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Friday, 15 November, 2024
होमदेशSC ने UAPA में पकड़े गए 3 छात्र कार्यकर्ताओं की ज़मानत को चुनौती देने वाली पुलिस की याचिका खारिज की

SC ने UAPA में पकड़े गए 3 छात्र कार्यकर्ताओं की ज़मानत को चुनौती देने वाली पुलिस की याचिका खारिज की

शीर्ष अदालत की खंडपीठ ने हालांकि, कहा कि 2021 दिल्ली HC के आदेश जिसने देवांगना, कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत दी थी, को मिसाल के तौर पर नहीं माना जाना चाहिए.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को दिल्ली पुलिस की 2021 के दिल्ली हाई कोर्ट के उस फैसले को चुनौती देने वाली अपील को खारिज कर दिया, जिसमें छात्र कार्यकर्ता देवांगना कलिता, नताशा नरवाल और आसिफ इकबाल तन्हा को जमानत दी गई थी. यह तीनों 2020 के पूर्वी दिल्ली दंगों के मामले में कथित संलिप्तता के लिए आतंकवाद के आरोपों का सामना कर रहे हैं.

न्यायमूर्ति संजय किशन कौल की अगुवाई वाली पीठ ने, हालांकि, स्पष्ट किया कि मामले की योग्यता और गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के आवेदन पर अदालत की टिप्पणियों को एक मिसाल के रूप में नहीं माना जाना चाहिए और दंगे के मामले या किसी अन्य कार्यवाही में किसी अन्य अभियुक्त द्वारा उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है.

शीर्ष अदालत ने मंगलवार को कहा कि हाईकोर्ट के आदेश ने यूएपीए अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों की व्याख्या की थी, जबकि ऐसे मामलों में जांच करने के लिए एकमात्र ज़रूरी मुद्दा यह है कि “तथ्यात्मक परिदृश्य में, एक अभियुक्त जमानत का हकदार है या नहीं”.

अदालत ने इसके बाद कहा, “यह वो तर्क है जिसने हमें 18 जून 2021 को नोटिस जारी करते हुए यह देखने के लिए राजी किया कि विवादित फैसले को मिसाल के तौर पर नहीं माना जाएगा और किसी भी अन्य पक्ष द्वारा इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता है.”

अदालत ने मामले को आठवीं बार स्थगित करने की दिल्ली पुलिस के वकील की याचिका को खारिज कर दिया.

बता दें कि तीन छात्र कार्यकर्ताओं को मई 2020 में गिरफ्तार किया गया था और उन पर फरवरी 2020 में हुए पूर्वी दिल्ली दंगों के पीछे “मास्टरमाइंड” होने का आरोप लगाया गया था. तीन दिनों तक चली हिंसा में 53 लोग मारे गए थे और 200 घायल हुए थे.

दिल्ली हाई कोर्ट के 15 जून 2021 के फैसले को जस्टिस सिद्धार्थ मृदुल और अनूप जे भंभानी की पीठ ने सुनाया था. कलिता, नरवाल और तन्हा को ज़मानत पर रिहा करते हुए, अदालत ने यूएपीए के प्रावधानों को यह कहते हुए कमजोर किया था कि इसे भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत आने वाले आपराधिक कृत्यों से निपटने के लिए लागू नहीं किया जाना चाहिए.

पीठ ने दिल्ली पुलिस पर तीन छात्रों के खिलाफ केवल नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए यूएपीए लगाने का आरोप लगाया. हाई कोर्ट ने कहा, “विरोध करने का अधिकार”, मौलिक अधिकारों का हिस्सा था और इसे यूएपीए के तहत “आतंकवादी अधिनियम” के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता था.

तीन दिनों के भीतर 18 जून 2021 को शीर्ष अदालत ने हाई कोर्ट के आदेश को इस हद तक रोक दिया कि यूएपीए पर बाद में दी गई राय को निष्क्रिय कर दिया गया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मामले की खूबियों पर टिप्पणियों को “एक मिसाल के रूप में नहीं माना जाएगा और किसी भी पक्ष द्वारा किसी भी अदालत के समक्ष भरोसा नहीं किया जा सकता है”.

दिल्ली पुलिस की अपील के जवाब में पीठ ने तब भी 100 पृष्ठों के फैसले को आश्चर्यजनक, परेशान करने वाला और व्यापक प्रभाव वाला बताया था. इसने तीन छात्र कार्यकर्ताओं को नोटिस भी जारी किया था, जिसमें उनसे अपील पर अपनी प्रतिक्रिया देने को कहा गया था.


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‘इस मामले को जीवित रखने का कोई उद्देश्य नहीं है’

इस तरह के आदेश के पीछे का विचार राज्य को “जमानत मामले में कानून की घोषणा” के इस्तेमाल के खिलाफ सुरक्षा देना था. इस तथ्य के मद्देनजर कि तीनों लगभग दो साल से ज़मानत पर हैं, पीठ ने कहा, “इस मामले को बनाए रखने का कोई उद्देश्य नहीं दिखता है”.

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि आदेश में उसका अवलोकन एक उदाहरण के रूप में उद्धृत नहीं किया जा रहा है, अन्य सह-अभियुक्तों द्वारा जमानत मांगने के रास्ते में नहीं आएगा.

पीठ ने कहा, “यदि सह-आरोपी समानता की दलील का हकदार है, तो इस पर अदालत को विचार करना चाहिए. हम पुनरावृत्ति की कीमत पर यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि अंतरिम आदेश का उद्देश्य यह था कि ज़मानत मामले में व्याख्या की गई कानूनी व्याख्याओं का उपयोग इन कार्यवाही में, सह-आरोपी या किसी अन्य कार्यवाही में नहीं किया जाना चाहिए.”

इसने कहा, “हम यह स्पष्ट करते हैं कि हम वैधानिक व्याख्या, किसी भी तरह से कानूनी प्रस्ताव में नहीं गए हैं.”

न्यायमूर्ति कौल ने मौखिक रूप से यह भी कहा कि जमानत आदेश को मिसाल के तौर पर कभी भी उद्धृत नहीं किया जा सकता है और इसलिए, कानून की व्याख्या करने की ज़रूरत नहीं है. उन्होंने अदालत को गुमराह करने के लिए वकीलों को दोष दिया.

न्यायाधीश ने टिप्पणी की, “यह सब (कानून की व्याख्या) इसलिए उत्पन्न हो रही है क्योंकि दोनों पक्षों के वकील जमानत मामलों पर बहस कर रहे हैं.”

अदालत ने सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता के हाई कोर्ट के फैसले को रद्द करने के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया, जो सॉलिसिटर की राय में, “विद्वान न्यायाधीश (दिल्ली हाई कोर्ट के)” द्वारा काफी हद तक एक व्यक्तिगत विचार था.

जस्टिस कौल की इस दलील पर कि वकील ज़मानत मामलों पर इस तरह बहस करते हैं जैसे कि वे किसी मामले में अंतिम अभियोजन पर बहस कर रहे हों, मेहता ने कहा कि जज भी ज़मानत याचिकाओं पर इस तरह फैसला कर रहे हैं जैसे कि वे आखिरी फैसले कर रहे हों.

न्यायाधीश ने कहा, “एक जमानत (आदेश) में, सब कुछ देखा जा रहा है. विचार करने का एकमात्र मुद्दा यह है कि क्या किसी व्यक्ति को जमानत पर रिहा करने की आवश्यकता है या नहीं.”

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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