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Monday, 6 May, 2024
होमदेश'2 हिंदू महिलाएं शादी करें और एक मर जाए तो क्या होगा?' समलैंगिक विवाह मामले में SC ने पूछे कई सवाल

‘2 हिंदू महिलाएं शादी करें और एक मर जाए तो क्या होगा?’ समलैंगिक विवाह मामले में SC ने पूछे कई सवाल

सीजेआई का कहना है कि अदालत के सामने चुनौती यह है कि यदि एसएमए के तहत समलैंगिक जोड़ों को दंपती के रूप में माना जाता है, तो इसका मतलब यह है कि भविष्य के मुद्दों को तय करने के लिए 'कई विधायी कदम' उठाने होंगे.

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नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को विशेष विवाह अधिनियम (एसएमए) के तहत गैर-विषमलैंगिक (Non-Heterosexual) जोड़ों के लिए विवाह की समानता की मांग करने वाली याचिकाओं की अनुमति देने पर होने वाले परिणामों पर विस्तृत विचार-विमर्श किया और आश्चर्य व्यक्त किया कि क्या इसकी वजह से भविष्य में उठने वाले संभावित मुद्दों को तय करने में ”बहुत ज्यादा विधायी कदम उठाने होंगे”.

समलैंगिक विवाहों (same-sex marriages) को कानूनी मान्यता देने की मांग वाली याचिकाओं पर सुनवाई के चौथे दिन, पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने इसे लेकर वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी और सौरभ किरपाल से सवाल किए, जो याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश हुए. उन्होंने कहा कि अदालत के समक्ष कानून में वैवाहिक संबंध की अवधारणा को फिर से समझना शामिल है और इसे “lis” (मुद्दे) का फैसला करना चाहिए.

प्रधान न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली इस बेंच में अन्य जज न्यायमूर्ति एस.के. कौल, एस.आर. भट, हिमा कोहली और पी.एस. नरसिम्हा शामिल थे.

गुरुस्वामी ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों ने समलैंगिक जोड़ों को “प्रमुख संरक्षण दिया है”. लेकिन वह प्रमुख सुरक्षा “जीवन के कार्य-व्यवहार के लिए पर्याप्त नहीं है,” उन्होंने जोर देकर कहा कि अदालत को विशेष विवाह अधिनियम (एसएमए) कानून के तहत समलैंगिक विवाह (Same-Sex Marriage) करने के लिए डिक्लेरेशन देना चाहिए.

उन्होंने तर्क दिया कि जबकि यह डिक्लेरेशन पहला कदम है, तो इस डिक्लेरेशन को व्यावहारिक बनाने के लिए दूसरा कदम कुछ व्याख्यात्मक सूची/illustrative list (वे क़ानून, जिसकी व्याख्या अदालत के फैसले से प्रभावित हो सकती है) होगी.

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उन्होंने कहा, “माई लॉर्ड्स कई मामलों में विधायिका में कानून बनने से पहले मार्गदर्शन करते रहे हैं, हम आज कुछ खास नहीं मांग रहे हैं. हम केवल विशेष विवाह अधिनियम की एक व्यावहारिक व्याख्या के लिए कह रहे हैं”.

गुरुस्वामी ने याचिकाओं पर सरकार के विरोध को इस आधार पर चुनौती दी कि इस विषय पर बहस के लिए केवल संसद ही उपयुक्त मंच है. उन्होंने पीठ के सामने दलील दी, “जब हमारे अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है, तो हमें इस अदालत में आने का अधिकार है.”

हालांकि, CJI चंद्रचूड़ ने कहा कि “इस मामले पर कोई सवाल नहींं उठाया जा सकता कि संसद के पास इन याचिकाओं द्वारा कवर किए गए मुद्दों पर हस्तक्षेप करने की शक्तियां हैं”. उन्होंने वकील को याद दिलाया कि विवाह और तलाक संविधान की समवर्ती सूची का हिस्सा हैं, जिसका अर्थ है कि केंद्र और राज्य दोनों सरकारें इस पर कानून बना सकती हैं.

