर्ष अदालत के पूर्व न्यायाधीश अमिताव रॉय की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय समिति ने इस प्रथा को कैदियों पर किया गया “सबसे आक्रामक” उल्लंघन कहा है.
30 अगस्त को सार्वजनिक की गई 171 पन्नों की रिपोर्ट के अनुसार, मौत की सज़ा पाए कैदियों को एकांत कोठरियों में कैद करना सुप्रीम कोर्ट के 1978 के फैसले का उल्लंघन था, जिसमें कहा गया था कि फांसी का सामना कर रहे कैदियों को अन्य कैदियों से तभी दूर रखा जा सकता है जब उन्हें मौत की सज़ा सुनाई जाए. ऐसा तब होता है जब दोषी अपनी दया याचिका पर फैसले सहित सभी कानूनी विकल्पों का उपयोग कर लेता है.
शीर्ष अदालत द्वारा मौत की सज़ा के खिलाफ अपील खारिज होने के बाद दया याचिका दायर की जाती है. इसे या तो राज्य के राज्यपाल या राष्ट्रपति को प्रस्तुत किया जाता है, जिनके पास मौत की सज़ा को कम करने सहित क्षमा देने की संवैधानिक शक्तियां निहित हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि एकांत कारावास गंभीर शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दर्द और पीड़ा का कारण बनता है, रिपोर्ट में मृत्युदंड के कैदियों की कोठरियों पर पालन करने के लिए राज्यों के लिए समान दिशानिर्देशों की सिफारिश की गई है.
जस्टिस रॉय के नेतृत्व वाली समिति की स्थापना 2018 में 1382 जेलों में अमानवीय स्थितियों के मामले में दिए गए फैसले के बाद की गई थी.
पैनल को देश में जेलों की स्थिति का अध्ययन करने, उनके कामकाज का विश्लेषण करने और यह पता लगाने का काम सौंपा गया था कि क्या उन्होंने मौत की सज़ा वाले कैदियों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन किया है.
समिति ने जेल प्रशासन के विभिन्न पहलुओं से संबंधित पांच रिपोर्टें प्रस्तुत की हैं, जिनमें से एक मौत की सज़ा पाए कैदियों की स्थिति से संबंधित है.
30 अगस्त को जस्टिस हिमा कोहली की अगुवाई वाली SC बेंच ने सभी रिपोर्टों पर ध्यान दिया और उन्हें सार्वजनिक करने का निर्देश दिया. इसने केंद्र से रिपोर्ट में दिए गए सुझावों पर जवाब देने को भी कहा और आगे की सुनवाई के लिए 26 सितंबर की तारीख तय की.
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‘मॉडल जेल मैनुअल को सही करने की ज़रूरत’
मौत की सज़ा पाए दोषियों पर रिपोर्ट में विभिन्न जेलों में बंद ऐसे 365 कैदियों की पहचान की गई है. इसमें कहा गया है कि 224 मामले हाई कोर्ट के समक्ष अपील में लंबित हैं.
मौत की सज़ा पाने वाले सबसे ज्यादा 46 दोषी महाराष्ट्र में हैं, उसके बाद मध्य प्रदेश है, जहां 38 कैदी फांसी की सज़ा का सामना कर रहे हैं.
रिपोर्ट में कहा गया है कि पांच राज्यों — गोवा, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड और सिक्किम — और केंद्र शासित प्रदेश लक्षद्वीप में किसी भी मौत की सज़ा वाले दोषी की सूचना नहीं है.
1978 के शीर्ष अदालत के फैसले के बारे में इसमें कहा गया है कि फैसले में मौत की सज़ा पाए दोषियों को सभी कानूनी रास्ते अपनाने के बाद अलग से कैद में रखने की बात कही गई थी, लेकिन एकांत कारावास पर रोक लगा दी गई थी.
समिति को यह भी पता चला कि गृह मंत्रालय के तहत पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो के माध्यम से प्रकाशित मॉडल जेल मैनुअल, 2016 में भी 1978 के फैसले के जनादेश की अनदेखी की गई है.
जेल मैनुअल का नियम 12.08, जो विशेष रूप से मौत की सज़ा वाले कैदियों से संबंधित है, प्रत्येक दोषी को मौत की सज़ा सुनाए जाने की तारीख से, अन्य सभी कैदियों से अलग, एक विशेष यार्ड में एक सेल में कैद करने का आह्वान करता है. यह इस बात पर ध्यान दिए बिना है कि हाई कोर्ट ने मौत की सज़ा की पुष्टि की है या नहीं।
यह देखते हुए कि जेलों में अपनाए जाने वाले नियम और प्रथाएं शीर्ष अदालत के आदेश के साथ असंगत हैं, पैनल ने मॉडल जेल मैनुअल, 2016 को फिर से देखने और सही करने का आह्वान किया है, ताकि मौत की सज़ा वाले दोषियों के संबंध में मानदंडों को समान रूप से लागू किया जा सके.
