बेंगलुरू: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की देहरादून स्थित विंग इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिमोट सेंसिंग (आईआईआरएस) के शोधकर्ताओं की एक स्टडी में पता चला है कि ‘भोजन की कटोरी’ कहे जाने वाले पंजाब और हरियाणा प्रांतों में लागू की गई जल संरक्षण नीति से भूजल में तेज़ी से कमी आई है और प्रदूषण स्तर भी बढ़ा है.
ऐसा, फसल कटाई का समय संकुचित होने की वजह से हुआ है, जिसके नतीजे में पराली जलाने का चलन बढ़ा है, जो पहले ज़्यादा समय में फैला होता था लेकिन अब वो हवा के रुख में बदलाव के साथ होता है, जिससे हवा धीमी पड़ जाती है और एरोसोल का फैलाव कम हो जाता है और इसके परिणामस्वरूप उत्तर भारत में प्रदूषण बढ़ जाता है.
‘उत्तर-पश्चिम भारत में पराली जलाने और वायु प्रदूषण पर भूजल संरक्षण नीति का दीर्घकालिक प्रभाव’ नाम की ये स्टडी 8 फरवरी को साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित हुई, जो अमेरिका-स्थित एक खुली पहुंच और पियर रिव्यू की जाने वाली वैज्ञानिक पत्रिका है.
शोधकर्ताओं ने मौसमी प्रदूषण स्रोतों और ज़मीनी माप के दीर्घ-कालिक डेटा सेट्स की जांच की, ताकि प्रिज़र्वेशन ऑफ सबसॉयल वाटर एक्ट 2009, के असर को समझा जा सके. ये अधिनियम पंजाब और हरियाणा सरकारें भूजल संरक्षण के लिए लाईं थीं- एक महत्वपूर्ण स्रोत जिसका दोनों सूबों में भरपूर दोहन हुआ है- जिसके तहत 10 मई से पहले धान बुवाई, और 10 जून से पहले पौध लगाने पर पाबंदी लगा दी गई, जिससे फसल बुवाई का समय सिर्फ मॉनसून के महीनों के दौरान सिमटकर रह गया.
इसके परिणामस्वरूप, दोनों राज्यों में गेहूं नवंबर-दिसंबर में बोया जाता है और अप्रैल-मई में कटता है, जबकि धान जून-जुलाई (मॉनसून महीनों) में बोया जाता है और अक्टूबर-नवंबर में कटता है.
स्टडी में ये भी कहा गया है कि फसल अवशेष प्रबंधन के लिए राष्ट्रीय नीति (एनपीएमसीआर) के क्रियान्वयन और किसानों के बीच जागरूकता कार्यक्रमों के नतीजे में पिछले चाल वर्षों के दौरान पराली जलाने में कुछ कमी आई है.
स्टडी के लेखक चावल की कम अवधि की किस्मों और चावल की सीधी बुवाई (पौध लगाने के पारंपरिक तरीके के विपरीत) की सिफारिश करते हैं, जिससे पानी का उपयोग कम होता है. वो खरीफ फसल के विविधीकरण का सुझाव देते हैं और किसानों को पराली के बेहतर प्रबंधन के आर्थिक समाधान सुझाते हैं.
दिप्रिंट ने इस मुद्दे पर ई-मेल और टेक्स्ट के ज़रिए वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग और पंजाब व हरियाणा के मुख्यमंत्री कार्यालयों से टिप्पणी लेने की कोशिश की. उनकी प्रतिक्रिया मिलने पर इस खबर को अपडेट कर दिया जाएगा.
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कटाई के समय में बदलाव
पहले, धान की पौध जून के शुरू से लगाई जाती थी. चूंकि इस फसल में पानी बहुत लगता है, इसलिए प्रिज़र्वेशन ऑफ सबसॉयल वॉटर एक्ट- जो दोनों सूबों में अलग-अलग लागू किया गया- का लक्ष्य गर्मियों के चरम पर क़ुदरती तौर पर होने वाले वाष्पन-उत्सर्जन के दौरान, भूजल के उपयोग को कम करना था. इसलिए पूरा चक्र 10-15 दिन आगे बढ़कर जुलाई के मॉनसून तक पहुंच गया.
