नई दिल्ली: हरियाणी की सीमा से लगे उत्तरी दिल्ली के नरेला में गोल्डन अपार्टमेंट से गुजरते हुए सड़न की बदबू से वहां से निकलना मुश्किल हो जाता है. संकेत हैं कि यहां पर क्या हो सकता था- ऊंची इमारतें, हरियाली, पक्के रास्ते. लेकिन ये ढांचे छोड़ दिए गए लगते हैं, अस्त-व्यस्त बगीचों में खरपतवार भरी है और सड़कों पर कूड़ा फैला हुआ है. यहां पर श्मशान का सा सन्नाटा है.
गोल्डन अपार्टमेंट का निर्माण राजधानी की सबसे बड़ी जमीन मालिक इकाई- दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने किया था, केंद्र सरकार की एजेंसी जो राष्ट्रीय राजधानी में रिहायशी, व्यावसायिक और सार्वजनिक परियोजनाओं को तैयार करके उन्हें विकसित करने का काम करती है.
नरेला पॉकेट 1-ए की आवासीय परियोजना की परिकल्पना एक गहमा-गहमी भरे शहर के रूप में की गई थी लेकिन वास्तव में कोई यहां नहीं रहना चाहता और बहुत से लोग जो रहते हैं वो भी पछता रहे हैं.
गोल्डन अपार्टमेंट के एक निवासी अमन कुमार ने कहा, ‘1600 में से करीब 600 फ्लैट्स में ही लोग रहते होंगे. सरकार से खरीदने के बाद बहुत से लोग उन्हें वापस करना चाहते थे क्योंकि सुविधाएं खराब थीं लेकिन किन्हीं कारणों से नहीं कर पाए. अब वो पछताते हैं क्योंकि वो उन्हें बेंच नहीं पा रहे हैं’.
कुमार अपने घर से कुछ किलोमीटर की दूरी पर एक कोचिंग सेंटर चलाते हैं लेकिन वहां आना-जाना एक मुसीबत है. ‘बस स्टेशन तक पहुंचने के लिए काफी पैदल चलना पड़ता है और मेट्रो का कोई भी संपर्क नहीं है’. वो अपने वाहन से काम पर जाते हैं लेकिन उन्हें शिकायत है कि सड़कें हालांकि चौड़ी हैं लेकिन उनकी स्थिति अच्छी नहीं है.
नरेला में दूसरी जगह भी यही कहानी है, जिसे शहरी विस्तार परियोजना के तहत दिल्ली में रोहिणी तथा द्वारका के बाद, डीडीए के तीसरे सबसे बड़े सुनियोजित उप-नगर की उपाधि पर पूरा उतरने में मुश्किलों से गुज़रना पड़ा है.
बाद के दोनों उप-नगर दिल्ली के भीतर- जिसमें शहरी और उप-नगरीय दोनों जोन आते हैं- आत्म-निर्भर बस्तियां हैं जिनमें बहुत लोगों की रूचि रहती है लेकिन नरेला अभी भी एक भुतहा शहर है.
अपेक्षा थी कि करीब 9.866 हेक्टेयर (98 वर्ग किमी) में फैले नरेला की आबादी, जो 2001 में करीब 1.8 लाख थी, 2021 तक तेजी से बढ़कर 16 लाख से अधिक की अपनी ‘धारण क्षमता’ के आसपास पहुंच जाएगी. सोचा ये गया था कि इसकी किफायती आवासीय परियोजनाओं में रहने के लिए, पूरी दिल्ली से लोगों का तांता लग जाएगा.
इसके विस्तार की निगरानी करने वाले डीडीए के पूर्व उपाध्यक्ष पीके घोष ने कहा, ‘नरेला हरियाणा की सीमा से लगी एक सुनियोजित बस्ती थी, मुख्य शहर से थोड़ी दूर, जिसका विकास 90 के दशक के अंत (करीब 1998-1999) में शुरू हुआ था. उसमें अपेक्षाकृत कम संपन्न लोगों के लिए फायदा था, जो बड़ी संपदा के मालिक बन सकते थे- बहुत बड़ी तो नहीं लेकिन उन एक कमरों के घरों से बड़ी, जो उन्हें शहर के अंदरूनी हिस्सों में मिलते थे’.
लेकिन दो दशक के बाद भी ऐसा लगता है कि बहुत से लोग नरेला के बड़े घरों में रहने की बजाय, अभी भी भीड़-भाड़ भरे इलाकों के एक कमरे के किसी तंग फ्लैट में रहना पसंद करेंगे.
