नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश में 19 साल पुराने फर्जी मुठभेड़ के एक मामले ने पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट का ध्यान आकृष्ट किया, जिसने शीर्ष कोर्ट को राज्य सरकार के खिलाफ अपने पुलिसकर्मियों को बचाने के लिए सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग को लेकर एक असाधारण फैसला देने को बाध्य कर दिया.
शीर्ष अदालत ने इस मामले में ‘ढिलाई’ बरते जाने को लेकर यूपी सरकार पर सात लाख रुपये का जुर्माना लगाया है.
यह आदेश 18 वर्षीय प्रदीप कुमार की ‘हत्या’ को लेकर दायर एक याचिका पर सुनाया गया, जिसकी कथित तौर पर यूपी के आठ पुलिसकर्मियों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. चश्मदीदों ने 3 अगस्त 2002 की इस घटना को एक कोल्ड ब्लडेड मर्डर बताया था.
इनमें से चार पुलिसकर्मी—संजीव कुमार (सब-इंस्पेक्टर), मनोज कुमार (सब-इंस्पेक्टर), रणधीर सिंह (सेवानिवृत्त पुलिस उपाधीक्षक) और जितेंद्र सिंह (कांस्टेबल)—कथित तौर पर दो दशकों तक मुकदमा चलने से रोकने में सफल रहे. इसके लिए ‘देरी करने के अन्य उपायों’ के अलावा बुलंदशहर में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (सीजेएम) की अदालत में उनकी पेशी के लिए जरूरी अदालती सम्मन और वारंट से बचना शामिल था.
इस अवधि में प्रदीप कुमार के पिता यशपाल सिंह ने शीर्ष अदालत में आठ याचिकाएं दायर कीं और इलाहाबाद हाई कोर्ट और सीजेएम, बुलंदशहर के समक्ष भी कई आवेदन दिए. फिर भी, मामले में सुनवाई शुरू नहीं हो सकी.
जस्टिस विनीत शरण की अध्यक्षता वाली पीठ ने अपने आदेश में कहा, ‘आम तौर पर हम सीधे इस कोर्ट में दायर याचिकाओं पर जल्द विचार नहीं करते हैं, लेकिन इस मामले में असाधारण परिस्थितियों को देखते हुए हमने यह सुनिश्चित करने के लिए इस याचिका पर विचार किया कि लगभग दो दशकों से इंतजार कर रहे याचिकाकर्ता को न्याय मिल सके.
पीठ ने कहा कि ‘यह मामला दर्शाता है कि कैसे राज्य की सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल उसके अपने पुलिस अधिकारियों को बचाने या संरक्षण देने में किया जा रहा है.’
याचिकाकर्ता के मुताबिक, इन चार में से दो आरोपी पुलिसकर्मियों को पिछले महीने गिरफ्तार किया गया था, जब अदालत ने याचिका पर नोटिस जारी किया, और तीसरे ने बाद में आत्मसमर्पण कर दिया. चौथा अभी भी फरार है.
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क्या है पूरा मामला
पीड़ित के पिता यशपाल सिंह का इस मुकाम तक पहुंचना एक लंबा और कठिनाई भरा सफर रहा है.
इस मामले में लगाए गए आरोपों में कहा गया है कि प्रदीप कुमार को पुलिस ने उस समय रोका जब वह व्यवसाय (अपने पिता की डेयरी के सिलसिले में) के लिए दिल्ली जा रहा था. उसे लाठियों से पीटा गया और फिर उसके सिर में गोली मार दी गई, जिसमें गोली उसके शरीर को तिरछे भेदती हुई आर-पार हो गई.
पुलिस ने दावा किया कि प्रदीप कुमार राज्य रोडवेज की एक बस को लूटने की कोशिश के दौरान गोलीबारी में मारा गया. लेकिन, दिसंबर 2002 में एक जांच रिपोर्ट ने इस दावे को खारिज कर दिया, जिससे आरोपी के खिलाफ आपराधिक मामले का रास्ता खुला.
हालांकि, फिर मई 2004 में स्थानीय पुलिस की तरफ से पुलिसकर्मियों के खिलाफ एक क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी गई, जिसे जनवरी 2005 में सीजेएम बुलंदशहर ने खारिज कर दिया और पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सम्मन जारी किया.
