समकालीन कविता की दुनिया में दो ऐसे कवि नज़र आते हैं जिन्होंने खुलकर सत्ता की मुखालफत की और अपने तेजस्वी शब्दों से जो प्रभाव पैदा किया, वो अपने आप में जमानों तक याद किया जाएगा. न केवल जुझारूपन को लेकर बल्कि साहित्यिक और पैने सामाजिक दृष्टिकोण को लेकर भी. ये दोनों कवि हैं- बाबा नागार्जुन और रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’. दोनों में यूं तो कई समानताएं हैं लेकिन एक समानता जो दोनों को काफी करीब लाकर खड़ी करती है वो है दोनों का ही दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) से ताल्लुक.
लेकिन आज बात रमाशंकर यादव विद्रोही की, जिन्होंने उत्तर प्रदेश के एक गरीब गांव से निकलकर दिल्ली जैसे बड़े शहर के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में पढ़ने का ख्वाब पाला, भले ही वो पूरा नहीं हो पाया लेकिन जेएनयू कैंपस से उनका नाता जिंदगी के आखिरी दम तक रहा.
विद्रोही अक्खड़, फक्कड़ और मनमौजी किस्म के व्यक्तित्व की एक समकालीन मिसाल हैं जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी छात्रों के बीच बिता दी. छात्रों के प्रदर्शनों में वे न केवल शामिल होते बल्कि अपनी कविताओं से प्रदर्शनों में जान-फूंक देते. तभी तो वो कहते- ‘जेएनयू मेरी कर्मस्थली है. मैंने यहां के हॉस्टलों में, पहाड़ियों और जंगलों में अपने दिन गुज़ारे हैं’.
विद्रोही का जन्म 3 दिसंबर 1957 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के आहिरी फिरोजपुर गांव में हुआ था. उन्होंने उत्तर प्रदेश से ही एलएलबी (कानून की पढ़ाई) करनी चाही लेकिन उसे पूरा नहीं कर सके. जिसके बाद वे स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए 1980 के करीब जेएनयू आए और उसके बाद आखिर तक यहीं रहे. 1983 में एक छात्र आंदोलन के दौरान विश्वविद्यालय प्रशासन ने उन्हें निष्कासित कर दिया था लेकिन उन्होंने कैंपस छोड़ने से इनकार कर दिया.
रमाशंकर यादव का विद्रोही बनने का सफर भी काफी दिलचस्प है. विद्रोही स्वर की कविताओं ने उन्हें ये उपनाम दिया जो उनकी आखिरी सांस तक बना रहा. उनकी मृत्यु के 7 साल बाद भी 2022 में विद्रोह और क्रांति की कविताओं के वे प्रतीक बने हुए हैं और उनकी कविताओं का असर आज भी लोगों के बीच है. खासकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच.
जेएनयू छात्र संघ की पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में सीपीआई(एमएल) की केंद्रीय कमिटी की सदस्य सुचेता डे दिप्रिंट को बताती हैं, ‘गंगा ढाबा उनका स्थायी पता था और वे सभी कॉमरेड्स को हक से अपना मानते थे.’
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वाचिक परंपरा के कवि
विद्रोही वाचिक परंपरा के कवि थे जिनका कविताएं सुनाने का अंदाज एकदम ही निराला था. यूट्यूब पर उनकी कई कविता-पाठ करती हुई वीडियो मिल जाएंगी जिसमें वे मगन होकर अपनी भावनाएं बड़े ही ओजस्वी ढंग से प्रकट करते हुए दिखते हैं. इन्हीं कारणों के चलते वे छात्रों के बीच काफी लोकप्रिय थे. हिन्दवी वेबसाइट के अनुसार कविताओं में प्रकट प्रगतिशील चेतना उन्हें जनसंवाद और प्रतिरोध का कवि बनाती थी.
जिस व्यक्ति ने अपनी जिंदगी के सबसे अहम साल जेएनयू कैंपस में छात्रों के बीच बिताए हों और बौद्धिक संस्कारों के बीच पला बढ़ा हो, उसके भीतर की जनचेतना और जनसरोकारों से जुड़ने की ललक स्वाभाविक ही थी.
विद्रोही की सिर्फ एक ही किताब छपी है जो कि साल 2011 में ‘नई खेती’ काव्य संग्रह के रूप में आई. उन पर ‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ नाम से डॉक्यूमेंट्री भी बनी है जो कि काफी चर्चित है. इस डॉक्यूमेंट्री को पुरस्कार भी मिला है. जब इसके निर्देशक नितिन पनमानी को ये अवार्ड मिला तो इसके तहत मिले पैसे को उन्होंने तुरंत विद्रोही को दे दिए.
