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Thursday, 25 April, 2024
होमदेशआरोप तय नहीं, SC में फंसी फाइलें: 11 साल से सुनवाई का इंतजार कर रहा राजस्थान ट्रेन विस्फोट का आरोपी

आरोप तय नहीं, SC में फंसी फाइलें: 11 साल से सुनवाई का इंतजार कर रहा राजस्थान ट्रेन विस्फोट का आरोपी

1993 में राजधानी ट्रेनों में हुए सीरियल बम धमाकों के 16 साल बाद हमीर-उई-उद्दीन को 2010 में गिरफ्तार किया गया था. सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने अजमेर की विशेष सीबीआई अदालत से उसकी सुनवाई में तेजी लाने को कहा.

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नई दिल्ली: आरोपी हमीर-उई-उद्दीन को फरवरी 2010 में करीब 16 साल पहले, 1993 में, राजस्थान में राजधानी एक्सप्रेस ट्रेनों में हुए सीरियल बम धमाकों में उसकी कथित संलिप्तता के लिए गिरफ्तार किया था. इसके बाद से एक दशक से भी अधिक समय बीत जाने के बाद भी उसके मामले में मुकदमा शुरू होना अभी भी बाकी है.

अजमेर की विशेष सीबीआई अदालत, जहां हमीर का मामला पिछले 10 सालों से लंबित है, ने इस मामले में आरोपों पर होने वाली बहस तक नहीं सुनी है, जो कि किसी भी आपराधिक मुकदमे का पहला चरण होता है.

उसकी गिरफ्तारी के तकरीबन नौ साल बाद, 27 मार्च 2019 को, सुनवाई में अत्यधिक देरी के आधार पर हमीर द्वारा दायर जमानत याचिका को भी अदालत ने खारिज कर दिया. इसके बाद उसने इस आदेश को सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी, जिसने विशेष अदालत से इस बारे में रिपोर्ट मांगी कि इस मामले में अभी तक आरोप क्यों नहीं तय किए गए हैं?

शीर्ष अदालत द्वारा जारी किए गये निर्देश के जवाब में अजमेर की अदालत ने 18 अगस्त को अपना पक्ष प्रस्तुत करते हुए कहा कि हमीर के खिलाफ मामला इसलिए अभी तक आगे नहीं बढ़ सका क्योंकि जब वह पहली बार मार्च 2010 में अदालत के सामने पेश हुआ था तो उसके असल रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं थे.

अजमेर के अदालत की रिपोर्ट, जिसे दिप्रिंट ने भी देखा हैं, में कहा गया है कि ये कागजात सुप्रीम कोर्ट के पास थे, जो इन्हीं विस्फोटों के मामले में 15 अन्य सह-आरोपियों की अपील पर सुनवाई कर रहा था. इसके अलावा 2019 तक इस मुकदमे का संचालन करने के लिए कोई लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसेक्यूटर) भी उपलब्ध नहीं था.

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विशेष अदालत के इस प्रतिवेदन के बाद जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने विशेष न्यायाधीश को हमीर की सुनवाई में तेजी लाने का निर्देश दिया और उन्होंने उसके खिलाफ आरोप तय करने के बारे में आदेश पारित करने के लिए दो महीने की अधिकतम सीमा भी निर्धारित की.

इस बीच, अब 46 साल के हो चुके इस आरोपी की जमानत याचिका अभी भी लंबित है और इस पीठ द्वारा दिसंबर में इस पर फिर से सुनवाई की जाएगी.


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‘फरार’ चल रहे हमीर को 2010 में गिरफ्तार किया गया था

यहां यह उलेखनीय है कि 5 और 6 दिसंबर 1993 के बीच की रात को राजधानी एक्सप्रेस की छह ट्रेनों में सिलसिलेवार विस्फोट हुए, जिसमें दो यात्रियों की मौत हो गई थी और 22 अन्य घायल हो गये थे.

इस मामले में 23 लोगों के खिलाफ पांच अलग-अलग प्राथमिकियां दर्ज की गईं थीं और सीबीआई ने दावा किया था कि इनमें से एक आरोपी की मौत हो गई थी जबकि हमीर और सैयद अब्दुल करीम उर्फ टुंडा सहित छह फरार हो गये थे.

इन बम विस्फोटों के 16 साल से भी अधिक समय बाद हमीर को औपचारिक रूप से 2 फरवरी 2010 को उत्तर प्रदेश पुलिस ने लखनऊ में उसके आवास से गिरफ्तार किया था.

इस बीच, उसके पहले 15 अन्य लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका था और फरवरी 2004 में एक निचली अदालत ने उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने 11 मई 2016 को उनकी सज़ा को बरकरार रखा था.

लेकिन, चूंकि हमीर को काफ़ी बाद, फरवरी 2010 में गिरफ्तार किया गया था अतः उसकी हिरासत सीबीआई को स्थानांतरित कर दी गई और बाद में 9 सितंबर 2010 को उसके खिलाफ एक पूरक आरोप पत्र दायर किया गया. इस आरोप पत्र (चार्जशीट) में 160 से अधिक लोगों को गवाह के रूप में नाम दर्ज किया गया है.

दूसरी तरफ उसके परिवार वालों ने सीबीआई के इस दावे का खंडन किया है कि हमीर इन धमाकों के बाद से फरार चल रहा था.