इस बीच, किरपाल ने तर्क दिया कि अदालत के समक्ष मामला विवाह को लेकर समानता के बारे में था. उन्होंने कहा, इस मामले में याचिकाकर्ता, कानून(एसएमए) में विसंगतियों की बात कहकर अपना तर्क दे रहे हैं. राज्य द्वारा विवाह को मान्यता दिए जाने की विफलता स्पष्ट है, जिसका व्यक्ति की गरिमा के साथ-साथ उसके मूल अधिकार पर काफी नकारात्मक और गहरा प्रभाव पड़ता है.

किरपाल ने कहा, “यह बड़ा (स्पष्ट) है. कानून का समलैंगिक जोड़ों पर असमान रूप से प्रभाव पड़ता है.

उत्तराधिकार, विरासत और लैवेंडर विवाह

सीजेआई ने कहा कि अदालत के लिए परीक्षा यह है कि वह कहां तक जा सकती है. उन्होंने पूछा कि क्या अदालत द्वारा एक डिक्लेरेशन का मतलब यह है कि उसे भविष्य में उत्तराधिकार और विरासत जैसे संबंधित मुद्दों से नहीं निपटना होगा, जो कि व्यक्तिगत कानूनों के तहत निपटाए जाते हैं, विशेष रूप से हिंदुओं के मामले में.

सीजेआई चंद्रचूड़ ने कहा,”अगर हम घोषणा करते हैं कि एसएमए में पुरुष और महिला को जीवनसाथी के रूप में पढ़ा जाना चाहिए (समलैंगिक विवाह के मामले में), तो क्या हम आज उस पर रोक लगा सकते हैं? क्या होगा यदि दो हिंदू महिलाओं की शादी (एसएमए के तहत) हो जाती है और उनमें से एक की अप्रत्याशित परिस्थितियों के कारण मृत्यु हो जाती है, जीवित दंपती के पास कुछ भी नहीं बचेगा क्योंकि हिंदू कानून के तहत, पुरुषों और महिलाओं के लिए उत्तराधिकार के अलग नियम हैं.”

उन्होंने आगे यह पूछा कि क्या अदालत आज “इस मुद्दे पर चल रही बहस से जुड़े अन्य मुद्दों पर चर्चा करने से बच सकती है.”

न्यायमूर्ति भट ने इसी पर एक फॉलो-अप सवाल पूछा. उन्होंने गुरुस्वामी से कहा कि उनके तर्क के “सैद्धांतिक आधार” एक आसानी से समझ में आने वाले और “आसानी से प्राप्त करने योग्य लक्ष्य” हैं, जब तक कि अदालत खुद को उस तक सीमित रखती है. लेकिन उन्होंने भी एसएमए की अदालत की व्याख्या के व्यक्तिगत कानूनों पर पड़ने वाले संभावित प्रभाव पर चिंता जताई और उत्तराधिकार कानून जैसे अन्य कानूनों में गैर-विषमलैंगिक (Non-Heterosexual) जोड़ों को समायोजित करने के लिए अदालत को कितनी बार “फॉलो-अप” करना होगा.

जस्टिस भट ने गुरुस्वामी से पूछा, “यह कहना मुश्किल है कि इसे बाद के लिए छोड़ दें. हमें कितनी बार मुकदमेबाजी करनी होगी. तो क्या यह हमारा काम है.”

CJI ने ग्रेच्युटी भुगतान अधिनियम, 1972 का भी उल्लेख किया और कहा कि क़ानून परिभाषित करता है कि कर्मचारी की मृत्यु के मामले में सामाजिक कल्याण वाले लाभों का हकदार कौन होगा. उन्होंने कहा कि अगर याचिकाकर्ता का तर्क है कि लाभ उस विशेष कर्मचारी के समलैंगिक दंपती को दिया जाना चाहिए, तो क्या यह कोर्ट का कर्तव्य नहीं है कि इस बात पर फैसला सुनाए कि कानून किसे लाभ देने की बात करता है?

