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Saturday, 14 December, 2024
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‘हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’- कैसे राज कपूर के ‘पुश्किन’ बन गए गीतकार शैलेंद्र

शैलेंद्र की लेखनी पूरी तरह कवि धर्मिता के अनुरूप थी. उसमें समकालीन मुद्दों की झलक थी, संघर्षों की आवाज थी, गरीबी का दर्द था, प्यार की तड़प थी और भविष्य के लिए आशा थी.

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भारत की आजादी के बाद जिस तरह सिनेमा ने व्यापक रूप लिया उसी तरह संगीत और गीत की अहमियत भी फिल्मों में बढ़नी शुरू हुई. 1950 के बाद तो ऐसा दौर आया जब फिल्मों की कामयाबी में गीत जरूरी बन गए और गीतों के फिल्मांकन शैली पर विशेष जोर दिया जाने लगा.

गीतों के बोल और लेखन शैली ने बड़े पर्दे पर अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का व्यक्तित्व गढ़ने में भूमिका निभाई. लेकिन उस समय के गीतों पर उर्दू जबान का असर ज्यादा था जिसे साहिर लुधियानवी, कैफ़ी आज़मी, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे शायर और गीतकारों ने गढ़ा था.

लेकिन उसी बीच लोक परंपरा, संघर्ष में पले बढ़े, गरीबी और दुखों को झेलते हुए शैलेंद्र ने हिन्दी सिनेमा के गीत लिखने शुरू किए जो भाषायी सरलता, सहजता, भावनात्मकता और जीवन को समेटने के कारण लोगों से ज्यादा असरदार तौर से जुड़ गए.

शैलेंद्र की लेखनी पूरी तरह कवि धर्मिता के अनुरूप थी. उसमें समकालीन मुद्दों की झलक थी, संघर्षों की आवाज थी, गरीबी का दर्द था, प्यार की तड़प थी और भविष्य के लिए आशा थी.

वामपंथी रुझान के कारण कवि शैलेंद्र पर समाज और उसकी समस्याएं हावी रहीं. वो कभी भी अपने मूल से कटते हुए नज़र नहीं आए. उनकी कविताएं जिस पर कम चर्चा की गई है- उनमें उन्होंने बंटवारे का दर्द, जोर-जुल्म के खिलाफ आवाज और जीवन की हकीकत को बयां करती हैं.

कवि और गीतकार शैलेंद्र की 98वीं जयंती पर दिप्रिंट उनके जीवन सफर पर एक नज़र डाल रहा है.


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‘हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’

30 अगस्त 1923 को रावलपिंडी (आज का पाकिस्तान) में जन्मे शैलेंद्र का बचपन काफी संकटों के बीच बीता. उनका परिवार काम की तलाश में बिहार से रावलपिंडी जा पहुंचा था लेकिन आर्थिक संकटों के कारण कुछ ही समय में उन्हें मथुरा लौटना पड़ा.

परिवार के आर्थिक संकट के चलते शैलेंद्र ने बंबई जाने का फैसला किया और वहीं माटुंगा रेलवे वर्कशॉप में वेल्डिंग एप्रेंटिस के तौर पर काम करना शुरू कर दिया. लेकिन इस बीच भी कविता की तरफ उनका रुझान कम नहीं हुआ और वो समय निकालकर कुछ न कुछ लिख लिया करते थे.

रेलवे में काम करते हुए वो इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) से जुड़ गए जो कम्युनिस्ट पार्टी का सांस्कृतिक उपक्रम था. इप्टा के कार्यक्रम के लिए उन्होंने कई कविताएं लिखीं और उनका पाठ भी किया. इन कविताओं पर समाजवादी और वामपंथी प्रभाव साफ तौर पर झलकता है.

उसी दौर में उन्होंने एक ऐसा नारा गढ़ा जो आज भी प्रदर्शनों में इस्तेमाल किया जाता है.

हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है
तुमने मांगें ठुकराई हैं, तुमने तोड़ा है हर वादा
छीनी हमसे सस्ती रोटी, तुम छटनी पर आमादा हो
तो अपनी भी तैयारी है, तो हमने भी ललकारा है
हर जोर जुल्म की टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है

इप्टा के लिए लिखे एक और गीत में समाज के प्रति उनकी बेचैनी साफ तौर पर झलकती है. वो लिखते हैं-

बुरी है आग पेट की
बुरे हैं दिल के दाग ये
ना दब सकेंगे
एक दिन बनेंगे इंकलाब ये
गिरेंगे जुल्म के महल
बनेंगे फिर नवीन घर अगर कहीं है स्वर्ग तो
उतार ला जमीन पर
तू जिंदा है
तू जिंदगी की
जीत पर यकीन कर

इस गीत में गरीबी, संघर्ष और आशा तीनों ही अभिव्यक्ति देखने को मिलती है और उनके कवि रूप का सबसे अच्छा उदाहरण भी.


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राज कपूर और शैलेंद्र

इप्टा के कार्यक्रम में ही शैलेंद्र की राज कपूर से पहली मुलाकात हुई थी. उन दिनों शैलेंद्र की कविता जलता है पंजाब साहित्यिक गलियारे में काफी चर्चित थी. उस दौरान राज कपूर आग फिल्म के जरिए निर्देशन में पहली बार हाथ आजमा रहे थे और उन्होंने अपनी फिल्म के लिए शैलेंद्र की कविता का इस्तेमाल करने में रुचि दिखाई.

इस वाकये के बारे में शैलेंद्र पर लिखी किताब ‘गीतों का जादूगर ‘ में बृज भूषण तिवारी लिखते हैं, ‘राज कपूर ने उचित पारिश्रमिक देने की भी बात कही, पर उस ‘विद्रोही-निरंकुश गीतकार’ ने साफ शब्दों में जवाब दिया- ‘मैं पैसे के लिए नहीं लिखता. कोई ऐसी बात नहीं है जो मुझे आप की फिल्म में गाना लिखने के लिए प्रेरणा दे. मैं क्यों लिखूं.’

उस दौरान शैलेंद्र आर्थिक संकटों से घिर गिए थे और उनके पास अपनी गर्भवती पत्नी के खर्च तक के लिए भी पैसे नहीं थे. राज कपूर से मिलने शैलेंद्र महालक्ष्मी स्थित उनके कार्यालय पहुंचे और कहा- ‘मुझे पैसों की जरूरत है. पांच सौ रुपए चाहिए. जो मुनासिब समझें, काम करवा लीजिएगा.’

उन दिनों राज कपूर अपनी दूसरी फिल्म बरसात का निर्देशन कर रहे थे और उन्हें दो गीत लिखवाने थे. 6 गीत पहले ही वो हसरत जयपुरी से लिखवा चुके थे. शैलेंद्र ने बरसात के लिए जो दो गीत लिखे वे दोनों ही खूब पसंद किए गए.

इसी के साथ राज कपूर और शैलेंद्र की जोड़ी बनी जो आने वाले 17 सालों तक फिल्मी जगत पर छायी रही. प्रसिद्ध रूसी कवि और लेखक पुश्किन के नाम पर राज कपूर प्यार से शैलेंद्र को पुश्किन और कविराज बुलाते थे.

राज कपूर की जो सिनेमाई छवि बनी और समाजवादी चित्रण के लिए जो उन्हें प्रसिद्धि मिली, वो शैलेंद्र के लिखे गीतों के बिना अधूरी है.

शैलेंद्र ने राज कपूर से इतर दिलीप कुमार, देव आनंद, वहीदा रहमान, नरगिस, किशोर कुमार तक के लिए गीत लिखे और एसडी बर्मन, मन्ना डे, शंकर जयकिशन, रोशन, सलिल चौधरी जैसे संगीतकारों के साथ काम किया.


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दलित पहचान को लेकर चुप रहे शैलेंद्र

शैलेंद्र का जन्म बिहार के आरा जिले के धुसपुर गांव के दलित परिवार में हुआ था लेकिन वो जीवन भर अपनी दलित पहचान को लेकर चुप्पी साधे रहे.

