नई दिल्ली: पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के मामले में गिरफ्तारी के 41 साल बाद, सुप्रीम कोर्ट ने 18 मई को उम्रकैद की सजा काट रहे एजी पेरारिवलन की तत्काल रिहाई का आदेश दिया था.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इस मामले में जेल की सजा काट रहे अन्य छह दोषियों की रिहाई की उम्मीदों को फिर से जगा दिया है. इन्होंने पेरारिवलन के साथ ही, जेल में अच्छे व्यवहार और लंबे समय तक जेल में रहने का हवाला देते हुए 2015 में तमिलनाडु के राज्यपाल को अपनी दया याचिकाएं भेजी थीं.
पेरारीवलन की रिहाई का आदेश देते हुए जस्टिस एल.एन. राव ने कहा था कि राज्य कैबिनेट की रिहा करने की सिफारिश के बावजूद, दोषी की दया याचिका पर निर्णय लेने में राज्यपाल की ओर से देरी की गई.
बेंच ने कहा कि राज्यपाल को राष्ट्रपति को ऐसी याचिका नहीं भेजनी चाहिए थी. संवैधानिक रूप से राज्यपाल राज्य कैबिनेट की सहायता और सलाह से इस पर निर्णय लेने के लिए सक्षम प्राधिकारी है.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश को तीन हफ्ते से ज्यादा का समय हो चुका है लेकिन अभी तक न तो राज्यपाल और न ही तमिलनाडु सरकार ने अन्य छह दोषियों – नलिनी श्रीहरन, मुरुगन, संथान, रविचंद्रन, जयकुमार और रॉबर्ट पायस की रिहाई के बारे में बात की है.
मामले से जुड़े एक वकील ने नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया कि इनमें से कुछ दोषियों के परिवार के सदस्य हाल ही में राज्य सरकार के पास इस अनुरोध के साथ पहुंचे कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बाकी को भी रिहा किया जाना चाहिए.
उन्होंने कहा, ‘लेकिन उन्हें अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है.’
वकील के मुताबिक, सभी सात दोषियों ने 2015 में राज्यपाल के कार्यालय में अपनी दया याचिकाएं भेजी थीं.
2018 में राज्य मंत्रिमंडल ने तत्कालीन राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित को उन सभी को रिहा करने की सलाह दी थी लेकिन राज्यपाल ने याचिकाओं पर निर्णय लेने के बजाय उन्हें इस आधार पर राष्ट्रपति के पास भेज दिया कि मामले की जांच एक केंद्रीय जांच एजेंसी द्वारा की जाएगी.
फैसले आने में देरी के चलते पेरारिवलन ने अदालत का रुख किया था और उन्हें राहत मिल गई. हालांकि, अन्य लोग अभी भी जेल में हैं.
पहले उद्धृत वकील ने बताया, सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि राज्यपाल को संवैधानिक रूप से इस तरह की याचिका पर फैसला लेने का अधिकार है. तमिलनाडु सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान किया जाए और बाकी छह दोषियों को रिहा कर दिया जाए.
कानूनी विशेषज्ञों को उम्मीद थी कि फैसले से अन्य छह दोषियों की रिहाई का रास्ता खुल जाएगा.
21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में एक रैली में आत्मघाती बम विस्फोट में राजीव गांधी की मौत हो गई थी. इसके तुरंत बाद सात दोषियों को गिरफ्तार कर लिया गया.
1998 में उन्हें 19 अन्य आरोपियों के साथ मौत की सजा सुनाई गई थी.
जबकि 1999 में 19 अन्य आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया था लेकिन अदालत ने मुरुगन, संथान, पेरारीवलन और नलिनी की मौत की सजा को बरकरार रखा था. पायस, जयकुमार और रविचंद्रन की सजा को कम करके उम्रकैद कर दिया गया था.
