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Sunday, 5 May, 2024
होमदेशज्ञानवापी विवाद पर HC ने कहा- जब तक ट्रायल कोर्ट में फैसला नहीं होता, तब तक मस्जिद-मंदिर नहीं

ज्ञानवापी विवाद पर HC ने कहा- जब तक ट्रायल कोर्ट में फैसला नहीं होता, तब तक मस्जिद-मंदिर नहीं

इलाहाबाद HC की पीठ ने कहा कि पूजा स्थल अधिनियम संरचना के रिलीजियस कैरेक्टर की घोषणा की मांग करने वाले वादियों पर 'पूर्ण प्रतिबंध' नहीं है, और सिविल जज को हिंदू पक्ष के मुकदमे की सुनवाई शुरू करने की अनुमति दी.

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नई दिल्ली: काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी मस्जिद विवाद के संबंध में वाराणसी सिविल कोर्ट में दायर एक प्रतिनिधि मुकदमे को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक बैच को खारिज करते हुए, इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि पूजा स्थल अधिनियम, 1991 किसी धार्मिक संरचना के “कैरेक्टर” की घोषणा के लिए अदालत जाने वाले पक्षों पर “पूर्ण प्रतिबंध” नहीं लगाता है.

इस टिप्पणी के साथ, न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल की एकल न्यायाधीश पीठ ने वाराणसी में सिविल जज को हिंदू पक्ष द्वारा उस भूमि पर अपने अधिकार का दावा करते हुए दायर प्रतिनिधि मुकदमे की सुनवाई शुरू करने की अनुमति दी, जहां ज्ञानवापी मस्जिद स्थित है. पूजा स्थल अधिनियम अधिसूचित होने के बाद अक्टूबर 1991 में ट्रायल कोर्ट में मुकदमा दायर किया गया था.

हाई कोर्ट का फैसला 15 साल बाद सुनाया गया जब अंजुमन इंतजामिया मस्जिद – ज्ञानवापी मस्जिद की प्रबंधन समिति ने ट्रायल कोर्ट में सुनवाई पर रोक लगा दी थी और यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, लखनऊ ने अधीनस्थ अदालत के दो आदेशों को चुनौती दी थी.

मस्जिद प्रबंधन समिति और यूपी सुन्नी सेंट्रल बोर्ड ऑफ वक्फ के अनुसार, अधिनियम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 15 अगस्त, 1947 को मौजूद पूजा स्थल अस्तित्व में रहेगा और इसके रिलीजियस कैरेक्टर में परिवर्तन पर पूर्ण प्रतिबंध है.

हालांकि, न्यायमूर्ति अग्रवाल ने कहा कि चूंकि अधिनियम के तहत “रिलीजियस कैरेक्टर” को परिभाषित नहीं किया गया है, इसलिए विवादित स्थान की पहचान आवश्यक है, क्योंकि यह 15 अगस्त, 1947 को अस्तित्व में था और दोनों पक्षों के नेतृत्व में दस्तावेजी और मौखिक साक्ष्य द्वारा निर्धारित किया जा सकता है.

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यह देखते हुए कि वर्तमान मामले में, दोनों पक्षों द्वारा इस पर प्रति-दावा करने के मद्देनजर धार्मिक संरचना की पहचान अस्पष्ट बनी हुई है, न्यायाधीश ने कहा कि “जब तक अदालत फैसला नहीं सुना देती, विवादित पूजा स्थल को मंदिर या मस्जिद नहीं कहा जा सकता.”

पीठ ने यह भी कहा कि 1991 के अधिनियम की धारा 4 की उपधारा 3 में कुछ ऐसे मामलों का जिक्र है जिनमें पक्ष अपनी शिकायत के निवारण के लिए अदालत का रुख कर सकते हैं. उप-धाराओं में से एक – उप-धारा 3 (डी) – अधिनियम के तहत अपवादों में से एक है जो अदालत को ऐसे मामले की सुनवाई करने की अनुमति देती है जहां अधिनियम के शुरू होने से बहुत पहले धार्मिक “रूपांतरण” हुआ हो. यदि किसी पक्ष ने अधिनियम के प्रारंभ होने से पहले ऐसे रूपांतरण को अदालत में चुनौती नहीं दी है, तो वे भविष्य में भी ऐसा कर सकते हैं.

अदालत ने कहा, “1991 का अधिनियम इसके लागू होने के बाद पूजा स्थल पर अपना अधिकार मांगने या किसी पूजा स्थल के रिलीजियस कैरेक्टर को परिभाषित करने के लिए अदालतों में जाने वाले पक्षों पर पूर्ण प्रतिबंध नहीं है.”

