नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक बेहद अहम फैसले में एक पूर्व महिला न्यायिक अधिकारी की बहाली का आदेश दिया, जिन्होंने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के तत्कालीन जज के खिलाफ कथित यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने के बाद 2014 में इस्तीफा दे दिया था.
सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला उक्त महिला जज की तरफ से अक्टूबर 2018 में दायर याचिका पर सुनवाई के बाद सुनाया है, जिसमें उन्होंने अपनी बहाली की मांग की थी. साथ ही दावा किया था कि उन्होंने प्रतिकूल परिस्थितियों से परेशान होकर इस्तीफा दिया था, जिसमें हाई कोर्ट जज की ‘नाजायज’ मांगों का विरोध किए जाने के कारण उनका ट्रांसफर ग्वालियर से अचानक अशांत क्षेत्र में किया जाना शामिल था.
अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद पर कार्यरत महिला अधिकारी ने 15 जुलाई 2014 को इस्तीफा दे दिया था, जिसे राज्य ने 17 जुलाई 2014 को स्वीकार कर लिया था.
जस्टिस एल.एन. राव और जस्टिस बी.आर. गवई की पीठ ने कहा, ‘हम 15 जुलाई 2014 को अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश, ग्वालियर के पद से याचिकाकर्ता के इस्तीफे को स्वैच्छिक नहीं मान सकते. इसलिए 17 जुलाई, 2014 को इस्तीफा स्वीकारने संबंधी आदेश अमान्य करार देते हुए इसे रद्द किया जाता है.
फैसले में में कहा गया कि महिला जज का त्यागपत्र ‘यह सोचकर उपजी हताशा और निराशा का नतीजा नजर आता है कि न्यायपालिका जैसी अहम संस्था की तरफ से उनके साथ अन्याय किया जा रहा है.’
याचिकाकर्ता के इस दावे पर कि उन्हें इस्तीफे को बाध्य किया गया था, अदालत ने कहा कि उनकी यह दलील स्वीकार करना संभव नहीं होगा. हालांकि, साथ ही कहा कि उनके द्वारा बयां की गई परिस्थितियां साफ दर्शाती हैं कि इस्तीफा ‘निराशा’ का नतीजा था, जब उनके पास कोई और विकल्प नहीं बचा था.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में इस बात को भी रेखांकित किया कि ग्वालियर जैसे एक ‘ए’ श्रेणी के शहर से सीधी जैसे ‘सी’ श्रेणी के शहर में उनका तबादला किया जाना भी हाई कोर्ट की ट्रांसफर पॉलिसी के अनुरूप नहीं था. यह कदम एकदम मनमाना था.
अदालत ने राज्य को महिला अधिकारी की बहाली का निर्देश दिया, जिनकी सेवाएं 15 जुलाई 2014 से सभी संबंधित लाभों के साथ जारी मानी जाएंगी. हालांकि, कोर्ट ने साफ किया है कि महिला अधिकारी को किसी भी पिछले वेतन का हकदार नहीं माना जाएगा.
सुप्रीम कोर्ट ने गत 1 फरवरी को याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था.
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हाई कोर्ट की आपत्तियां ‘सही या गलत होने पर विचार नहीं कर रहे’
शीर्ष कोर्ट ने आगे स्पष्ट किया कि महिला जज की बहाली की अपील पर मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की पूर्ण पीठ ने जिन पहलुओं को लेकर आपत्तियां जताई थीं, वह उनके सही या गलत होने पर कोई विचार नहीं कर रही.
हाई कोर्ट संबंधी नियमों के तहत कोई ‘पूर्ण पीठ’ एक प्रशासनिक निकाय है जिसमें हाई कोर्ट के सभी न्यायाधीश शामिल होते हैं जिन्हें महत्वपूर्ण प्रशासनिक निर्णय लेने का जिम्मा सौंपा जाता है.
पूर्ण पीठ ने तीन मौकों पर महिला जज की बहाली संबंधी आवेदन पर विचार किया लेकिन हर बार इसे खारिज कर दिया.
फैसला लिखने वाले जस्टिस गवई ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से कहा, ‘हम अपनी तरफ से हाई कोर्ट की पूर्ण पीठ के अधिकारों का पूरा सम्मान करते हैं और इस पर कोई व्यवस्था नहीं दे रहे कि उसका फैसला सही था या गलत.’
गौरतलब है कि तुषार मेहता ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए बहाली का विरोध किया था.