अधिकारियों ने मुकदमे से बचने के लिए क्या किया
आरोपी पुलिसकर्मियों ने मुकदमे से बचने के लिए एक पेचीदा रास्ता अपनाया.
पहले तो आठों आरोपी इस आधार पर कोर्ट में पेश नहीं हुए कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उनमें से दो की तरफ से दायर एक याचिका पर सुनवाई की कार्यवाही पर रोक लगा दी है. याचिका में उनके खिलाफ गैरजमानती वारंट जारी करने पर सवाल उठाया गया था. यह स्टे 12 साल तक लागू रहा.
हालांकि, जब 20 फरवरी 2017 को हाई कोर्ट ने यह याचिका खारिज कर दी और इस पर लगी रोक हटा दी तो भी आठ में से केवल चार आरोपी पुलिसकर्मियों ने ही अगस्त 2018 में आत्मसमर्पण किया. दिप्रिंट को मिले अदालती रिकॉर्ड के मुताबिक, सीजेएम के निर्देशों के बावजूद यूपी पुलिस ने अन्य चारों आरोपी पुलिसकर्मियों को अदालत के समक्ष पेश करने के लिए गिरफ्तार नहीं किया.
यह स्थिति भी तब थी जब सीजेएम ने अपने प्रत्येक सम्मन आदेश में यह बात स्पष्ट तौर पर नोट की कि उन्हें इलाहाबाद हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के तहत मुकदमे को समयबद्ध तरीके से पूरा करना है.
अप्रैल 2019 में जारी एक गिरफ्तारी वारंट, जिसमें यूपी के पुलिस महानिदेशक को सीधे तौर पर निर्देशित किया गया था, भी निरर्थक ही साबित हुआ.
सामान्य प्रक्रिया के तहत अदालत में उनकी उपस्थिति सुनिश्चित न हो पाने से नाराज सीजेएम को यूपी प्रशासन को आरोपी पुलिसकर्मियों का वेतन रोकने जैसा सख्त कदम उठाने का निर्देश तक देना पड़ा.
इसके बावजूद चार पुलिसकर्मी फरार रहे. वहीं, राज्य प्रशासन ने भी केवल तीन अधिकारियों के मामले में इस आदेश का पालन किया, जबकि चौथा फरार रहने के दौरान अपना वेतन प्राप्त करता रहा.
बाद में सीजेएम ने 2019 में सेवानिवृत्त फरार डीएसपी का बकाया रोक लेने का आदेश जारी किया, लेकिन पुलिस विभाग ने इस आदेश की भी धज्जियां उड़ाकर रख दीं.
राज्य की तरफ से इस मामले में जिस तरह की ‘ढिलाई’ बरती गई, उसे देखते हुए ही सुप्रीम कोर्ट को इसमें दखल देने के लिए बाध्य होना पड़ा.
प्रवीण के पिता के वकील दिव्येश प्रताप सिंह के मुताबिक, यशपाल सिंह की याचिका पर नोटिस जारी करने के शीर्ष अदालत के 1 सितंबर के आदेश के बाद ही पिछले महीने चार आरोपी पुलिसकर्मियों में से दो को गिरफ्तार किया गया. उन्होंने बताया कि ‘एक (तीसरे अधिकारी) ने आत्मसमर्पण कर दिया है, जबकि चौथा अभी भी फरार है.’
’19 साल से दर-दर की ठोकरें खा रहे’
यशपाल सिंह ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा कि उन्हें अपने बेटे की कथित हत्या के बारे में उसे मार दिए जाने के एक दिन बाद पता चला. अपने आसपास के ग्रामीणों की तरफ से सूचना मिलते ही वह सिकंदराबाद के फिलकनवारी पुलिस स्टेशन पहुंचे, जहां उन्हें शव के पास तक नहीं जाने दिया गया.
यशपाल सिंह ने आरोप लगाया कि जांच समिति के सुझाव पर मामले की जांच अपने हाथ में लेने वाली आपराधिक जांच विभाग की अपराध शाखा ने क्लोजर रिपोर्ट दाखिल कर दी लेकिन उन्हें इसकी कोई प्रति तक नहीं दी. साथ ही आरोप लगाया कि पुलिस ने यह दिखाने के लिए कि प्रति सौंपने का कार्य पूरा हो गया है, उनकी पत्नी के जाली हस्ताक्षर भी कर दिए.
