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Thursday, 25 April, 2024
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माहवारी में स्कूल जाने से क्यों हिचक रही हैं दिल्ली की छात्राएं, सैनिटरी पैड मशीन है कारण

कुछ स्कूलों में 'सैनिटरी नैपकिन निस्तारण’ मशीनके खराब होने संबंधी शिकायतें भी मिली हैं लेकिन स्कूल के प्रधानाचार्यों और अध्यापिकाओं का कहना है कि इनकी मरम्मत के संबंध में कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं हैं.

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नई दिल्ली: दिल्ली सरकार के जनवरी 2021 में अपने स्कूलों के साथ ही निगम के 550 से अधिक विद्यालयों के शौचालयों में ‘सैनिटरी नैपकिन निस्तारण’ मशीन लगाने का निर्देश दिये जाने के सवा साल बाद भी इन मशीनों के इस्तेमाल को लेकर आशंकाएं बरकरार हैं और छात्राएं माहवारी के दिनों में स्कूल जाने से झिझकती हैं. इतना ही नहीं, कुछ स्कूलों में छात्राएं इन मशीनों के इस्तेमाल से हिचकती हैं तो कई स्कूलों में ये मशीनें काम ही नहीं कर रही हैं.

इन छोटी मशीनों में सैनिटरी नैपकिन को डालकर जला दिया जाता है और वह राख में बदल जाता है.

माहवारी से संबंधित स्वच्छता और सैनिटरी नैपकिन का पर्यावरण अनुकूल निस्तारण सुनिश्चित करने के उद्देश्य के साथ शुरू की गई इस पहल के तहत शिक्षा मंत्रालय के परियोजना अनुमोदन बोर्ड (पीएबी) ने सैनिटरी नैपकिन इंसीनरेटर की खरीद और शिक्षा निदेशालय और एमसीडी के 553 स्कूलों के 3,204 शौचालय ब्लॉकों में इन्हें लगाने की योजना बनाई थी. लेकिन स्थिति में कोई बहुत अधिक बदलाव नहीं आया है.

दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका ने नाम न ज़ाहिर करने की शर्त पर माना कि माहवारी के दौरान लड़कियां स्कूल कम आती हैं, क्योंकि यहां मशीन तो लगी हैं, लेकिन उसका उपयोग नहीं किया जाता. वह कहती हैं, ‘हमें खुद ही लड़कियों को नैपकिन को सही तरीके से फेंकने की सलाह देनी पड़ती है.’

इसी सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली 12वीं कक्षा की छात्रा हेमा ने बताया कि वह उन सात से आठ घंटों के दौरान स्कूल में शौचालय का इस्तेमाल नहीं करती. वह कहती है कि स्कूल में साफ-सफाई की सुविधाओं में बढ़ोतरी हुई है, लेकिन सैनिटरी नैपकिन को लेकर वर्जनाएं जस की तस हैं.

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दक्षिणी दिल्ली क्षेत्र के एक सरकारी स्कूल में पढ़ने वाली 11वीं कक्षा की छात्रा स्वाति ने बताया, ‘मशीनें लगी तो हैं लेकिन बार-बार बटन दबाने के बावजूद वे काम नहीं करतीं.’ इसी स्कूल की एक शिक्षिका ने बताया कि कोई छात्रा खुद को नुकसान न पहुंचा ले, इसलिए उन्हें मशीन से दूर रखा जाता है.

दिल्ली सरकार ने अपने आदेश में कहा था कि सबसे पहले मशीनों की जिम्मेदारी किसी लैब तकनीशियन या विज्ञान विषय की शिक्षिका को दी जानी चाहिए और चरणबद्ध तरीके से छात्राओं को इसके इस्तेमाल का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-पांच (एनएफएचएस-5) के आंकड़ों के मुताबिक, स्कूल नहीं जाने वाली 80 प्रतिशत लड़कियां माहवारी के समय कपड़े का उपयोग करती हैं और केवल 32 प्रतिशत लड़कियां सैनिटरी नैपकिन का इस्तेमाल करती हैं. वहीं, स्कूल जाने वाली लड़कियों में यह आंकड़ा, क्रमश: 35.6 और 76.8 प्रतिशत है.

इन मशीनों के इस्तेमाल के संबंध में पूर्वी दिल्ली के एक सरकारी स्कूल की प्रधानाचार्य बीना ने बताया कि मशीनें लगने के बावजूद छात्राएं माहवारी के दिनों में छुट्टी ले लेती हैं.

हालांकि कुछ स्कूलों में इन मशीनों के खराब होने संबंधी शिकायतें भी मिली हैं. लेकिन स्कूल के प्रधानाचार्यों और अध्यापिकाओं का कहना है कि इनकी मरम्मत के संबंध में कोई स्पष्ट दिशानिर्देश नहीं हैं.

दिल्ली शिक्षा निदेशालय के एक जोन के निदेशक ने नाम न छापने की शर्त पर ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘आदेश के मुताबिक, मशीनें निर्धारित समय पर लगवा दी गई थीं. इसके बाद अब मशीनों का सारा काम-काज देखना संबंधित स्कूल के प्रधानाचार्य की जिम्मेदारी हैं.’

यह अलग मुद्दा है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दिल्ली सरकार की ‘किशोरी योजना’ के तहत छात्राओं को नि:शुल्क दिए जाने वाले सैनिटरी पैड, पिछले काफी समय से उपलब्ध नहीं कराए जा रहे हैं जिसे लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में गैर सरकारी संगठन ‘सोशल ज्यूरिस्ट’ ने एक याचिका भी दायर की थी.

एनएफएचएस-5 रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 15-19 साल के आयुवर्ग की 64.5 प्रतिशत लड़कियां सैनिटरी नैपकिन, 49.3 प्रतिशत लड़कियां कपड़ा, 15.2 प्रतिशत लड़कियां स्थानीय रूप से तैयार नैपकिन, 1.7 प्रतिशत लड़कियां टैम्पोन और 0.3 प्रतिशत महिलाएं मेंस्ट्रुअल कप का इस्तेमाल करती हैं. कुल मिलाकर इस आयुवर्ग की 78 प्रतिशत लड़कियां माहवारी के दौरान एक स्वच्छ विधि अपनाती हैं जबकि एनएफएचएस-4 में यह आंकड़ा 57.7 प्रतिशत था.

यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेंट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.


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