2000 में सोनिया गांधी से उनकी याचिका के बाद, नलिनी की मौत की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया था. 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने मौत की सजा पाने वाले बाकी के तीन दोषियों को राहत देते हुए, उनकी सजा को भी उम्रकैद में बदल दिया था.
उस समय भी सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दया याचिकाओं पर फैसला करने में तमिलनाडु सरकार की ओर से देरी का हवाला दिया था जो कार्यपालिका के पास 11 साल से लंबित थी.
पेरारीवलन, नलिनी और रविचंद्रन को छोड़कर अन्य चार – मुरुगन, संथान उर्फ टी. सुथेंथिरराजा, रॉबर्ट पायस और जयकुमार – श्रीलंकाई नागरिक हैं. कार्यवाही की जानकारी रखने वाले वकीलों के अनुसार, जेल अधिकारियों की ओर से उनके आचरण के संबंध में कोई शिकायत नहीं मिली है.
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दया पाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई
1992 में दायर सीबीआई चार्जशीट के अनुसार, संथन, पायस, रविचंद्रन और जयकुमार के हत्या के मास्टरमाइंड, एक श्रीलंकाई नागरिक के साथ घनिष्ठ संबंध थे. पेरारिवलन पर बम के लिए बैटरी खरीदने का आरोप लगाया गया था. यह बम जिसे एक आत्मघाती हमलावर ने अपनी कमर पर बांधा हुआ था और पूर्व प्रधानमंत्री को मारने के लिए इस्तेमाल किया गया था.
फिलहाल 54 साल की नलिनी उस समय चार्जशीट में नंबर एक आरोपी थी. वह विस्फोट स्थल पर मौजूद एकमात्र जीवित साजिशकर्ता थी. इस हमले में राजीव गांधी और 21 अन्य लोग मारे गए थे.
वह हत्या की साजिश रचने वाले पांच सदस्यीय दस्ते का हिस्सा थीं. नलिनी ने हमले में दोषी अपने करीबी सहयोगी और लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिल ईलम (LTTE) के सदस्य मुरुगन के साथ मुकदमे के दौरान शादी की थी. उनकी बेटी का जन्म जेल में ही हुआ है.
वहीं जयकुमार ने भी अपनी सजा काटते हुए एक भारतीय से शादी रचा ली थी.
अभी भी जेल में बंद छह दोषियों में से दो नलिनी और रविचंद्रन मेडिकल कारणों से पैरोल पर हैं. उनकी दया याचिका मद्रास हाई कोर्ट में डेढ़ साल से अधिक समय से लंबित है.
इस बीच 1999 के फैसले के खिलाफ पायस की समीक्षा याचिका – अच्छे आचरण और लंबी कैद के आधार पर रिहाई की मांग – सुप्रीम कोर्ट में लंबित है. यह महामारी की शुरुआत से ठीक पहले और सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई ऑनलाइन होने से पहले दायर की गई थी.
उनके मामले को देख रहे एक वकील ने दिप्रिंट को बताया, ‘ सुप्रीम कोर्ट रजिस्ट्री की तरफ से आपत्तियां (याचिकाओं पर)थीं. हमने उनका अनुपालन किया लेकिन फाइल बड़ी है और मामले को तीन-जजों की बेंच के समक्ष सूचीबद्ध करने की जरूरत है, जिसका गठन केवल भारत के मुख्य न्यायाधीश ही कर सकते हैं.’
‘परिवार का समर्थन नहीं और कानूनी प्रक्रियाओं की कम जानकारी ‘
जब तक कि हत्या के पीछे एक बड़ी साजिश का पता लगाने की जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक अपनी सजा को स्थगित करने की मांग करते हुए 2015 में पेरारीवलन ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था. इस याचिका पर सुनवाई इस साल 18 मई को खत्म हुई और पेरारिवलन की रिहाई के आदेश दे दिए गए.