आदेश में कहा गया है, ‘हमने यह निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र रूप से रिकॉर्ड पर मौजूद सामग्री की जांच की है कि तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए क्या तबादले के आदेश (हाई कोर्ट की तरफ से), प्रतिनिधित्व से इनकार (फिर बहाली के संबंध में) और इस्तीफे को स्वैच्छिक माना जा सकता है.’
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याचिका ‘दंड’ स्वरूप ट्रांसफर किए जाने पर केंद्रित थी
अक्टूबर 2018 में जब महिला जज ने अपनी सेवाएं बहाल करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था तो उन्होंने एक संसदीय जांच समिति के निष्कर्षों को इसका आधार बनाया था. यह समिति हाई कोर्ट के तत्कालीन सिटिंग जज के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों की जांच के लिए बनाई गई थी.
हालांकि, समिति ने जज को यौन उत्पीड़न के आरोपों से तो बरी कर दिया लेकिन यह माना था कि साक्ष्यों से संकेत मिलता है कि महिला जज के तबादले में उनकी भूमिका थी, जिसे समिति ने ‘दंडात्मक’ कदम करार दिया था. शीर्ष अदालत के समक्ष याचिका दायर करने से पहले महिला जज ने जांच समिति के निष्कर्षों के आधार पर हाई कोर्ट की पूर्ण पीठ के समक्ष आवेदन दिया था और अपनी बहाली की मांग की थी. जब वहां से इस मांग को खारिज कर दिया गया तब उन्होंने राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई.
सुप्रीम कोर्ट ने दो बार मध्य प्रदेश हाई कोर्ट को मामले को विचार-विमर्श करके निपटाने और महिला जज की सेवाएं बहाल करने पर पुनर्विचार करने का निर्देश दिया था. साथ ही यह सुझाव भी दिया था कि उन्हें किसी भी राज्य या केंद्रीय अर्ध-न्यायिक निकाय में प्रतिनियुक्त किया जा सकता है. हाई कोर्ट से उन्हें बहाल करने के बाद किसी दूसरे राज्य में ट्रांसफर करने की संभावना तलाशने के लिए भी कहा गया था.
हालांकि, दोनों ही मौकों पर हाई कोर्ट ने इस सुझाव को ठुकरा दिया.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में जांच समिति के निष्कर्षों की गहराई में जाने से परहेज किया, ‘ताकि सभी संबंधित पक्षों की गरिमा बनी रह सके.’ इसके अलावा, कोर्ट ने याचिकाकर्ता के इस आरोप पर भी कोई निर्णायक राय जाहिर करने से परहेज किया कि दंड स्वरूप तबादले का आदेश उन जज के कहने पर जारी किया गया था जिन्होंने उन्हें उत्पीड़ित किया था. पीठ ने कहा, ‘…हम मामले के उस पहलू में जाना जरूरी नहीं समझते.’
यह कहते हुए कि इस मामले में फैसला कुछ विचित्र तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर किया गया है, पीठ ने उम्मीद जताई कि भविष्य में कम से कम किसी भी कोर्ट और न्यायिक अधिकारियों के बीच इस तरह के मुद्दे नहीं उठेंगे.
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याचिका के खिलाफ मेहता ने दी दलीलें
महिला जज की तरफ से पैरवी कर रही वकीलों वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जयसिंह और आस्था शर्मा ने कोर्ट को बताया कि जिस समय तबादला हुआ महिला जज की बेटी 12वीं कक्षा में पढ़ रही थी और उन्होंने तुरंत ही हाई कोर्ट से दो अनुरोध किए. पहली बार उन्होंने ग्वालियर में ही बने रहने देने का आग्रह किया. जब इसे नहीं माना गया तो उन्होंने फिर आग्रह किया कि उन्हें किसी ऐसे शहर में ट्रांसफर किया जाए, जहां उनकी बेटी की पढ़ाई में कोई बाधा न आए. लेकिन उनके दोनों अनुरोध ठुकरा दिए गए और फिर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा.
इस मामले पर शीर्ष कोर्ट की बेंच ने कहा, ‘उनकी जायज मांग को ठुकरा दिए जाने से हताशा और निराशा का भाव उपजा होगा….उनका कहना है कि चूंकि बेटी की 12वीं कक्षा की पढ़ाई के बीच सत्र में उन्हें सीधी ट्रांसफर कर दिया गया था, इससे एक बेहद अहम चरण में उनकी बेटी का करियर प्रभावित हो सकता था…ऐसा प्रतीत होता है कि एक मां और एक न्यायिक अधिकारी के बीच जबर्दस्त कशमकश में न्यायिक अधिकारी हार गई.’