इसके नतीजे में, कटाई का समय भी अक्टूबर के दूसरे सप्ताह से आगे बढ़कर नवंबर के पहले सप्ताह पहुंच गया. इससे किसानों के पास ज़मीन को अगली फसल के लिए तैयार करने को बहुत कम समय बचता है. सफाई का काम आसान करने के लिए किसान फसल के अवशेष जला देते हैं, जिससे एयरोसोल्स और हानिकारक कणकीय पदार्थ वातावरण में शामिल हो जाते हैं.
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पराली जलाना और प्रदूषण
दुनिया भर में 80 प्रतिशत बायोमास, दक्षिणपूर्व एशिया, दक्षिणी अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में जलाया जाता है. भारत में 16 प्रतिशत बायोमास फॉर्म्स और खेतों में जलाया जाता है. जलाए जाने वाले अवशेषों में एक बड़ा हिस्सा धान की पराली का होता है, जिसके बाद गेहूं की पराली और गन्ने का छिल्का होता है.
2014 की एक स्टडी के अनुसार, पंजाब में हर साल 2.13 करोड़ टन पराली जलाई जाती है, जबकि हरियाणा में 91.8 लाख टन पराली जलती है. पिछले 15 वर्षों में दोनों सूबों में गेहूं और धान के कुल उत्पादन में इज़ाफा हुआ है और इसी के साथ उनके अवशेष भी बढ़े हैं.
पंजाब और हरियाणा में गेंहू की पराली, मॉनसून से पहले अप्रैल और मई में जलाई जाती है, जबकि धान की पराली मॉनसून के बाद अक्टूबर और नवंबर में जलाई जाती है.
2002 से 2020 तक, मॉनसून से पहले इन दोनों सूबों में हर साल, पराली जलाने की औसतन 3,585 और मॉनसून के बाद 15,972 घटनाएं होती थीं. सेटेलाइट डेटा से पता चलता है कि मॉनसून के बाद पराली जलाने की घटनाएं, मॉनसून से पहले की घटनाओं से चार-पांच गुना ज़्यादा होती हैं. स्टडी में पता चला है कि पिछले दो दशकों में पराली की मात्रा में लगातार 36 प्रतिशत का इज़ाफा हुआ है, जबकि गेहूं की पराली 4 प्रतिशत बढ़ी है.
डेटा से ये भी पता चलता है कि 2010 के बाद से अप्रैल और अक्टूबर में जलाने की घटनाएं कम हुई हैं और मई तथा नवंबर में इनमें वृद्धि हुई है, जिससे संकेत मिलता है कि कटाई की अवधि बहुत छोटी हो गई है.
स्टडी के अनुसार 2010 के बाद, पराली जलाने से वातावरण में लटके एयरोसोल्स की मात्रा करीब 10 प्रतिशत बढ़ गई है, जबकि पीएम 2.5 सूक्ष्म कणों में 17.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. ये कण हवा के साथ दोनों राज्यों से 4-6 दिन में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) की तरफ पहुंच जाते हैं, जिससे वायु गुणवत्ता उचित मानकों से नीचे आ जाती है.
दीर्घ-कालिक सेटेलाइट आंकड़ों से पता चलता है कि समस्या से निपटने की नीतियों के बावजूद पिछले 15 वर्षों में दोनों राज्यों में पराली जलाने की घटनाएं 250 प्रतिवर्ष की दर से बढ़ी हैं.
पराली की आग से निकलने वाला धुएं का हर साल उत्तर भारत के प्रदूषण में एक बड़ा योगदान होता है, जो बेशुमार भारतीयों पर बुरा प्रभाव डालता है. अनुमान लगाया जाता है कि 2015 में 66,000 से अधिक मौतों का संबंध, पराली जलाने की अवधि से जोड़ा जा सकता है.
स्टडी में देखा गया कि पराली जलाने का पैटर्न बदलने के साथ ही एनसीआर और अन्य उत्तरी राज्यों के ऊपर वातावरण में सूक्ष्म कणों के जमाव में भी उसी हिसाब से परिवर्तन आया है.
शोधकर्ताओं के अनुसार, सेटेलाइट डेटा से पता चलता है कि 2010 के बाद मॉनसून के पश्चात धान की पराली जलाने की घटनाओं में 21 प्रतिशत वृद्धि हुई. आग की ये घटनाएं अप्रैल से आगे बढ़कर मई में भी पहुंच गई हैं. और इनमें ज़्यादा उछाल अक्टूबर से नवंबर के बीच आया है.
मॉनसून-पूर्व सीज़न में भी गेहूं की पराली जलाने की घटनाओं में थोड़ा इज़ाफा देखा गया.
