नई दिल्ली: जर्मनी के प्रोफेसर योआखिम बाउत्ज़े लगभग 40 साल पहले भारतीय शास्त्रीय संगीत की वजह से भारत आए थे, लेकिन यहां आकर उन्हें राजस्थान के शाही भित्तिचित्रों से गहरा लगाव हो गया. अब ये भित्तिचित्र उनके पूरे शैक्षणिक जीवन का मुख्य हिस्सा हैं.
30 अक्टूबर को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में दिए अपने लेक्चर में बाउत्ज़े ने बताया कि 40 साल पहले इन भित्तिचित्रों को ढूंढना बहुत मुश्किल था. उन्होंने कहा, “मैंने एक सर्वे किया था. इन भित्तिचित्रों को खोजने में मुझे ढाई साल लग गए. उन दिनों सड़कें भी बहुत खराब थीं.”

अपने लगभग 50 मिनट के लेक्चर में उन्होंने बादल महल के प्रसिद्ध भित्तिचित्रों पर बात की. इन भित्तिचित्रों को पहली बार 1986 में सामने लाया गया था. आज इन्हें राजस्थानी चित्रकला की सबसे शुरुआती और सबसे रचनात्मक कृतियों में माना जाता है.
कला इतिहासकार ज्योतिंद्र जैन ने बताया कि 1610-1620 के समय के ये भित्तिचित्र अपने जीवंत रंगों और ऐतिहासिक महत्त्व के कारण बेहद खास हैं. राजस्थान की कला में इनकी तुलना सिस्टिन चैपल से भी की जाती है. व्याख्यान सुनने आए लोगों में कई इतिहास और कला प्रेमी शामिल थे.
जैन ने बताया कि बाउत्ज़े, बूंदी और कोटा की भित्तिचित्र एवं लघु चित्रकला पर किए गए अपने काम के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने सैन फ्रांसिस्को और ब्रुसेल्स के संग्रहालयों में भारतीय चित्रकला की प्रदर्शनियों का संयोजन भी किया है.
उन्होंने यह भी कहा कि बाउत्ज़े का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रागमाला विषय पर बनी चित्र शृंखलाओं की पहचान और दस्तावेज़ीकरण है. यह आगे चलकर राजस्थानी चित्रकला में सबसे लोकप्रिय विषय बन गया.

दीवारों पर बनी कहानियां
बाउत्ज़े का लेक्चर, बूंदी और कोटा में भित्तिचित्रों पर किए गए उनके दशकों पुराने शोध पर आधारित था. उन्होंने पहले भी कई बार कहा है कि कोटा की कला सबसे बेहतरीन है.
लेकिन वे इन भित्तिचित्रों की खराब होती हालत से दुखी हैं. उन्होंने कहा, “आज सड़कें तो अच्छी हैं, लेकिन दीवारों पर बने पुराने चित्र गायब हो चुके हैं.”
उन्होंने मुगल काल के चुनार (वाराणसी के पास) में बने कुछ चित्र भी दिखाए. उन्होंने बताया कि हुमायूं के साथ भारत आए मीर सैय्यद अली और अब्दुस समद ने फारसी और भारतीय शैलियों को मिलाकर मुगल चित्रकला की नींव रखी.

बाउत्ज़े ने बादल महल के अंदर के वो चित्र दिखाए जो उन्होंने कई साल पहले कैमरे में कैद किए थे— जैसे पुष्पक विमान में राम-सीता-लक्ष्मण, आकाश में उड़ते रथ पर कृष्ण और पूर्णिमा की रात गोकुल की गोपियों के साथ नृत्य करते कृष्ण.
उन्होंने कहा, “दीवारों पर शिकार के सारे दृश्य बने थे, लेकिन 20 साल बाद जब मैं फिर गया, तो उन चित्रों में जानवर गायब हो चुके थे.”
बाउत्ज़े ने बताया कि बूंदी में पेंटिंग बनाने के लिए स्क्रंच नेट नाम की विशेष तकनीक इस्तेमाल होती थी, जो पहले राजस्थानी वास्तुकला में कभी नहीं देखी गई थी. यह तकनीक इस्लामी वास्तुकला में भी मिलती है.
उन्होंने यह भी कहा कि इन पेंटिंग्स को किसने बनाया, इस बारे में कोई भरोसेमंद जानकारी उपलब्ध नहीं है.
उन्होंने माना कि इन भित्तिचित्रों पर यूरोप और मुगल कला दोनों का प्रभाव दिखाई देता है. उन्होंने कहा, “इनमें यूरोप जैसी बड़ी मानवीय आकृतियां हैं और मुगल शैली की झलक भी साफ है.”
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