न्यायाधीश ने महसूस किया कि काशी-ज्ञानवापी विवाद में सुनवाई होना आवश्यक है क्योंकि किसी स्थान का दोहरा धार्मिक पहचान नहीं हो सकता.

अदालत ने कहा, “या तो वह स्थान मंदिर है या मस्जिद.” इसलिए धार्मिक पहचान का निर्धारण करते समय संपूर्ण ज्ञानवापी परिसर का साक्ष्य लिया जाना आवश्यक है.

पीठ ने ट्रायल कोर्ट को मामले के महत्वपूर्ण महत्व को देखते हुए जल्द से जल्द, अधिमानतः छह महीने के भीतर मामले का फैसला करने का निर्देश दिया.

अदालत ने आदेश दिया, “मुकदमे में उठाया गया विवाद अत्यंत राष्ट्रीय महत्व का है. यह दो अलग-अलग पार्टियों के बीच का मामला नहीं है. इसका असर देश के दो प्रमुख समुदायों पर पड़ता है. 1998 से चल रहे अंतरिम आदेश के कारण मुकदमा आगे नहीं बढ़ सका. राष्ट्रीय हित में, यह आवश्यक है कि मुकदमा तेजी से आगे बढ़े और बिना किसी टाल-मटोल की रणनीति का सहारा लिए दोनों प्रतिस्पर्धी पक्षों के सहयोग से अत्यधिक तत्परता से निर्णय लिया जाए.”

इसमें आगे कहा गया कि ट्रायल कोर्ट को किसी भी पक्ष को अनावश्यक स्थगन नहीं देना चाहिए. अदालत ने कहा कि यदि स्थगन मांगा गया तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी.


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क्या है पूरा मुकदमा

एचसी द्वारा तय की गई अपील एक मुकदमे से उत्पन्न हुई है जो 15 अक्टूबर, 1991 को स्वयंभू भगवान विशेश्वर की प्राचीन मूर्ति द्वारा दायर किया गया था. मुकदमे में तीन प्रार्थनाएं की गईं – वह चाहते थे कि अदालत घोषित करे कि “तहखाना के ऊपर खड़ी संरचना और पुराने मंदिर के निकटवर्ती हिस्से के साथ नौबत खाना (एक नक्शे में पूरी तरह से विस्तृत) के पूर्व में स्थित कमरा भगवान विशेश्वर के भक्तों की संपत्ति है. इसलिए बड़े पैमाने पर हिंदुओं को इसे पूजा स्थल के रूप में उपयोग करने और अपने मंदिर का नवीनीकरण और पुनर्निर्माण करने का पूरा अधिकार है, जिस पर प्रतिवादियों (मुसलमानों) का कोई अधिकार, स्वामित्व या हित नहीं है.

मुकदमे में मुस्लिम पक्ष के खिलाफ अनिवार्य निषेधाज्ञा की भी मांग की गई, जिसमें उन्हें विवादित ढांचे का कब्जा सौंपने का निर्देश दिया गया, और हिंदुओं के अधिकार में हस्तक्षेप करने से उनके खिलाफ निषेधाज्ञा की मांग की गई.

यह दावा किया गया था कि मंदिर का पूरा क्षेत्र तीन भूखंडों पर बनाया गया था और उनमें से एक में, 1669 में सम्राट औरंगजेब द्वारा एक आदेश पर मंदिर को गिराए जाने के बाद, ज्ञानवापी परिसर का निर्माण किया गया था.

18 अक्टूबर 1997 को, ट्रायल कोर्ट ने माना कि तीन में से दो प्रार्थनाएं पूजा स्थल (POW) अधिनियम के तहत वर्जित नहीं थीं, लेकिन मुस्लिम पक्ष को अनिवार्य रूप से रोकने और उन्हें विवादित ढांचे का कब्जा हिंदू पक्ष को सौंपने का निर्देश देने की प्रार्थना को 1991 के कानून द्वारा रोक दिया गया था. पुनरीक्षण अदालत ने सितंबर 1998 में मुस्लिम पक्ष द्वारा उठाई गई चुनौती को खारिज कर दिया. बल्कि, पुनरीक्षण अदालत ने हिंदू पक्ष द्वारा की गई सभी तीन प्रार्थनाओं को स्वीकार कर लिया.