दिल्ली का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र आंदोलन के लिए काफी जाना जाता है. खासकर वामपंथी आंदोलनों का वो केंद्र रहा है. ऐसे में विद्रोही जो खुद भी इसी तेवर की कविताएं लिखते थे, तो वे भी वाम आंदोलनों में खुलकर भाग लेते थे. 2015 में जेएनयू के ऑक्युपाई यूजीसी आंदोलन के दौरान वो काफी सक्रिय थे. यूजीसी की ओर से नॉन नेट फेलोशिप बंद करने के प्रस्ताव को लेकर छात्र आंदोलन कर रहे थे. लेकिन जंतर-मंतर में आयोजित विरोध मार्च से लौटकर जब विद्रोही कैंपस आए तो अचानक उनकी तबीयत बिगड़ी और नींद में ही उनकी मृत्यु हो गई.
विद्रोही का विद्रोही तेवर नींद में ही थम गया लेकिन शब्दों का असर जो वो पैदा करते थे, वे तब से कहीं भी नज़र नहीं आता.
विद्रोही प्रगतिशील धारा के व्यक्ति थे जिन्होंने समाज से कई धार्मिक विश्वासों, जेंडर को लेकर होने वाली असमानताओं और आर्थिक गैर-बराबरी को लेकर मुखरता से अपनी आवाज़ उठाई और आवाम के बीच उसे अपनी कविताओं के जरिए ले जाने का प्रयास किया.
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जनपक्षधरता के प्रतीक
रमाशंकर विद्रोही को कविताएं कहने और आवामी हुकूकों के लिए खड़े होने के अलावा कुछ और नहीं आता था. इसलिए उन्होंने अपनी जिंदगी कुछ इस तरह चुनी कि उसका बड़ा हिस्सा जेएनयू कैंपस के भीतर ही सिमटा रहा. लेकिन कैंपस में अपने विचारों, ख्वाबों और प्रतीकों के सहारे जो उन्होंने हकीकत बयान की, उसने उन्हें कैंपस का सितारा बनाए रखा.
जिस जेएनयू ने उन्हें छात्र के रूप में स्वीकार नहीं किया वहीं वो आजीवन रहे और उन्होंने घोषणा कर दी वो यहां से नहीं जाएंगे. उनके अल्हड़पन की ही मिसाल है कि वो बड़े ही ठसक और आत्मविश्वास से कहते हैं: मैं किसान हूं / आसमान में धान बो रहा हूं….
विद्रोही के बारे में एक बात जो काफी लोकप्रिय है वो ये है कि कविताएं लिखने के लिए उन्हें कभी कॉपी कलम की जरूरत नहीं पड़ी. वे अपने मन में कविताओं को गढ़ते और धारा प्रवाह अपनी कविताओं का पाठ करते.
विद्रोही जब तक जेएनयू कैंपस में रहे तब तक वहां होने वाले विरोध प्रदर्शनों में वे जरूर जाते और सत्ता को अपनी बुलंद आवाज़ में ललकारते. वहीं वो जिंदगी की हकीकत भी जानते थे, तभी तो उन्होंने लिखा था- हर जगह नरमेध है / हर जगह कमजोर मारा जा रहा है, खेद है.
विद्रोही की कविताएं वंचितों और शोषितों के घावों की अभिव्यक्ति है. उनकी दशा का आख्यान है. लेकिन विडंबना और दुर्भाग्य है कि उनकी कविताओं का मयार वैश्विक होते हुए भी वो अपने ही देश के लोगों तक ठीक से नहीं पहुंच सका. विद्रोही जेएनयू के होकर ही हमेशा रह गए और उनकी रचनाएं, उनका स्वर, उनका विद्रोही तेवर जेएनयू की झाड़ियों, पहाड़ियों, शिलाओं से ही टकराती रह गईं.
विद्रोही के स्वर उनकी ‘औरत’ नाम की कविता में जिस तौर पर प्रस्फुटित हुए हैं, उसका कोई मुकाबला नहीं है. वो जिस ढंग से सामाजिक कठिनाइयों और बंधनों को तोड़ते हुए महिलाओं के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं, वो उनकी इन पंक्तियों से झलकता है-
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी,
जिसे सबसे पहले जलाया गया,
मैं नहीं जानता,
लेकिन जो भी रही होगी,
मेरी मां रही होगी
विद्रोही का जीवन भदेस रूप में कविता करते हुए बीता जिसका हासिल छात्रों और लोगों का उनके प्रति असीम लगाव है.
विद्रोही की कविता ‘मोहनजोदड़ो की आखिरी सीढ़ी’ उस सभ्यतागत अपराधों को लेकर प्रश्न उठाती है जो सदियों से चला आ रहा है. वे बतौर कवि पुकारते हुए कहते हैं कि वे मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी से बोल रहे हैं जिस पर एक औरत की जली हुई लाश पड़ी है. वे इतिहास में हुए गुनाहों को बर्बरता से कुरदते हैं और विश्व की तमाम पुरानी सभ्यताओं को टटोलते हैं.
वे अपने सफर में सवाना के जंगलों से लेकर सीथिया की चट्टानों और बंगाल के मैदानों तक से होकर गुजरते हैं और सवाल करते हैं कि जिस औरत की लाश मिली है वो किसी की मां, बहन, बेटी या बीवी हो सकती है.