हालांकि, जब यशपाल सिंह को इस बारे में पता चला और उन्होंने क्लोजर रिपोर्ट के खिलाफ तुरंत एक प्रोटेस्ट पिटीशन दायर की.
उन्होंने बताया, ‘मैं 19 साल से दर-दर भटक रहा हूं. मैंने मामले में सुनवाई शुरू होना टालने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने वाले आरोपियों के खिलाफ हर अदालत का दरवाजा खटखटाया है.
इस सबके बीच, यशपाल सिंह और उनके रिश्तेदारों के खिलाफ आगजनी और दंगा करने का मामला भी दर्ज किया गया था, जिसके बारे में उनका आरोप है कि यह उन लोगों को परेशान करने के लिए किया गया था. उन्होंने बताया, ‘इस मामले में भी आगे कुछ नहीं हुआ. मामले में आरोपी के तौर पर नामित दो लोगों को पहले ही मृत्यु हो चुकी है.’
यशपाल सिंह ने कहा कि 2005 और 2007 के बीच आरोपियों ने निचली अदालत को इस बहाने से मामला आगे नहीं बढ़ाने दिया कि हाई कोर्ट की तरफ से सुनवाई पर रोक लगा दी गई थी. जबकि, उन्होंने दावा किया कि स्थगन आदेश केवल एक आरोपी के मामले में जारी किया गया था जिसने सबसे पहले गैर-जमानती वारंट को चुनौती दी थी.
जब यशपाल सिंह ने यह मुद्दा उठाया, तो सह-आरोपियों में से एक अन्य ने मामले को हाई कोर्ट के समक्ष उठाया, जिसने मार्च 2007 में सभी आरोपियों के संबंध में मुकदमे पर रोक लगा दी. 2007 से 2016 के बीच यशपाल सिंह ने यह स्थगनादेश रद्द कराने की अपील के साथ कई बार सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.
यशपाल सिंह ने बताया, ‘मैंने पहली बार शीर्ष अदालत का दरवाजा तब खटखटाया जब हाई कोर्ट ने अप्रैल 2007 में सबसे पहले गैर-जमानती वारंट को चुनौती देने वाले पुलिस अधिकारी की याचिका खारिज कर दी थी. यद्यपि दूसरी याचिका लंबित थी इसलिए ट्रायल कोर्ट में मामला आगे नहीं बढ़ पा रहा था. मैं शीर्ष अदालत से यह स्पष्टीकरण चाहता था कि क्या पहली याचिका खारिज हो जाने के बाद उसी तरह की दूसरी याचिका लंबित रहनी चाहिए. लेकिन मुझे फिर से हाई कोर्ट जाने और इस याचिका का मुद्दा उसके समक्ष उठाने को कहा गया.’
हाई कोर्ट की तरफ से उनकी याचिका को सुनवाई के लिए सूचीबद्ध नहीं किए जाने पर वह बार-बार शीर्ष अदालत का चक्कर काटते रहे. लेकिन हर बार उन्हें हाई कोर्ट में ही जाने को कहा जाता रहा.
नवंबर 2016 में जाकर कहीं शीर्ष अदालत ने हाई कोर्ट को निर्देश जारी किया, जिसने उसके बाद फरवरी 2017 में दूसरे पुलिस अधिकारी की याचिका को भी खारिज कर दिया.
यशपाल सिंह ने कहा, ‘एक साल में मुकदमा निपटाने के सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद आरोपियों ने तमाम बेतुके आवेदन दायर करके इसमें देरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसके बाद मेरे पास इस साल फिर शीर्ष कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था.’
यशपाल सिंह के आरोपों के जवाब में यूपी सरकार ने शीर्ष अदालत के समक्ष एक संक्षिप्त हलफनामा दायर किया, जिसमें कथित रूप से आरोपी पुलिसकर्मियों को बचाने वाले अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई का वादा किया गया था.
यूपी के लिए अतिरिक्त महाधिवक्ता गरिमा प्रसाद ने इसमें कहा कि राज्य इस मामले में हरसंभव कार्रवाई कर रहा है और यह जांच भी की जा रही है कि उचित स्तर पर उपयुक्त कदम क्यों नहीं उठाए गए.
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