खेतों में आग लगाने की घटनाओं में इज़ाफा और इनके चरम का शिफ्ट, उत्तर भारत के त्योहारी सीज़न से टकरा जाता है, जिससे वातावरण में धूल, धुएं और एयरोसोल कण पीएम 2.5 तथा पीएम 10 में और इज़ाफा हो जाता है.
आईआईएसआर-इसरो के निदेशक और पेपर के एक लेखक डॉ प्रकाश चौहान ने समझाया कि 2010 के बाद से मॉनसून के पश्चात पराली जलाने में देरी से स्थिति और बिगड़ गई है, जब ज़्यादातर आग हवा के बदले हुए रुख से मेल खा जाती है. अक्टूबर में, एयरोसोल्स का बिखराव बेहतर होता है, जिसके बाद नवंबर में हवा का रुख बदल जाता है, जैसे कि 2010 से पहले के डेटा में भी देखा गया है.
उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘दीर्घ-कालिक आंकड़ों के अपने विश्लेषण से, हम अंतिम तौर से कह सकते हैं कि सरकार द्वारा लागू किए गए अधिनियम के नतीजे में, उत्तर भारत में प्रदूषण स्तरों में वृद्धि हुई है’.
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भूजल स्तर में बदलाव
भूजल डेटा के अपने विश्लेषण से शोधकर्ताओं को पता चला कि पराली जलाने के डेटा में विविधताओं के विपरीत, भूजल स्तरों में लगातार गिरावट ही देखी गई है. 2002-2009 की अपेक्षा, 2010 में भूजल भंडारण में अस्थायी रूप से सुधार हुआ लेकिन 2014 के बाद ये स्तर और तेज़ी से गिर गए.
स्टडी में कहा गया है कि पंजाब में 2002-2009 के बीच हर साल, भूजल में 1.29 क्यूबिक किलोमीटर की कमी आई, जबकि हरियाणा में 1.46 क्यूबिक किलोमीटर की गिरावट आई. 2014 और 2017 के बीच, हरियाणा में भूजल नुकसान का यही स्तर बना रहा, जबकि पंजाब में ये 1.32 क्यूबिक किलोमीटर प्रति वर्ष बढ़ गया.
कुछ पिछली स्टडीज़ में भी देखा गया है, कि पंजाब और हरियाणा में जल संरक्षण एक्ट बन जाने के बाद भी भूजल के स्तर में तेज़ी से गिरावट आई है.
डॉ चौहान ने कहा, ‘नीति फेल हो गई है. न केवल ये भूजल को बचाने में असमर्थ रही है, बल्कि इससे प्रदूषण भी बढ़ रहा है. इस पर तुरंत ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है’.
उन्होंने आगे कहा कि निष्कर्षों को वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग के साथ साझा किया गया है और प्रदूषण तथा भूजल की समस्या से निपटने के लिए, लेखकों ने नीतिगत बदलावों का अनुरोध किया है.
डॉ चौहान ने कहा, ‘हाल के वर्षों में लोग जैव ईंधन का दूसरे उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. सरकार वित्तीय प्रोत्साहन मुहैया कराने और जैव ईंधन की फिर से ख़रीद करने पर भी काम कर रही है. पिछले 3-4 वर्षों में, जलाने संख्या में कमी नज़र आ रही है’. पेपर से पता चलता है कि पिछले चार वर्षों में जलाने की घटनाओं में 5 प्रतिशत की मामूली कमी देखी गई है.
उन्होंने समझाया कि दोनों राज्यों की सरकारों को, आक्रामक तरीक़े से किसानों के साथ मिलकर, सीधे चावल बोने (डीएसआर) को बढ़ावा देने का काम शुरू करना होगा. देखा गया है कि इस तकनीक से पानी का उपयोग 30 प्रतिशत घट जाता है.
स्टडी के लेखकों ने ऐसी नीतियां बनाने की ज़रूरत पर भी बल दिया, जिनसे वर्षा जल संचयन और जल संरक्षण की दूसरी तकनीकों को अपनाया जा सके और गांवों में जलाशयों की मरम्मत और उनका इस्तेमाल, नहरों के ज़रिए सिंचाई में सुधार, एकल कृषि से फसलों के विविधीकरण पर शिफ्ट और चावल की परंपरागत क़िस्मों की जगह, कम अवधि वाली धान किस्में लाने जैसे काम किए जा सकें.
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