विद्रोही इतने भर तक ही नहीं रुकते बल्कि वो दुनिया के तमाम साम्राज्यों के तहत बनाए गए गुलामों से आह्वान करते हैं कि सारी दुनिया के गुलामों को इकट्ठा करके एक दिन रोम जरूर जाएंगे.
विद्रोही कहते हैं पितृसत्ता इतिहास की देन है जब जमदग्नि के कहने पर परशुराम ने अपनी मां को मार दिया. लेकिन वे कहते हैं कि हर सभ्यता के मुहाने पर एक औरत की जली हुई लाश और इंसानों की बिखरी हुई हड्डियां पड़ी मिल जाती है.
वहीं रमाशंकर विद्रोही बतौर कवि खुद को बचाने पर जोर देते हुए कहते हैं कि मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी पर जो औरत पड़ी है उसको बचाने के लिए उन्हें बचाना जरूरी है. यानी कि इतिहास की बर्बरताओं के खिलाफ वो डटकर खड़े हो जाते हैं और कहते हैं अपने पुरखों, बच्चों और इंसानों को बचाने के लिए सबसे जरूरी है कि तुम मुझे बचाओ क्योंकि मैं तुम्हारा कवि हूं.
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जेएनयू का असल कॉमरेड
रमाशंकर विद्रोही यूं तो कविताएं लिखते और उसे प्रदर्शनों में सुनाते लेकिन वामपंथी विचार से उनका लगाव किसी से छुपा नहीं था. वे अक्सर मार्क्स की बातों को उद्धृत करते नज़र आ जाते थे. वे ब्रेख्त की मशहूर कविता को उद्धृत करते हुए कहते, ‘कम्युनिज्म कोई पागलपन नहीं है बल्कि ये पागलपन का अंत है.’
डे बताती हैं, ‘जब हम जेएनयू कैंपस में आए तो दुनिया बदल देने के ख्वाब के साथ आए और विद्रोही की कविताओं की उसमें बेहद महत्वपूर्ण भूमिका थी. उनकी कविताओं में प्रतिरोध का गहरा स्वर और अलग दुनिया की चाहत थी.’
विद्रोही की दिनचर्या सुबह की चाय से शुरू होती और उसके बाद गंगा ढाबा उनकी पसंदीदा जगहों में से थी, जहां वे अक्सर बैठा करते. गंगा ढाबा जेएनयू का वो स्थान है जहां राजनीतिक-सामाजिक चर्चाएं काफी आम हैं और छात्र चाय की चुस्कियों के सहारे विश्वभर के मुद्दों पर बात कर लेते हैं.
जेएनयू के जंगलों में लंबा समय बिताने के बाद विद्रोही ने छात्र संघ के दफ्तर को अपना पता बना लिया था. रात को वो वहीं सोते. कैंपस के छात्र मानते थे कि उनका जीवन काफी अस्त-व्यस्त था लेकिन उनके जीवन पर बनी डॉक्यूमेंट्री ‘मैं तुम्हारा कवि हूं’ में विद्रोही कहते हैं, ‘अगर ऐसा लगता है कि विद्रोही का जीवन अस्त-व्यस्त भरा है तो मैं मानता हूं कि मेरी जिंदगी काफी अनुशासित है. मैं कड़े अनुशासन का पालन करता हूं. मैं अंतरराष्ट्रीय अनुशासन वाला व्यक्ति हूं जो कि अंतरराष्ट्रीय विचारों के स्कूल से आया है.’
फक्कड़ कवि होने के अलावा विद्रोही अपनी जिंदगी में चाहत भी रखते थे. जब उनकी कविताएं बीबीसी हिंदी में छपी तो उन्होंने उसकी प्रतियां निकालकर छात्रों में बांटी. वो चाहते थे कि उनकी कविताएं लोगों के बीच जाएं.
2015 में जब कन्हैया कुमार जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष बनें तो विद्रोही उनके पास गए और उनसे कहा कि मैं अब एक और साल बिना किसी डर के छात्र संघ के दफ्तर में रह सकता हूं. जिस पर कन्हैया ने कहा था कि वो यहां हमेशा के लिए रह सकते हैं.
जेएनयू कैंपस को अपना जीवन बना चुके विद्रोही एक सर्व-स्वीकार्य व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपनी जिंदगी तो कविता के नाम कर दी लेकिन उससे जो असर पैदा किया वो आज भी लोगों के बीच जिंदा है और आने वाले समय में भी जिंदा रहेगा.
सुचेता डे कहती हैं, ‘विद्रोही सिर्फ एक व्यक्ति नहीं है बल्कि एक विचारधारा है और एक साझी कल्पना के प्रतीक हैं. जब तक जेएनयू अपनी प्रगतिशील धारा के साथ आगे बढ़ता रहेगा तब तक विद्रोही जीवित रहेंगे, ठीक वैसे ही जैसे कॉमरेड चंदू और गोरख पांडे हैं.’
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