‘मेरे पिता जी का बाईपास सर्जरी होना है. दिल्ली के एक अस्पताल में कहा जा रहा कि डेढ़ साल बाद नंबर आएगा. मैं अस्पतालों के चक्कर लगाकर परेशान हो चुकी हूं. मेरे पास पैसे नहीं है इसलिए मेरे पिता को इलाज़ कराने में इतनी मशक्कत झेलनी पड़ रही है.’ यूपी के रामपुर से आईं गोसिया अपनी दुखभरी कहानी सुनाते रो पड़ती हैं.
हमारे देश में अस्पतालों के मनमाने रवैये से लगभग हर किसी को दो चार होना पड़ता है. नाजुक मौके पर होने वाली लापरवाही से लोगों की जान भी चली जाती है. कुछ दिन पहले सात वर्षीय डेंगू पीड़ित बच्ची आद्या की मौत और अस्पताल द्वारा उसके इलाज़ के लिए 16 लाख रुपये मांगना.या फिर दिल्ली के मैक्स अस्पताल के दो डॉक्टरों द्वारा जीवित नवजात को मृत बताने का मामला. ऐसी घटनाओं से बचने के लिए स्वास्थय का अधिकार कानून को चर्चा का विषय बना दिया है.
हमारे संविधान ने हमें जीने का अधिकार तो प्रदान कर दिया है, लेकिन स्वास्थ्य का अधिकार मिलना अभी बाकी है. स्वास्थ्य का अधिकार कानून को मौलिक अधिकार बनाने के लिए पिछले कई सालों से मुहिम चलाई जा रही है. इसी कड़ी में पिछले दिनों दिल्ली हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक अग्रवाल के नेतृत्व में ‘नेशनल कैंपेन फॉर राइट टू पब्लिक हेल्थ’ ने जंतर मंतर पर प्रदर्शन किया.
अशोक अग्रवाल ने आए हुए लोगों का अभिनंदन करते हुए कहा, ‘प्राइवेट अस्पतालों में हक के तौर पर मिलनी वाली सुविधाएं सीमित हैं और आमलोगों के पहुंच से बाहर हैं. इसलिए हमें सरकारी अस्पतालों की तरफ रुख करना होगा. लेकिन आजकल सरकारी अस्पताल तो प्राइवेट अस्पतालों से भी ज्यादा पैसे मांग रहे हैं.’
वे आगे कहते हैं, ‘ कितने शर्म की बात है कि हिंदुस्तान में जो सरकारी अस्पताल हैं वो पैसा लेकर इलाज़ कर रहे हैं. दिल्ली सरकार के पांच ऐसे अस्पताल हैं जो बड़े बड़े और काबिल अस्पताल हैं वहां केवल 10 परसेंट गरीबों को बेड मिले हैं फ्री. दिल्ली सरकार के अस्पताल ने कमर्शियलाइज कर लिया है. लेकिन अगर स्वास्थ का अधिकार कानून होता तो सरकार की यह जिम्मेदारी हो जाती कि मरीज़ों का बेहतर और जल्दी इलाज़ किया जाए. अस्पतालों की मनमानी पर रोक लगती.’
स्वास्थ्य का अधिकार कानून क्या है
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत देश के प्रत्येक नागरिक को जीने का अधिकार है. जीने के अधिकार में स्वास्थ का अधिकार वर्णित है. जिसके तहत देश के प्रति व्यक्ति के स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा करना सरकार की जिम्मेदारी है. बताते चलें कि 10 दिसंबर 1948 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानव अधिकार के मुद्दे पर यूनिवर्सल घोषणा पत्र जारी किया था जिसमें लोगों के स्वास्थय के अधिकार को प्रमुखता से रखा गया था.
मरीज़ों के अधिकार
हर मरीज़ को बिना किसी भेदभाव के स्वास्थ्य सेवा मुहैय्या कराना सरकार की जिम्मेदारी है. मरीज़ व उसके परिजन दवाईयों, डाक्टरों, मेडिकल रिपोर्ट, इलाज़ का खर्च आदि चीज़ों के बारे में जानने का पूरा हक है. मरीज़ के साथ अगर इलाज़ के दौरान किसी भी तरह कि धोखाधड़ी हुई हो तो भारतीय चिकित्सा परिसद या राज्यों के चिकित्सा परिसद में शिकायत दर्ज करा सकता है.
कानून बनने की प्रक्रिया में वर्तमान स्थिति
देश में शिक्षा का अधिकार कानून और सूचना का अधिकार कानून तो है लेकिन स्वास्थ्य का अधिकार कानून अभी भी क्रियान्वित नहीं हो सका है. 2015 में इसको लेकर एक मसौदा तैयार किया गया था, लेकिन 2017 में बने राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में इसका कोई जिक्र नहीं किया गया. और यह अभी अधर में लटक गया है. सत्ता पक्ष हो या विपक्ष कोई भी दोनों इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हैं.
कानून बनाने में दिक्कत कहां आ रही है.
विश्व के 100 देशों के संविधान में स्वास्थय का अधिकार कानून है. इस मामले में भारत कई विकासशील देशों से पीछे हैं. भारत में इसे लागू करने में दिक्कत कहां आ रही है.
दिप्रिंट से बातचीत में अशोक अग्रवाल बताते हैं, ‘दिक्कत यही है कि सरकार के मन में बैठा फिजूल का डर. जब दिल्ली में कांग्रेस की सरकार थी तब हमने उनके स्वास्थ्य मंत्री को कहा था कि आप ही पहल करो, एक राइट टू पब्लिक हेल्थ बिल ले आओ दिल्ली के लिए तो उन्होंने कहा था कि नहीं, हम नहीं ला सकते. हमारे ऊपर मुकदमें आ जाएंगे. और जब आम आदमी पार्टी की सरकार आई तो उसके मंत्री जी से भी हमने इस बिल की मांग की, तो उन्होंने भी वही बात दोहराई. मुकदमें आ जाएंगे.’
अशोक अग्रवाल आगे कहते हैं कि कोई भी राज्य अपने नागरिकों को यह कानून बनाकर नहीं देना चाहता क्योंकि उसे डर रहता है कि अगर उसने यह हक दे दिया तो वो कोर्ट में जाकर उसकी खिंचाई करेगा.
प्रदर्शन में आए लोगों को जागरूक करते हुए अशोक अग्रवाल ने सरकार पर दवाब बनाने के लिए आह्वान किया. और स्वास्थ्य के अधिकार कानून को मौलिक अधिकार बनाने की मांगे के अलावा इसे समवर्ती सूची (कॉन्करेंट लिस्ट) में शामिल किया जाने की बात की.