2019 तक डीडीए ने नरेला में आवायीय परियोजनाएं विकसित करने पर कथित रूप से 3,000 करोड़ रुपए की भारी रकम निवेश की थी. हालांकि एक मेट्रो लाइन पर काम चल रहा है और बुनियादी ढांचा विकसित करने के लिए डीडीए ने पिछले वर्ष करीब 800 करोड़ रुपए की योजनाओं को मंज़ूरी दी लेकिन निवासियों का आरोप है कि उन्हें अभी तक परिणाम नजर नहीं आ रहे.
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मीठे सौदे लेकिन ‘ठंडी प्रतिक्रिया’
तीन उप-नगरों द्वारका, रोहिणी और नरेला की परिकल्पना डीडीए ने 1987 में राष्ट्रीय राजधानी में किफायती आवास की बढ़ती मांग के मद्देनजर की थी. सीमा से लगे राज्यों से करीब होने के कारण, इन्हें खेती की जमीनों को खरीदकर उनपर बड़े पैमाने पर आवायीय परियोजनाएं बनाकर विकसित किया गया.
तीन उप-नगरों में से नरेला की धारण क्षमता सबसे अधिक 16 लाख है, जबकि इसके मुकाबले द्वारका की 13 लाख और रोहिणी की करीब 9 लाख है और ऐसा लगता था कि इसके अंदर अपने आप में एक मिनी-महानगरी बनने की क्षमता मौजूद थी.
लेकिन ऐसा हुआ नहीं, और यहां की छितरी आबादी के चलते इसे अकसर एक ‘भूतों शहर’ भी कहा जाता है.
पिछले साल, राज्यसभा में पूछे गए एक सवाल के लिखित जवाब में, आवास एवं शहरी मामलों के केंद्रीय राज्य मंत्री कौशल किशोर ने कहा, कि 2014 के बाद से डीडीए अपनी चार आवासीय परियोजनाओं में 56,932 फ्लैट्स बेंचने के लिए लगा चुकी है.
इनमें से 15,500 को आवंटियों ने वापस कर दिया है, जिनमें से भारी 76 प्रतिशत नरेला उप-नगर में स्थित थे.
आवंटियों द्वारा हटने के पीछे ऊंची क़ीमतें, छोटे आकार, फ्लैट्स की खराब क्वालिटी और दूर-दराज की लोकेशन से लेकर अपर्याप्त कनेक्टिविटी तक के कारण थे.
नरेला की मध्य दिल्ली से दूरी 40 किमी से भी अधिक है और अधिकतर फ्लैट्स निम्न आय समूह (एलआईजी) और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (ईडब्लूएस) में आते हैं.
पूर्व डीडीए उपाध्यक्ष घोष ने कहा कि ऐसा सोचा गया था कि नरेला उन लोगों को अपील करेगा जिनके पास सीमित फंड्स हैं और जिनका काम या व्यावसायिक गतिविधियां शहर के उत्तरी हिस्से में थीं.
लेकिन आखिर में बहुत से लोगों को इनकी लागत इनके फायदों से ज़्यादा नजर आई.
उन्होंने आगे कहा, ‘जब नरेला में रिहायश शुरू होने लगी तब भी लोगों का रवैया ये था कि इतनी दूर नरेला तक आने की बजाय वो तंग जगहों में सिकुड़कर रहने में ज़्यादा खुश थे, बशर्ते कि वो शहर के बीच में हों, या उनके काम की जगह के करीब हों’.
अपनी आवासीय परियोजनाओं की कम मांग को देखते हुए, डीडीए ने और अधिक विकल्प देकर आवंटियों के लिए सौदे को अधिक आकर्षक बनाने की कोशिश की है.
नरेला के निवासी और एक दुकान मालिक सतेंद्र सिंह ने कहा, ‘जब डीडीए को पहले के चरणों (लॉटरी) में अपने फ्लैट्स को बेंचने में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने 2020 में लोगों को ‘पसंद’ के हिसाब से फ्लैट्स ऑफर करने शुरू कर दिए’.
सिंह तत्कालीन उप-राज्यपाल के उस फैसले का जिक्र कर रहे थे जिसमें पहली बार आवेदकों को फ्लैट की लोकेशन (फ्लोर लेवल आदि) चुनने की अनुमति दे दी गई.
