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Saturday, 21 December, 2024
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राम मंदिर ‘भारतीय मुसलमानों के लिए अत्याचार को खारिज करने का सुनहरा मौका’ है, हिंदू दक्षिणपंथी प्रेस ने लिखा

पिछले कुछ हफ़्तों में हिंदुत्व समर्थक लेखकों ने समाचारों और सामयिक मुद्दों पर किस तरह की टिप्पणी की, दिप्रिंट राउंड-अप.

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नई दिल्ली: ऑर्गेनाइज़र ने हाल ही में अपने संपादकीय में कहा कि राम मंदिर का उद्घाटन भारत के मुसलमानों के लिए सच्चाई को स्वीकार करने और स्वतंत्रता के बाद के भारत में “इस्लामवादी-धर्मनिरपेक्ष समूह” द्वारा प्रचारित “बौद्धिक विश्वासघात” (Intellectual Treachery) को खारिज करने का एक “सुनहरा अवसर” है.

अयोध्या में राम लला की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा के एक पखवाड़े बाद 5 फरवरी को प्रकाशित संपादकीय कहता है कि भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की 850 पेज की रिपोर्ट ने “इस्लामवादियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों के सभी संभावित तर्कों को कमजोर कर दिया है.”

संपादकीय में कहा गया है कि जबकि महमूद गज़नवी और मुहम्मद गोरी से लेकर औरंगजेब तक “इस्लामी शासकों” का इतिहास लंबा और दर्दनाक – बार-बार हमले और अपमान के साथ – रहा है, फिर भी “धर्मनिरपेक्षता की नकली अवधारणा” ने इस पर पर्दा डालने की कोशिश की है.

इसमें कहा गया है, “इस गलत बयानी के कारण, भारत के मुसलमान, जिनके पूर्वज हिंदू थे और आक्रमणकारियों की हिंसक और अत्याचारी नीतियों के शिकार हुए, ने खुद को आक्रमणकारियों की सर्वोच्चतावादी विचारधारा से जोड़ना शुरू कर दिया.”

यह तर्क देते हुए कि वाराणसी में ज्ञानवापी संरचना पर चल रहा कानूनी विवाद भारतीय मुसलमानों के लिए एक “लिटमस टेस्ट” है, लेख में कहा गया है कि उन्हें एम.सी. चागला द्वारा दी गई सलाह पर ध्यान देना चाहिए, जिन्होंने 1947 से 1958 तक बॉम्बे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य किया. संपादकीय के अनुसार, चागला, जो खुद एक मुस्लिम थे, ने अल्पसंख्यक समूह से कहा था कि “वोट-बैंक के लिए कांग्रेस द्वारा जारी अल्पसंख्यक राजनीति में न फंसें.” और स्वीकार करें कि उन्हें भी ‘वही परंपरा और रीति-रिवाज़ विरासत में मिले हैं.”

संपादकीय का निष्कर्ष है कि यह “हिंदू-मुस्लिम विवाद को स्थायी रूप से हल करने का रास्ता साफ करेगा”.

राम मंदिर का उद्घाटन राजनीतिक था, इसलिए इसका विध्वंस भी राजनीतिक था

9 फरवरी को द इंडियन एक्सप्रेस में पूर्व राज्यसभा सांसद बलबीर पुंज के ऑप-एड में भी राम मंदिर के मुद्दे को ही प्रमुखता से दिखाया गया.

अपने लेख में, पुंज ने उस आलोचना का जवाब देने की कोशिश की जिसमें पिछले महीने हुए राम मंदिर के उद्घाटन के बयान को राजनीतिक बताया गया था. उन्होंने 9 फरवरी को द इंडियन एक्सप्रेस में एक ऑप-एड में तर्क दिया कि यदि वास्तव में ऐसा मामला है, तो एक इस्लामी आक्रमणकारी द्वारा “राम मंदिर” का विध्वंस और स्वतंत्रता के बाद भारत में इसके पुनर्निर्माण का विरोध भी राजनीतिक ही था.

पुंज ने इस बात के समर्थन में दो ऐतिहासिक शख्सियतों का जिक्र किया. सबसे पहले, उन्होंने एक प्रसिद्ध अंग्रेजी इतिहासकार अर्नोल्ड टॉयनबी के बारे में लिखा, जिन्होंने 19वीं शताब्दी में पोलैंड की राजधानी वारसॉ पर कब्ज़ा करने के बाद रूसियों द्वारा एक चर्च बनाने और अयोध्या, मथुरा व काशी में तीन मस्जिदों के निर्माण के बीच समानता दर्शायी थी. उन्होंने लिखा कि रूस द्वारा चर्च का निर्माण इसलिए करवाया गया था ताकि “यह लगातार प्रदर्शित किया जा सके कि रूसी अब उनके मालिक हैं.”

