scorecardresearch
Thursday, 25 April, 2024
होमदेश‘उन पर रोक लगाने की कोई वजह नहीं’, समलिंगी दंपतियों के लिए अदालतें बनी मददगार

‘उन पर रोक लगाने की कोई वजह नहीं’, समलिंगी दंपतियों के लिए अदालतें बनी मददगार

मई में केरल हाइकोर्ट ने लेस्बियन दंपती अधीला नसरीन और फातिम नूरा को परिवार की आपत्तियों के बावजूद साथ रहने की इजाजत दे दी, दूसरी अदालों के फैसले भी सम-लिंगी जीवन-साथियों की ख्वाहिशों पर मुहर लगाते हैं

Text Size:

नई दिल्ली: लगता है, देश भर में अदालतें सम-लिंगी रिश्तों के बारे में प्रगतिशाील विचारों के मामले में बाकी समाज पर भारी पड़ रही हैं. इसकी ताजा मिसाल पिछले महीने मिलीं, जब केरल हाइकोर्ट ने फैसला सुनाया कि लेस्बियन दंपती 22 वर्षीय अधीला नसरीन और 23 वर्षीय फातिमा नूरा अपने परिवारों की आपत्तियों के बावजूद साथ रह सकते हैं.

अदालत का फैसला 31 मई को आया और संयोग से एक दिन बाद ही प्राइड मंथ शुरू हो रहा था. यह फैसला हैबियस कॉर्पस (बंदी प्रत्यक्षीकरण) रिट याचिका पर सुनाया गया, जो गैर-कानूनी और अनिश्चितकालीन कैद से रक्षा करता है.
वरिष्ठ वकील सौरभ कृपाल ने दिप्रिंट से कहा, ‘अमूमन नाराज परिवार दंपतियों को दूर रखने के लिए पुलिस और दूसरी सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल करते हैं. (ऐसे मामलों में) जहां सरकारें नाकाम रहती हैं, अदालतें दखल देती रही हैं. इससे बड़ी संख्या में सम-लिंगी दंपतियों को खुलकर आजादी के साथ जीने की हिम्मत मिली है.’

कृपाल उस मामले में वकील थे, जिससे 2018 में भारत में सहमति से सम-लिंगी संबंधों को अपराध-मुक्त किया गया था.
केरल की दो लड़कियां सऊदी अरब में स्कूली पढ़ाई के दौरान मिलीं, करीब चार साल से साथ-साथ रहीं और हाल ही में तय किया कि जीवन-साथी की तरह रहना है, जिस पर उनके परिवारों ने कथित तौर नाराजगी जाहिर की और धमकियां दीं.

लड़कियों ने 19 मई को कोझिकोड के एनजीओ वनजा कलेक्टिव में शरण ली, जो एलजीबीटीआइक्यू (LGBTIQ) और दूसरे हाशिए के समूहों के बीच काम करता है. याचिका में कहा गया है कि दोनों ‘कुछ दिन’ वहां रहीं, लेकिन उनके रिश्तेदारों को उनके वहां रहने का पता चला तो ‘पुलिस ने धमक दी.’ नसरीन का परिवार उन्हें कुछ दिनों तक ले गया, लेकिन नूर के रिश्तेदार आए और जबरन उसे ले गए.

केरल के न्यूज आउटलेट ओनमनोरमा के साथ बातचीत में नसरिन ने दावा किया कि उसे नूरा के परिजनों ने मारा-पीटा. इसके अलाव, उसे शक था कि उसके ‘अगवा’ किए पार्टनर को सेक्स रुझान बदलने के लिए गैर-कानूनी ‘कन्वर्सन थेरेपी’ के लिए मजबूर किया गया.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

अपनी याचिका में नसरिन ने आग्रह किया कि नूरा को हाइकोर्ट में पेश किया जाए. 31 मई को न्यायाधीश के. विनोद चंद्रन और न्यायाधीश सी. जयचंद्रन की खंड पीठ ने इन-कैमरा सुनवाई की, जिसमें सिर्फ लडक़ी ही अदालत में मौजूद थी.

सुनवाई के दौरान नूरा ने नसरिन के साथ जाने की इच्छा जाहिर की. इससे अदालत पर इस नतीजे पर पहुंची कि दोनों ही वयस्क हैं और उनमें आपसी सहमति है तो उन पर ‘रोक लगाने की कोई वजह नहीं है.’

नसरिन और नूरा की कहानी इकलौती नहीं है. दश भर में अदालती आदेशों में एक जैसा रुझान दिखता है. परिवार समलिंगी रिश्ते का विरोध करते हैं तो युवा जोड़े कानून की शरण लेते हैं और न्यायाधीश दंपतियों के एक साथ रहने के अधिकार के बारे फैसला सुनाते हैं.

कृपाल कहते हैं, ‘उम्मीद यही है कि पुलिस भी सहमति से संसर्ग करने वाले जोड़ों को पकड़ने के पहले दो-बार सोचेगी, क्योंकि वह जानती है कि अदालतों की उन पर नजर है.’


यह भी पढ़ेंः मुस्लिम ‘बाल विवाह’ क्या है? पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट का हालिया आदेश अन्य फैसलों की तरह विरोधाभासी है


निर्णायक मोड़

पिछले साल दिसंबर में तेलंगाना में एक समलिंगी जोड़े ने शादी का जश्न मनाया. उन्होंने अंगूठियों का आदान-प्रदान किया. अलबत्ता इस संगम को ‘आधिकारिक’ बनाने के लिए कागजात वगैरह पर दस्तखत जैसा कुछ नहीं था. लेकिन सम-लिंगी शादियां भले भारत में कानूनी न हों, उन्हें रोकने का कोई वैधानिक या संवैधानिक प्रावधान भी नहीं है.