ये तब संभव था जब वो डीडीए द्वारा निकाले गए ड्रॉ में सफल हो जाएं जो अपनी आवासीय स्कीम को लागू करने की एजेंसी की एक सामान्य प्रथा है.
घर के खरीदारों के ‘खराब रेस्पॉन्स’ की वजह से हाल ही में एक और कदम जो उठाया गया, वो था ईडब्लूएस आवास आवंटन योजना में रियायत. इसमें ईडब्लूएस फ्लैट के आवंटन के लिए 10 लाख सालाना से कम की पारिवारिक आय को आधार बना दिया गया, जबकि पहले की शर्त ये थी कि आवेदक की निजी वार्षिक आय 3 लाख रुपए से कम होनी चाहिए. एजेंसी ने ये कदम अपने बिना बिके घरों को बेंचने के लिए उठाया.
‘खराब प्लानिंग, कनेक्टिविटी हैं मुख्य मसले’
जहां तक विकास का सवाल है नरेला को 1970 के दशक में ही एक शुरुआती बढ़त मिल गई थी, जब उसके औद्योगिक शहर का निर्माण आरंभ हुआ था लेकिन इसे अभी भी रहने के किसी वांछनीय स्थान से दूर समझा जाता है.
जहां कुछ लोगों का कहना है कि इसका कारण ये है कि ‘प्लानिंग ही सही नहीं’ हुई, वहीं दूसरों का मानना है कि डीडीए के घरों में सुविधाएं ‘अच्छी नहीं’ हैं, और पहले से पूरे हो चुके टावरों को बसाए बिना, सरकार के लिए नए टावरों का निर्माण करते रहना बिल्कुल व्यर्थ था.
पिछले साल अक्तूबर में, डीडीए ने नरेला के लिए क़रीब 825 करोड़ रुपए मूल्य की परियोजनाएं मंजूर की थीं, जिनमें एक जल आपूर्ति लाइन का निर्माण, तूफानी जल निकासी-सीवरेज, चारदीवारें, स्ट्रीट लाइट्स आदि शामिल हैं.
डीडीए की ओर से जारी बयान में कहा गया था, ‘2021-22 के वार्षिक बजट में, खर्च का एक खासा बड़ा हिस्सा नरेला सब-सिटी के लिए चिन्हित किया गया… चूंकि ये एक प्राथमिकता क्षेत्र है’.
डीडीए की बजट प्राप्तियों से पता चलता है कि एजेंसी ने नरेला के लिए 2017-2018, 2018-2019, तथा 2019-2020 तीनों वर्षों में 200-200 करोड़, और 2020-21 में 207 करोड़ रुपए आवंटित किए थे. लेकिन, डॉक्युमेंट्स से पता चलता है कि वास्तविक खर्च कम रहा है.
निवासियों ने दिप्रिंट को बताया कि रोज़मर्रा की जिंदगी अभी भी ‘खराब प्लानिंग’ से जुड़े मुद्दों से घिरी रहती है.
पहले हवाला दिए गए कुमार ने दिप्रिंट के लीकेज दिखाते हुए कहा, ‘हमारे सीवेज सिस्टम को देखिए जो इलाक़े में चल रही निर्माण गतिविधियों की वजह से ब्लॉक हो गया है. लैट्रिन का पानी बहकर वापस हमारे घरों में आ जाता है. इससे बहुत सी बीमारियां पैदा हो सकती हैं’.
व्यवसायी देव कटारिया, जिनके नरेला में दो डीडीए फ्लैट्स हैं, उन्हें दोहरी निराशा है.
उन्होंने कहा, ‘कोई भी उस धूल प्रदूषण पर ध्यान नहीं दे रहा है, जो निर्माण परियोजनाओं और हमारे घरों के इतने पास लगी फैक्ट्री से पैदा हो रहा है- न तो प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, न दिल्ली सरकार और न केंद्र. लोग यहां इसलिए नहीं रह रहे हैं, क्योंकि ये रहने के लायक ही नहीं है’.
एक और आम शिकायत है कनेक्टिविटी का अभाव.
नरेला में एक डीटीसी बस स्टॉप है जिसे नरेला टर्मिनल कहा जाता है और जहां से 24 अलग अलग जगहों को बसें जाती हैं. लेकिन सबसे नज़दीकी मेट्रो स्टेशन- येलो लाइन पर जहांगीरपुरी- कम से कम 19 किलोमीटर दूर है और वहां पहुंचने में 30 से 50 मिनट लग जाते हैं.