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राज्यों में अलग-अलग नियम
रिपोर्ट में भारत भर की जेलों में मौत की सज़ा पाने वाले दोषियों के साथ व्यवहार को लेकर अपनाई जाने वाली प्रथाओं में अंतर का भी पता चलता है, जिसमें यह भी शामिल है कि वास्तव में जेल अधिकारी किसी कैदी को मौत की सज़ा पाए अपराधी के रूप में गिनते हैं या नहीं.
आंध्र प्रदेश, असम, बिहार, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली और चंडीगढ़ किसी कैदी को मृत्युदंड की श्रेणी में तभी डालते हैं जब उसकी दया याचिका खारिज हो जाती है.
हालांकि, मेघालय, हरियाणा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, केरल, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और ओडिशा में, मौत की सज़ा के तहत हर कैदी, उसके आगमन पर तुरंत (ट्रायल कोर्ट के फैसले की घोषणा के बाद), मौत की सज़ा का दोषी बन जाता है.
तेलंगाना और उत्तराखंड एक अलग नियम का पालन करते हैं. यहां कैदियों को उनके संबंधित उच्च न्यायालयों द्वारा निचली अदालतों द्वारा सुनाई गई मौत की सज़ा की पुष्टि करने के बाद इस सजा का दोषी करार दिया जाता है.
रिपोर्ट के मुताबिक, आंध्र प्रदेश, असम, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा और दिल्ली ने पैनल को मौत की सज़ा पाए दोषियों को एक अलग सेल में कैद करने और रखने के बारे में जानकारी दी. उन पर चौबीसों घंटे निगरानी रखी जा रही है.
विशेष रूप से तमिलनाडु ने पैनल को सूचित किया कि वो अपने मृत्युदंड वाले कैदियों को “निंदित कोठरियों में से एक” में ले जाता है, जिसमें लकड़ी का दरवाज़ा नहीं होता है.
रिपोर्ट के अनुसार, बिहार और जम्मू-कश्मीर की प्रतिक्रियाओं से संकेत मिलता है कि मौत की सज़ा पाने वाले कैदियों को उसी समय अलग कर दिया गया, जब ट्रायल कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया.
रिपोर्ट में कहा गया है कि केवल गुजरात, हरियाणा, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम और पंजाब मौत की सज़ा पाए दोषियों के लिए किसी अलगाव नीति का पालन नहीं करते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के पैनल ने अपने जेल कर्मचारियों द्वारा बेहतर समझ और अनुपालन के लिए गृह मंत्रालय द्वारा सभी सलाह और निर्देशों का संबंधित राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों की स्थानीय भाषाओं में अनुवाद करने की सलाह दी है.
इसने मौत की सज़ा पाए दोषियों को जेल में रहने के दौरान काम के आवंटन के संबंध में समान दिशानिर्देशों की भी सिफारिश की है.
समिति ने जेलों की अमानवीय स्थितियों पर SC के 2018 के फैसले का हवाला देते हुए इस बात पर प्रकाश डाला कि मौत की सज़ा पाने वाले दोषी के पास किसी अन्य दोषी के समान अधिकार थे.
रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि सुरक्षा कारणों से लगाए गए कुछ आवश्यक प्रतिबंधों के अधीन, उन्हें किसी भी अन्य कैदी की तरह जेल में घूमने की अनुमति दी जानी चाहिए.
उक्त मुद्दे पर पैनल की टिप्पणियां इसलिए की गईं क्योंकि उसने मृत्युदंड की सज़ा पाए दोषियों को कार्य आवंटन और जेलों में घूमने की स्वतंत्रता पर राज्यों में प्रचलित नियमों के विभिन्न सेटों को देखा.
रिपोर्ट के अनुसार, छत्तीसगढ़, गोवा, मध्य प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, पंजाब, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और चंडीगढ़ मौत की सज़ा पाए कैदियों को सामान्य जेल क्षेत्रों तक पहुंच की अनुमति देते हैं, जबकि बिहार, ओडिशा, राजस्थान और झारखंड ऐसा नहीं करते हैं.
हालांकि, इसमें मौत की सज़ा पाए कैदियों को कानूनी सहायता प्रदान करने के मामले में राज्यों की कोई गलती नहीं पाई गई. यह सहायता उन्हें अपील और दया याचिका दायर करने के लिए दी जाती है.
(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)
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