2016 में शैलेंद्र के बेटे दिनेश शंकर शैलेंद्र ने अपने पिता की कविताओं का एक संग्रह ‘अंदर की आग’ प्रकाशित करवाया. किताब में उन्होंने अपने पिता की सामाजिक पहचान को लेकर लिखा है और बताया है कि वो बिहार के धुरसिया जाति से संबंद्ध रखते हैं.

इस किताब के विमोचन के समय प्रसिद्ध आलोचक डॉ. नामवर सिंह ने कहा था कि संत रविदास के बाद शैलेंद्र सबसे बड़े दलित कवि हैं.


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‘शैलेंद्र का लेखन आम आदमी के लिए था’

शैलेंद्र की कलम से निकले सादगी भरे नगमों ने कई गीतकारों को प्रभावित और प्रेरित किया. उनके रचे कई गीत आज भी संगीत पसंदों को भाते हैं. योगेश, गुलजार और आनंद बख्शी जैसे गीतकारों पर शैलेंद्र की गहरी छाप दिखाई पड़ती है.

फिल्म निर्देशक और गीतकार गुलजार साहब ने एक बार कहा था, ‘शैलेंद्र की बदौलत ही मैं फिल्म इंडस्ट्री में आया. उन्होंने मुझे लगातार लिखने के लिए प्रेरित किया और इस तरह मैंने बिमल रॉय की ‘बंदिनी’ के लिए अपना पहला गीत- ‘मोरा गोरा अंग लेले ‘ लिखा. वह मेरे दोस्त, दार्शनिक, मार्गदर्शक थे और मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा.’

शैलेंद्र की लेखन शैली पर गुलजार ने कहा था, ‘उन्होंने अपने दिल से लिखा और उनका लेखन आम आदमी के लिए था. उनके गीतों में ये साफ झलकता है.’

नया ज्ञानोदय में शैलेंद्र पर लिखे एक लेख में गुलजार साहब ने लिखा था, ‘नज्म और नगमे का फर्क वो जानते थे. नज्म कैसे नगमा बनती हैं, उन्हें उसकी खबर थी. उसके लिए लोगों के साथ, और लोक कलाओं के साथ जुड़े रहना बहुत जरूरी है. मामूली-सी सिचवेशन में, मामूली से शब्दों में बड़ी बात कह जाना, शैलेंद्र की खासियत थी.’


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हर सिचवेशन के लिए लिखे शैलेंद्र ने गीत

फिल्ममेकर अमित खन्ना ने एक लेख में जिक्र किया है कि उर्दू शायरी का एक खास लहजा होता है जो मीटर और काफिया पर आधारित होता है लेकिन हिन्दी की रेंज काफी बड़ी है. उनके अनुसार शैलेंद्र पहले गीतकार थे जिन्होंने दोनों ही पैटर्न को एक साथ लाकर गीत रचे.

फिल्म जगत से जुड़ जाने के कारण शैलेंद्र के कवि रूप पर उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी की उनके गीतों की हुई लेकिन उनकी कविताएं जीवन के कई पहलुओं को समेटे हुए हैं.

शैलेंद्र के गीतों में जहां सामाजिक मुद्दों की झलक दिखलाई पड़ती है वहीं उसमें जीवन की सच्चाई भी नज़र आती है. बूट पॉलिश फिल्म के गीत- ‘रात गई दिन आता है’ में शैलेंद्र एक जगह लिखते हैं-

खेला बचपन हंसी जवानी
मगर बुढ़ापा तड़पाता है
सुख दुख का पहिया चलता है
वही नसीबा कहलाता है

ये गीत फिल्म ‘तीसरी कसम’ के उस गीत जैसा लगता है जिसमें शैलेंद्र ने लिखा है-

लड़कपन खेल में खोया
जवानी नींद भर सोया
बुढ़ापा देख कर रोया
वही किस्सा पुराना है

इन दोनों गीतों की समानता से ये कहा जा सकता है कि शैलेंद्र के गीत जीवन के सफर पर निकले राही के बोल हैं जो तमाम तरह की दुश्वारियों को जीता हुआ अपना समय काटता है और अनुभव जुटाता है.