पुंज ने टॉयनबी को यह कहते हुए उद्धृत किया: “उन तीन मस्जिदों का उद्देश्य यह बताना था कि एक इस्लामी सरकार ही सर्वोच्च सत्ता है, यहां तक कि हिंदू धर्म के सबसे पवित्र स्थानों पर भी.”

इसके बाद वह महात्मा गांधी का जिक्र करते हैं, जिन्होंने 1919 और 1931 के बीच प्रकाशित अपनी साप्ताहिक पत्रिका यंग इंडिया में लिखा था: “किसी की अनुमति के बिना उसकी ज़मीन पर बनी मस्जिदों के सवाल का जवाब बिल्कुल सरल है. यदि कोई भूमि आपकी है और कोई और उस पर कुछ भी बनाता है चाहे वह मस्जिद ही क्यों न हो, तो आपको सबसे पहले उस संरचना को ढहाने का अधिकार है.


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पाकिस्तान के साथ झगड़ने का यह सही समय नहीं

दक्षिणपंथी विचारधारा वाले लेखक और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में अंग्रेजी के प्रोफेसर मकरंद परांजपे ने इस महीने की शुरुआत में हुए पाकिस्तान के नेशनल असेंबली चुनावों पर फोकस किया.

जबकि 9 फरवरी को हुए चुनावों में किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हुआ, पर पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ अंततः फिर से एक बार प्रधानमंत्री बने की दौड़ में सबसे आगे दिखे.

मकरंद परांजपे ने 16 फरवरी को ओपन मैगज़ीन में अपने लेख में इमरान खान की वापसी की वकालत करते हुए लिखा कि ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के लोग अपने देश की मूलभूत विचारधारा – भारत और हिंदुओं से नफरत – को खारिज कर रहे हैं.

उन्होंने लिखा, “ऐसा प्रतीत होता है कि वे अंततः यह स्वीकार कर रहे हैं कि उनके असली दुश्मन “कुलीन वर्ग के स्वार्थी शासक और सेना” हैं, न कि भारत और हिंदू.”

परांजपे ने लिखा, इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि इमरान खान की लोकप्रियता ने “एक राजनीतिक ताकत पैदा की है, यहां तक कि एक आंदोलन भी, जिसे दबाया नहीं जा सकता, या आसानी से ठंडे बस्ते में नहीं डाला जा सकता.”

उन्होंने लिखा, यदि खान पाकिस्तान में चीजों को बदलने में कामयाब होते हैं – जिसमें आईएसआई और अन्य राज्य व गैर-राज्य तत्वों को उनकी भारत विरोधी गतिविधियों से दूर रखना शामिल है – “तो संबंधों का क्रमिक रूप से बेहतर होना निश्चित रूप से संभव है.”

उन्होंने लिखा, “भारत को इंतजार करना चाहिए, देखना चाहिए और – हां – स्थिति से जो भी लाभ मिल सकता है उसे छोड़ना नहीं चाहिए. इस बार जो बात सुकून देने वाली है वह यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार, चुनावी दौर में होने के बावजूद, ऐसा करने में सक्षम है.”

समान नागरिक संहिता की ज़रूरत

दिल्ली के इंद्रप्रस्थ महिला महाविद्यालय के सहायक प्रोफेसर आरिफ खान भारती ने 12 फरवरी को पांचजन्य में अपने लेख में समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की आवश्यकता पर बल दिया.

यह लेख समान नागरिक संहिता कानून पारित करने वाले उत्तराखंड के पहले राज्य (पुर्तगाली विरासत वाले गोवा को छोड़कर) बनने के कुछ दिनों बाद पब्लिश हुआ. गौरतलब है कि यूसीसी दशकों से संघ परिवार के एजेंडे में रहा है.

अपने लेख में भारती ने आश्चर्य जताया कि जो लोग खुद को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं वे यूसीसी का विरोध कैसे कर सकते हैं.

उन्होंने पूछा, क्या सभी पर लागू होने वाले आपराधिक कानूनों में समानता होने के बावजूद अलग-अलग धार्मिक कानून होना “कानून के समक्ष समानता का खुला उल्लंघन” नहीं है.

वे लिखते हैं, ”दुनिया के 125 देशों में लड़के-लड़कियों की शादी की उम्र एक ही है यानि सबके लिए एक जैसे नियम हैं. कुछ देशों में, यह 20 या 21 वर्ष है. हमारे यहां पंथनिरपेक्षता पश्चिम की तरह राज्य और मजहब के टकराव एवं तटस्थता पर आधारित नहीं है, बल्कि यह विविधता भरे समाज में सभी मत-पंथों के सहअस्तित्व और बंधुत्व पर आधारित है.”

(इस लेख को कॉलम में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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