मामले में हाई कोर्ट की तरफ से पेश तुषार मेहता ने शीर्ष कोर्ट से महिला जज की दलीलें स्वीकार नहीं करने को कहा. उन्होंने तर्क दिया कि यदि इस तर्क को स्वीकार कर लिया जाता है, तो किसी भी प्रशासनिक व्यवस्था, नागरिक या न्यायिक निकाय के लिए प्रशासनिक कार्य करना असंभव हो जाएगा, खासकर तब जबकि एक संसदीय जांच समिति ने अब रिटायर हो चुके हाई कोर्ट के न्यायाधीश को दिसंबर 2017 में यौन उत्पीड़न के आरोपों से बरी कर दिया था.
मेहता के इस तर्क को सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार नहीं किया और इसे ‘तथ्यों से परे’ बताते हुए खारिज कर दिया.
मेहता ने पूर्व न्यायिक अधिकारी की बहाली की याचिका का विरोध करते हुए कहा कि उन्हें या तो ट्रांसफर का सम्मान करना चाहिए था या इसे न्यायिक आधार पर चुनौती देनी चाहिए थी. लेकिन किसी को ‘ट्रांसफर का आदेश रद्द कराने के लिए यौन उत्पीड़न का आरोपों लगाने का रास्ता अपनाने की अनुमति नहीं दी जा सकती है. वह भी इस्तीफा देने के बाद.’
मेहता ने महिला जज की इन दलीलों को निराधार बताया कि उन्हें ‘इस वजह से निशाना बनाया गया था क्योंकि उन्होंने कुछ अवांछित मांगों को मानने से इनकार कर दिया था. इसलिए उनका ट्रांसफर कर दिया गया.’
उनके मुताबिक, सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर उनकी याचिका का निर्धारित आधार या तो ट्रांसफर को चुनौती देना या प्रशासनिक पक्ष के आधार पर इसके खिलाफ बहाली की अपील करना होना चाहिए था.
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‘न्यायिक अधिकारी भी एक इंसान ही होता है’
मेहता की इस दलील कि न्यायिक अधिकारी को स्वतंत्र और निडर होकर कानूनों के मुताबिक कार्य करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, के संदर्भ में शीर्ष कोर्ट ने कहा, ‘लेकिन न्यायिक अधिकारी भी इंसान ही होते हैं. कोई व्यक्ति न्यायिक अधिकारी के साथ अभिभावक भी हो सकता है. वह पिता या माता कुछ भी हो सकता है. सवाल उठता है कि यदि कोई न्यायिक अधिकारी, एक इंसान के तौर पर अपने व्यक्तिगत मामलों में पिता या मां के तौर पर कोई फैसला ले तो क्या उस पर भी यही मानदंड लागू माने जाएंगे.’
किसी नियोक्ता और किसी कर्मचारी के बीच विवाद को निपटाने संबंधी कानूनी सिद्धांतों को लागू करने— इस केस में हाई कोर्ट और एक न्यायिक अधिकारी— के संदर्भ में शीर्ष कोर्ट ने कहा कि तबादले के खिलाफ याचिकाकर्ता के दो आवेदनों पर जिस तरह विचार किया गया, उससे ‘यह संदेह जन्म लेता है कि मामले में कुछ ऐसा हो सकता है जो सामान्य तौर पर नजर न आ रहा हो.’
शीर्ष कोर्ट ने अपने निष्कर्ष में यह भी कहा, यहां तक कि जुलाई 2014 में उनका मिड टर्म ट्रांसफर, जो रूटीन ट्रांसफर के ठीक तीन महीने बाद हुआ था, भी ट्रांसफर पॉलिसी का उल्लंघन था.
कोर्ट ने कहा, इसके अलावा यह ग्वालियर के जिला एवं सत्र न्यायाधीश (डीजे) द्वारा लिखित एक ‘असत्यापित’ शिकायत पर आधारित था. डीजे ने जांच पैनल के समक्ष स्वीकारा था कि उन्होंने विभिन्न न्यायिक अधिकारियों की मौखिक शिकायतों के आधार पर शिकायत लिखी थी.
शीर्ष कोर्ट के मुताबिक, सामान्य नीति यही है कि ट्रांसफर के खिलाफ महिला अधिकारी का पक्ष सुना जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि हाई कोर्ट में उनके दूसरे आवेदन, जिसमें कहा गया था कि किसी ऐसी जगह ट्रांसफर कर दिया जाए जहां उनकी बेटी सीबीएसई स्कूल में पढ़ सके, को भी हाई कोर्ट की तरफ से ‘बिना कुछ सोचे-समझे’ एकदम ‘यंत्रवत रवैया’ अपनाते हुए खारिज कर दिया था.’
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