शैलेंद्र एकमात्र गीतकार हुए हैं जिनके लिखे सबसे ज्यादा गाने फिल्म के टाइटल सांग बने हैं.

श्री 420 का मेरा जूता है जापानी ये पतलून इंग्लिशतानी, प्यार हुआ इकरार हुआ, देव आनंद की फिल्म काला बाजार का गीत खोया खोया चांद, मधुमती का सुहाना सफर और ये मौसम हसीं, तीसरी कसम का सजन रे झूठ मत बोलो और सजनवा बैरी हो गए पिया, बरसात का आवारा हूं..., दाग का ए मेरे दिल कहीं और चल, चोरी चोरी का ये रात भीगी भीगी, यहूदी का ये मेरा दीवानापन है, बंदिनी का ओ रे मांझी जैसे गीत लिखकर शैलेंद्र ने आम आदमी के जीवन की व्यथा, खुशी और व्यक्त किया है. गाइड के लिखे गीतों को कौन भुला सकता है.


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तीसरी कसम

1960 के करीब जब शैलेंद्र ने हिन्दी के जाने-माने साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी मारे गए गुलफाम पढ़ी तो उन्होंने इसे बड़े पर्दे पर फिल्माने के बारे में सोचा. रेणु को लिखे पत्र में शैलेंद्र ने उनसे ऐसा करने की अनुमति मांगी और उन्हें इसकी इजाजत भी मिल गई. रेणु और शैलेंद्र जल्द ही दोस्त बन गए और फिल्म पर तेजी से काम होने लगा.

शैलेंद्र मारे गए गुलफाम कहानी को तीसरी कसम के नाम से बनाकर साल भर के भीतर इसे तैयार करना चाहते थे. इस फिल्म में उन्होंने राज कपूर को हीरामन और वहीदा रहमान को हीराबाई की भूमिका में लिया लेकिन इसे पूरा करने में 5 साल से भी ज्यादा का वक्त लग गया. इस बीच शैलेंद्र कर्ज में डूब गए जिस कारण वो परेशान रहने लगे. इस बीच रेणु भी बीमार रहने लगे और अपने गांव औराही हिंगना लौट गए.

तीसरी कसम जब रीलीज हुई तो ज्यादा खास प्रदर्शन नहीं कर पाई. कर्ज में डूबे शैलेंद्र का इसी बीच मात्र 43 साल की उम्र में निधन हो गया. उनकी मृत्यु के बाद फिल्म को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

शैलेंद्र के जाने के बाद तीसरी कसम और उनके निर्देशन कला को खूब सराहा गया. इस फिल्म पर नज़र डालें तो शैलेंद्र ने लोक परंपरा को बेहद ही खूबसूरती से फिल्मांकन किया है और देशज भाषा के जो उन्होंने गीत लिखे वो इस फिल्म को और भी सशक्त बनाती है.

शैलेंद्र के गीतों में एक तरफ ईमानदारी, अल्हड़पन है तो दूसरी तरफ उनके संघर्ष भरे जीवन का अनुभव है. तभी तो उन्होंने आवारा हूं गीत में लिखा है-

आबाद नहीं, बर्बाद सही
गाता हूं खुशी के गीत मगर
ज़ख्मों से भरा सीना है मेरा
हंसती है मगर ये मस्त नज़र
दुनिया
दुनिया मैं तेरे तीर का
या तकदीर का मारा हूं

शैलेंद्र अपने गीतों के जरिए हमेशा याद किए जाएंगे. जब भी इंसान मुश्किल में होगा, प्यार में होगा, दुख में होगा, खुशी मनाएगा, आंदोलन करेगा, इकरार करना चाहेगा तब उसे शैलेंद्र के ही अफसाने गाने होंगे और यही कविराज की महानता को दर्शाता रहेगा.


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