सम-लिंगी जोड़ों को अधिकार और सुरक्षा की गारंटी देने में अभी शायद वक्त लगे, लेकिन नवतेज जोहर के मामले में 6 सितंबर 2018 के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासकि फैसले से भारत में कानून ने एक लंबी छलांग लगा दी है.

उस फैसले में न सिर्फ समलैंगिकता को अपराध बनाने वाले औनिवेशक काल के कानून को रद्द कर दिया, बल्कि सर्र्वोच्च अदालत के 2013 के उस फैसले को भी बेमानी बता दिया, जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को सही ठहराया गया था.

बेहद सराहे गए 2018 के फैसले में देश के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा था, ‘अधिकारों को उलटी दिशा में नहीं ले जाया जाना चाहिए. प्रगतिशील और हमेशा सुधार की ओर बढऩे वाले समाज में वापसी का कोई स्थान नहीं है. समाज को आगे बढऩा है.’

समाज कितना आगे बढ़ा है, यह तो बहस का मुद्दा है, लेकिन जहां भी कानून सम-लिंगी रिश्तों को अपराध बनाता है, अदालतें राहत मुहैया करा सकती हैं.

नव तेज जोहर मामले में फैसले के बाद देश भर में अनेक याचिकाएं दर्ज की गईं, जोड़ों ने पारिवारिक असहिष्णुता के खिलाफ पुलिस सुरक्षा की मांग की. ज्यादातर मामलों में यह मुहैया कराई गई, अलबत्ता कुछ अपवाद भी रहे.


यह भी पढ़ेंः CIC ने यौन उत्पीड़न मामले में पूर्व CJI को क्लीन चिट देने वाली रिपोर्ट मांगने वाली याचिका ठुकराई


‘परंपरा’ बनाम अदालतें

नवतेज फैसले के महीने भर में ही, एक युवा लेस्बियन जोड़े ने सुरक्षा की मांग के लिए दिल्ली हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, क्योंकि उन्हें अपने परिवार वालों से जीवन का खतरा था. लड़कियों ने जाहिर किया कि उनका रिश्ता 6 सितंबर 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मजबूत हुआ है, लेकिन उन्हें अपने परिवार से अनुकूल जवाब नहीं मिल रहा है. हालांकि दिल्ली हाइकोर्ट ने राहत मुहैया कराई और पुलिस को आदेश दिया कि उन्हें सुरक्षा दी जाए.

अक्टूबर 2018 में केरल हाइकोर्ट ने एक हैबियस कॉर्पस याचिका पर कहा कि लेस्बियन दंपती को जीन का अधिकार है.
केरल हाइकोर्ट ने कहा, ‘यह अदालत यह नहीं पाती है कि याचिककर्ताओं के ‘लिव-इन-रिलेशनशिप’ से किसी कानूनी प्रावधान का उल्लंघन होगा या किसी भी तरह से यह अपराध होगा.’

उस फैसले में केरल हाइकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक पहले की टिप्पणी को याद किया कि ‘वयस्क होने की उम्र’ के बाद किसी को ‘अपनी पसंद’ का अधिकार है.

अदालत ने आगे कहा, ‘विवाह की बारीकियां, कोई किससे विवाह करे या न करे, यह सब राज्य के नियंत्रण के दायरे के बाहर है.’

ऐसे कई एक जैसी कहानियां हैं. अदालतों ने उन मामलों में राहत मुहैया कराई है, जहां परिवार वाले अपने बच्चों के सम-लिंगी रिश्तों के लिए उनके जीवन और आजादी पर खतरा पैदा करते हैं.

मसलन, लुधियाना के रहने वाले संदीप के.सी. और उसका पार्टनर भूपिंदर साथ-साथ रहना चाहते थे. लेकिन भूपिंदर के परिवार वालों ने इससे इनकार कर दिया और इसे ‘पाप’ बताया.

अपने जीवन पर खतरा भांप कर उन लोगों ने 2019 में पंजाब और हरियाणा हाइकोर्ट का सुरक्षा मुहैया कराने के लिए दरवाजा खटखटाया. हाइकोर्ट ने ‘रिश्ते की प्रकृति’ पर टिप्पणी करने से मना कर दिया, लेकिन लुधियाना पुलिस को सुरक्षा मुहैया कराने का आदेश दिया.

पिछले साल दिसंबर में उत्तराखंड हाइकोर्ट ने एक समलैंगिक जोड़े के पक्ष कुछ और कड़ा रुख अपनाया, जिन्होंने दावा किया था कि उनके साथ रहने की ख्वाहिश की वजह से ‘लगातार गंभीर नतीजों’ की धमकियां मिल रही हैं.

उन्हें सुरक्षा मुहैया कराने का आदेश देते हुए अदालत ने कहा, ‘वयस्क लोगों को अपने जीवन-साथी चुनने का बुनियादी अधिकार है, चाहे उनके परिवार के सदस्य विरोध करें.’

वकील सौरभ कृपाल ने कहा, ‘सम-लिंगी दंपतियों की रक्षा करना सरकार की जिम्मेदारी है क्योंकि आखिरकार देश के समान अधिकारों वाले नागरिक हैं. चाहे सम-लिंगी विवाह वैध नहीं है, सभी फैसले कहते हैं कि कोई दो वयस्कों को बिना किसी डर के साथ रहने में सक्षम होना चाहिए.’

अक्षत जैन दिल्ली के नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के छात्र हैं और दिप्रिंट में इटर्न हैं

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः मद्रास हाई कोर्ट ने SPICEJET के खिलाफ समापन याचिका को बरकरार रखा, अपील के लिए दिया समय


 

share & View comments