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Friday, 15 November, 2024
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‘तलाक-ए-हसन’ के खिलाफ याचिका: न्यायालय ने तत्काल सुनवाई से किया इनकार

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नयी दिल्ली, 25 मई (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने बुधवार को उस याचिका पर तत्काल सुनवाई करने से इनकार कर दिया, जिसमें ‘तलाक-ए-हसन’ की प्रथा और ‘एकतरफा न्यायेतर तलाक’ के अन्य सभी रूपों को मनमाना और तर्कहीन करार देते हुए अमान्य एवं असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गई है।

न्यायमूर्ति डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी की अवकाशकालीन पीठ ने मामले का उल्लेख करने वाले वकील से कहा कि वह अगले सप्ताह पीठ के समक्ष इसका उल्लेख करें।

‘तलाक-ए-हसन’ के अंतर्गत तलाक को महीने में एक बार, तीन महीने तक बोला जाता है। यदि इस अवधि के दौरान साथ रहना फिर से शुरू नहीं किया जाता है, तो तीसरे महीने में तीसरी बार ‘तलाक’ कह देने के बाद तलाक को औपचारिक मान्यता मिल जाती है।

हालांकि, यदि पहले या दूसरे महीने में ‘तलाक’ शब्द के उच्चारण के बाद पति-पत्नी का साथ रहना फिर से शुरू हो जाता है, तो यह माना जाता है कि दोनों पक्षों में सुलह हो गई है।

एक मुस्लिम महिला ने अधिवक्ता अश्विनी कुमार दुबे के माध्यम से याचिका दायर की है, और केंद्र से लिंग एवं धर्म से इतर सभी नागरिकों के लिए तलाक की एक समान प्रक्रिया का दिशानिर्देश तैयार करने की भी मांग की है।

वरिष्ठ अधिवक्ता पिंकी आनंद ने मामले को तत्काल सूचीबद्ध करने के लिए पीठ के समक्ष उल्लेख किया और बताया कि याचिका ‘तलाक-ए-हसन’ को चुनौती देने से संबंधित है।

उन्होंने कहा कि वकील के माध्यम से याचिकाकर्ता को ‘तलाक-ए-हसन’ के लिए दो नोटिस जारी किए जा चुके हैं और तीसरा नोटिस अंतिम होगा।

पीठ ने पूछा, ‘’नोटिस कब जारी किया गया था?’’

इसके जवाब में वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा कि पहला नोटिस 19 अप्रैल को और दूसरा अब जारी किया गया है।

पीठ ने कहा, ‘‘हम (अदालत के) पुन: खुलने के बाद इस मामले को रखेंगे। कोई जल्दबाजी नहीं है।’’ इस पर वकील ने कहा कि तब तक तो सब कुछ खत्म हो जाएगा।

पीठ ने कहा, ‘‘ठीक है, आप अगले सप्ताह उल्लेख कर सकते हैं। आप अगले सप्ताह एक मौका ले सकते हैं।’’

अपनी याचिका में, याचिकाकर्ता ने कहा है कि ‘तलाक-ए-हसन’ और ‘एकतरफा न्यायेतर तलाक’ के अन्य रूपों का प्रचलन ‘‘न तो मानवाधिकारों और लैंगिक समानता के आधुनिक सिद्धांतों के साथ सामंजस्यपूर्ण है और न ही इस्लामी आस्था का अभिन्न अंग।’’

उन्होंने दावा किया कि कई इस्लामी राष्ट्रों ने इस तरह की प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया है, जबकि यह प्रथा आमतौर पर भारतीय समाज और खासतौर पर, याचिकाकर्ता की तरह मुस्लिम महिलाओं को ‘परेशान’ करती है।

याचिका में मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) आवेदन अधिनियम, 1937 की धारा 2 को संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 21 और 25 का कथित रूप से उल्लंघन करने के लिए अमान्य और असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गई है।

भाषा सुरेश नरेश

नरेश

यह खबर ‘भाषा’ न्यूज़ एजेंसी से ‘ऑटो-फीड’ द्वारा ली गई है. इसके कंटेंट के लिए दिप्रिंट जिम्मेदार नहीं है.

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