CJI और न्यायमूर्ति भट दोनों ने कहा कि हालांकि SMA को अंतर-धार्मिक और अंतर्जातीय विवाह के लिए एक विधायी ढांचे के रूप में पेश किया गया था और दंपती को अपने संबंधित परिवारों से संबंध तोड़ने का आश्वासन दिया था, कानून की धारा 21A ने चार समुदायों – हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख – को इस बात की अनुमति दी कि उत्तराधिकार के अधिकारों का प्रयोग वे अपने व्यक्तिगत कानूनों के मुताबिक कर सकते हैं. सीजेआई ने कहा, “इसलिए, एसएमए या पर्सनल लॉ के बीच की कड़ी को खत्म करने से इनकार नहीं किया जा सकता है.”

जब गुरुस्वामी ने स्वीकार किया कि वर्तमान चर्चाओं को एसएमए से परे जाना पड़ सकता है, न्यायमूर्ति भट ने कहा: “आपकी बातें और ज्यादा मुकदमे की ओर इशारा कर रही हैं क्योंकि आपको विश्वास नहीं है कि संसद कुछ भी करेगी.”

उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि क्या अदालत में याचिकाकर्ता वास्तव में पूरे एलजीबीटीक्यू समुदाय के बारे में बात कर रहे थे.

उन्होंने कहा, “ऐसी गैर सुनी गई आवाजें हो सकती हैं जो अपने जीवन के तरीके, परंपरा को बनाए रखना चाहती हैं और वे इसे खत्म नहीं करना चाहते. अगर हम एक कदम आगे बढ़ते हैं, तो क्या हम उन्हें उनके अधिकारों से वंचित नहीं कर देंगे.”

गुरुस्वामी ने इसका जवाब देते हुए कहा कि यह समलैंगिक जोड़ों की पसंद का मामला है. उन्होंने कहा, “जिन्होंने ऑप्ट-आउट करना चुना है, वे ऐसा कर सकते हैं. विकल्पों को सक्रिय रूप से लागू किया जाता है, लेकिन उस विकल्प को रखने की क्षमता होना संवैधानिक सिद्धांत का एक काम है.”

तर्क को आगे बढ़ाते हुए किरपाल ने पीठ से कहा कि उसके सामने यह सवाल है कि (एसएमए की) व्याख्या कितनी व्यावहारिक होगी और अदालत कितनी दूर तक जा सकती है.

“यह हमारे (याचिकाकर्ताओं) के लिए व्यक्तिगत रूप से बहुत मायने रख सकता है. लेकिन दिन के अंत में आप (अदालत) आपके सामने लिस पर चर्चा कर रहे हैं, जो एसएमए के लिए एक चुनौती है. कोर्ट उसके हिसाब से फैसला कर सकता है. यदि कोई भविष्य में हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) के तहत आता है, तो अदालत उस मामले को तय करने के लिए वरीयता के सिद्धांत को लागू कर सकती है.

उन्होंने आगे कहा कि भारत में क्वीर मैरिज को कानूनी मान्यता न देने लैवेंडर मैरिज को बढ़ावा मिल सकता है.

लैवेंडर मैरिज का अर्थ ऐसे विवाह से है जिसमें समलैंगिक जोड़े एक साथ रहते हैं लेकिन इसके बारे में किसी को पता नहीं होता क्योंकि कानून इसकी इजाज़त नहीं देता.

किरपाल ने केंद्र सरकार के तर्क का विरोध करते हुए कहा, “यह नहीं कहा जा सकता है कि चूंकि विधायिका का इरादा नहीं था, इसलिए आपका अधिकार समाप्त हो गया है.”

उन्होंने कहा कि समलैंगिक समुदाय के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना अदालत का संवैधानिक दायित्व है. किरपाल ने कहा कि उन अधिकारों के अपने कुछ परिणाम हो सकते हैं, लेकिन इसका यह अर्थ नहींं कि उन पर बिना विचार के छोड़ दिया जाए.

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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