उसके वकील फारुख राशिद ने दिप्रिंट को बताया कि ‘इन बम धमाकों के बाद जब पुलिस ने पहली बार उसके परिवार से मुलाकात की थी, तो उन्होंने आश्वासन दिया था कि उसे गिरफ्तार नहीं किया जाएगा क्योंकि उसके खिलाफ कोई सबूत नहीं है. यही वजह थी कि इस मामले में दायर पहली चार्जशीट के कॉलम नंबर दो में उसका उल्लेख किया गया था, जिसका मतलब यह होता है कि आरोपी के उपर मुक़दमा दायर नहीं किया गया था.’

हमीर की बहन आयशा ने बताया कि जब पुलिस दल जनवरी 1994 में विस्फोटों के बाद पहली बार उनके घर आया था तो उसका भाई मध्य पूर्व देशों में नौकरी के लिए भारत छोड़ चुका था. वह डेढ़ साल बाद लौटा और फिर मुंबई चला गया.

उसने दिप्रिंट को बताया, ‘वह 1999 के आसपास वापस लखनऊ आया और तब से या तो मेरे माता-पिता के साथ या मेरे साथ रह रहा था.’

6 साल से कोई फाइल नहीं, 9 साल से कोई लोक अभियोजक नहीं

सुप्रीम कोर्ट को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में विशेष न्यायाधीश संदीप शर्मा ने कहा कि इस मामले की मूल (असल) फाइल 1 जून 2004 को शीर्ष अदालत को तब भेजी गई थी जब वह फरवरी 2004 में ट्रायल कोर्ट के फ़ैसले के खिलाफ 15 सह-आरोपियों द्वारा दायर अपील पर सुनवाई कर रही थी.

चूंकि शीर्ष अदालत ने 11 मई 2016 को इन अपीलों पर अपना फैसला सुनाया था, इसलिए सीबीआई अदालत को ये फाइल 14 जुलाई 2016 को वापस मिलीं. अतः रिकॉर्ड के अभाव के कारण यह अदालत छह साल तक इन मामले की सुनवाई नहीं कर सकी.

इसके बाद, मुकदमे की शुरुआत में हुई अतिरिक्त देरी हेतु सीबीआई की ओर से बहस करने के लिए किसी भी लोक अभियोजक (सामान्य भाषा में सरकारी वकील) की कमी को जिम्मेदार ठहराया गया है.

रिपोर्ट के अनुसार, ‘इस मामले से संबंधित अधिकारियों को भेजे गये विभिन्न पत्रों के बावजूद, 9 नवंबर, 2010 से लेकर 5 अगस्त 2019 तक केंद्र सरकार द्वारा किसी भी विशेष लोक अभियोजक की नियुक्ति को अधिसूचित नहीं किया गया था.’

आख़िरकार, 5 अगस्त 2019 को भवानी सिंह रोहिल्ला को इस मामले में लोक अभियोजक के रूप में नियुक्त किया गया, लेकिन 11 दिसंबर 2019 और 20 मार्च 2020 के बीच कई बार इस मामले की सुनवाई को स्थगित किया गया था.

विशेष न्यायधीश शर्मा ने दावा किया कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमीर के सह-आरोपी टुंडा को गाजियाबाद की जेल, जहां वह क़ैद था, से पेश नहीं किया गया था और विशेष अभियोजक ने भी इस की तैयारी के लिए वक्त मांगा था.

रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि कोविड-19 महामारी के कारण 2020 में मामले की कोई सुनवाई नहीं हुई थी.

2021 में हुई देरी

2021 में भी इस मामले को सात और बार स्थगित किया गया क्योंकि या तो टुंडा या उसका वकील उपस्थित नहीं था.

इसके बाद इस मामले की सुनवाई कर रहे न्यायधीश के स्थानांतरण ने इसकी कार्यवाही में और देरी की तथा मामले की अगली चार तारीखों पर कोई सुनवाई नहीं हो सकी.

सुप्रीम कोर्ट को दी गई सीबीआई कोर्ट की रिपोर्ट के मुताबिक, हमीर के पास भी ट्रायल कोर्ट में अपना पक्ष रखने के लिए कोई वकील नहीं था. कोर्ट के अनुसार उसके परिवार को एक वकील तय करने के बारे में दो बार सूचित भी किया गया था, लेकिन उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया प्राप्त नहीं हुई.

परंतु, इस बारे में आयशा का कहना है कि उनके परिवार को ऐसे किसी पत्र की कोई जानकारी नहीं है. वह कहती हैं, ‘इसके अलावा, मेरे पिता बिल्कुल अनपढ़ हैं और इसलिए भले ही उन्हें ऐसा कोई पत्र मिला हो, मगर उन्हें इस बारे में कुछ पता नहीं होगा कि आगे क्या करना है अथवा कानूनी औपचारिकताओं को कैसे पूरा करना है.’

आयशा ने बताया कि 2017 में जब उसने स्वयं इस मामले में हस्तक्षेप किया और अपने भाई से संपर्क किया तभी चीजें आगे बढ़ पाईं.

उसके वकील रशीद के अनुसार, हमीर ने आजीवन कारावास की सजा वाले मामले में किसी विचाराधीन कैदी को हिरासत में रखे जाने की अधिकतम अवधि का आधे से अधिक समय बिता लिया है.

2004 के आदेश का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि, ‘वह अब जमानत का हकदार है, असल मामले में भी मुकदमे को समाप्त होने में करीब एक दशक का समय लगा था.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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