सुप्रीम कोर्ट में पेरारिवलन का प्रतिनिधित्व करने वाली कानूनी टीम का हिस्सा रहे एडवोकेट एस प्रभु रामसुब्रमण्यम ने कहा कि अन्य दोषियों के साथ मुश्किल यह है कि उनके परिवार कानूनी प्रक्रियाओं से अच्छी तरह वाकिफ नहीं हैं.
रामसुब्रमण्यम ने कहा, ‘पेरारिवलन को उनके परिवार से समर्थन मिला और उनके लिए अदालतों में लड़ाई लड़ी. जबकि बाकी के मामलों में ऐसा नहीं है. चार में से दो श्रीलंकाई कैदियों का यहां (भारत में) कोई नहीं है, जो अदालत के घटनाक्रम का पालन कर सके. बाकी के दो दोषी उन्होंने भारतीयों से शादी की है, उनके पास भी कोई मजबूत पारिवारिक समर्थन नहीं है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘कानूनी व्यवस्था के बारे में उनकी समझ का स्तर बहुत अच्छा नहीं है.
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‘तमिलनाडु सरकार चाहे तो फिर दया की सिफारिश कर सकती है’
कानूनी विशेषज्ञों ने दिप्रिंट से कहा कि यह उम्मीद की जा रही थी कि राज्यपाल की भूमिका के बारे में सुप्रीम कोर्ट की स्पष्ट राय राज्य के प्रशासनिक प्रमुख को बाकी के छह कैदियों के भविष्य पर फैसला लेने के लिए प्रेरित करेगी.
उन्होंने आगे कहा कि अगर तमिलनाडु सरकार चाहे तो पेरारीवलन के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का संज्ञान ले सकती है और एक बार फिर राज्यपाल से उन्हें दया देने की सिफारिश कर सकती है.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ दवे ने दिप्रिंट को बताया, ‘एक निर्णय है और इस तथ्य को जानते हुए कि उन्हें लगभग एक साथ गिरफ्तार किया गया था और जेल में समान समय बिताया है, छह दोषियों और पेरारिवलन के बीच कोई अंतर नहीं है.’
उन्होंने कहा, ‘यह देखते हुए कि राज्य ने पहले उनको (दोषियों) रिहा करने की सलाह दी है, राज्यपाल को उन्हें माफ कर देना चाहिए’
दवे ने बताया कि अगर राज्य कोई कदम नहीं उठाता तो दोषियों को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना चाहिए और उन्हें संविधान के अनुच्छेद 142 को लागू करने के लिए भी कहना चाहिए.
अनुच्छेद 142 के विशेषाधिकार के तहत सुप्रीम कोर्ट ने पेरारिवलन को रिहा करने का आदेश दिया है.
दवे ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने पेरारिवलन को न्याय दिलाने के लिए अपनी असाधारण शक्तियों का इस्तेमाल किया है. बाकी के जो लोग जेलों में बंद हैं, उनके लिए भी ऐसा ही किया जाना चाहिए. जेल से उनके बारे में रिपोर्ट ली जा सकती है.’
पेरारिवलन के वकील रामसुब्रमण्यम ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का मई का आदेश आजीवन दोषियों को क्षमा करने में राष्ट्रपति और राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों के बारे में साफ तौर पर बताता है.
उन्होंने कहा, ‘इस मामले में राज्यपाल ने सभी सात फाइलें राष्ट्रपति को भेज दी थीं. उन्हें आदर्श रूप से उन फाइलों को वापस ले लेना चाहिए और 2018 के कैबिनेट फैसले के आधार पर दया याचिकाओं पर अपनी राय देनी चाहिए.’
उन्होंने आगे कहा कि अगर राज्यपाल कार्रवाई नहीं करते हैं, तो राज्य को ‘सुनिश्चित करना होगा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान किया जाए क्योंकि कैबिनेट का फैसला तो पहले से ही इस तरफ है.’
उन्होंने कहा, ‘राज्य को राज्यपाल को पत्र लिखकर उसकी 2018 की सिफारिश पर कार्रवाई करने के लिए कहना चाहिए.’
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