तर्क और HC ने क्या कहा

मुस्लिम पक्ष ने तर्क दिया कि POW अधिनियम स्पष्ट रूप से कहता है कि 15 अगस्त, 1947 को जो पूजा स्थल मौजूद था, वह अस्तित्व में रहेगा. इसमें कानून की उन धाराओं का हवाला दिया गया है जिसमें विशेष रूप से कहा गया है कि अधिनियम के शुरू होने की तारीख पर, किसी भी अदालत, न्यायाधिकरण या किसी प्राधिकरण के समक्ष लंबित कोई भी मुकदमा, या अपील या कार्यवाही समाप्त हो जाएगी.

इसके विपरीत, हिंदू पक्ष ने तर्क दिया कि पूजा स्थल का कोई रूपांतरण नहीं है, न ही रिलीजियस कैरेक्टर में कोई बदलाव है. उन्होंने कहा कि केवल कथित मस्जिद बनाने या आक्रमणकारियों द्वारा मंदिर को ध्वस्त करने से मंदिर की पहचान बदल नहीं जाती है और स्वयंभू देवता के धार्मिक पहचान को ख़त्म नहीं किया जा सकता है.

अपना फैसला सुनाते हुए HC ने कहा, “विचारणीय प्रश्न यह है कि विवादग्रस्त स्थान का रिलीजियस कैरेक्टर क्या है. कोई यह पाता है कि रिलीजियस कैरेक्टर को मौखिक शब्दावली की सीमा में सीमित नहीं किया जा सकता है, चूंकि अधिनियम में ‘religious character’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, इसलिए इसका निर्णय केवल प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर किया जा सकता है.”

POW के अध्ययन के बाद पीठ ने कहा, यह स्पष्ट है कि यद्यपि विधायिका ने मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च, मठ आदि जैसे पूजा स्थलों को परिभाषित किया है, लेकिन धार्मिक पहचान को नहीं, दोनों के बीच दूरी बनाए रखी है. इसलिए, यह अदालत ही है जिसे प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से यह पता लगाना है कि पूजा स्थल की धार्मिक पहचान क्या है.

इसमें आगे कहा गया कि ट्रायल कोर्ट ने क्षेत्राधिकार में कोई त्रुटि नहीं की. न्यायालय के समक्ष रखे गए मुद्दों का निर्णय केवल किसी एक पक्ष के कब्जे के आधार पर नहीं किया जा सकता है.

इसमें इलाहाबाद हाई कोर्ट के 1937 के फैसले पर मुस्लिम पक्ष की निर्भरता को स्वीकार नहीं किया, यह कहते हुए कि उक्त फैसले ने जगह के रिलीजियस कैरेक्टर को परिभाषित नहीं किया, बल्कि केवल मुसलमानों को वहां प्रार्थना करने की अनुमति दी.

दीन मोहम्मद का फैसला काशी निवासी की याचिका पर आया, जिन्होंने दावा किया था कि मस्जिद और उसके आसपास की जमीन पर उनका अधिकार है. उनकी याचिका को खारिज करते हुए, HC ने माना कि जिस स्थान पर मस्जिद बनी है, उसे छोड़कर बाकी जमीन बनारस (अब वाराणसी) के एक व्यास परिवार की है. मुस्लिम पक्ष का दावा है कि इस फैसले ने मस्जिद को वक्फ संपत्ति घोषित कर दिया, जिसका हिंदू पक्ष ने विरोध किया.

अदालत ने यह भी कहा कि ब्रिटिश संप्रभु ने कभी भी कथित मस्जिद के कानूनी अस्तित्व को मान्यता नहीं दी और 1937 के मामले में दायर अपने लिखित बयान में इससे इनकार किया. इसके अलावा, जिस मामले में 1937 का फैसला सुनाया गया था वह एक व्यक्ति द्वारा दायर किया गया था, जबकि इससे पहले वाला मामला एक प्रतिनिधि मुकदमा है, जो एक समूह द्वारा दायर किया गया है.

अदालत ने राम जन्मभूमि मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में “स्वयंभू या स्वयं प्रकट छवि” और “मानव निर्मित छवि” के बीच अंतर करने के लिए की गई टिप्पणियों को भी ध्यान में रखा. इस अंतर को समझाने के लिए भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश बी.के. मुखर्जी द्वारा दिए गए व्याख्यान का भी हवाला दिया गया.

हिंदू पक्ष के अनुसार, काशी में देवता स्वयंभू हैं और वे पूरी संरचना को भगवान आदि विशेश्वर के मंदिर के रूप में पूजा करते रहे हैं.

(संपादन: अलमिना खातून)
(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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