निवासी नूर फातिमा ने कहा, ‘मेट्रो लाइन की तैयारी जैसी कुछ कोशिशें की गई हैं लेकिन अभी तक कोई बदलाव नहीं आया है. मेट्रो होने से यहां पर ज़्यादा लोग रहने आएंगे’.
उनके अनुसार, नरेला के साथ बहुत सारी दिक्कतें हैं क्योंकि ये एक ‘बाहरी इलाका’ है, इसलिए इसका रोहिणी और द्वारका की तरह विकास नहीं हुआ.
यहां पर दो शॉपिंग सेंटर मौजूद हैं लेकिन वो बहुत बेसिक किस्म के हैं और सबसे नजदीकी थिएटर करीब 11 किलोमीटर दूर है.
सतेंद्र सिंह ने कहा, ‘यहां पर थिएटर या मॉल्स जैसा कोई मनोरंजन नहीं है. हर चीज़ बहुत दूर है…रोहिणी या जनकपुरी में, जो करीब 15-20 किलोमीटर दूर हैं. केवल एक छोटा सा नरेला मार्केट है, जहां से लोग अपनी सारी चीजे खरीदते हैं’.
शहरी मामलों के मंत्रालय के आधीन एक स्वायत्त इकाई, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स (एनआईयूए) के वरिष्ठ शैक्षणिक सलाहकार केटी रवींद्रन ने दिप्रिंट से बात करते हुए स्वीकार किया कि नरेला को द्वारका की तरह अच्छे से प्लान नहीं किया गया, जो उनके अनुसार ‘काफी सफल’ रहा था.
उन्होंने कहा, ‘द्वारका की प्लानिंग ज्यादा गंभीर तरीके से की गई और उसमें बेहतर सुविधाएं मौजूद हैं’. उन्होंने आगे कहा कि उसमें ‘सुविधाएं भी बेहतर’ हैं.
घोष का तर्क था कि किसी भी जगह के कामयाब होने के लिए दो चीज़ों की जरूरत होती है- अच्छे स्कूल और अच्छे अस्पताल. वहां पर निजी और सरकारी स्कूलों की संख्या तो पर्याप्त नज़र आती है, लेकिन अस्पतालों की संख्या कम है.
गोल्डन अपार्टमेंट के पास उपलब्ध सुविधाओं की बात करते हुए सिंह ने कहा, ‘मेरे बच्चे केंद्रीय विद्यालय जाते हैं लेकिन वहां पर सीमित सीटें हैं, इसलिए सभी छात्रों को वहां दाख़िला नहीं मिल सकता और कुछ लोग निजी शिक्षा की फीस वहन नहीं कर सकते. पास में एक अस्पताल है लेकिन वहां उचित सेवा नहीं मिलती. वो बस गंभीर मरीज़ों को दूसरे अस्पतालों को रेफर कर देते हैं’.
नाम छिपाने की शर्त पर दिप्रिंट से बात करते हुए, डीडीए के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी ने, जो 90 के दशक में सब-सिटी प्रोजेक्ट के शुरुआती दिनों में एजेंसी के प्लानिंग विभाग के प्रमुख थे कहा कि उन्हें अभी भी समझ नहीं आता कि नरेला लोकप्रिय क्यों नहीं हुआ. उनके अनुसार ये जगह ‘शानदार’ है, यहां पर सभी जरूरी सुविधाएं मौजूद हैं और इसकी ‘अच्छी कनेक्टिविटी’ भी है.
उन्होंने कहा, ‘जब इस प्रोजेक्ट का निर्णय लिया गया था, तो मेट्रो को नरेला से होकर गुजरना था लेकिन बाद में उसे बदलकर रोहिणी की ओर कर दिया गया. हमने सोचा कि इसे अगले चरण में लिया जाएगा. इसलिए नरेला परियोजना को मेट्रो लाइन की अपेक्षा करते हुए तैयार किया गया था. लेकिन उसके बावजूद उसके दिल्ली के साथ पहले से ही रेलवे संपर्क मौजूद था. लोकल ट्रेनें तो हैं, ना? इसके एक ओर बड़ा बवाना औद्योगिक क्षेत्र है और दूसरी ओर नरेला औद्योगिक इकाइयां हैं. इसलिए ये एक वर्क सेंटर भी है’.
ये पूछने पर कि लोग वहां जाने से क्यों झिझकते हैं, उन्होंने कहा कि ये सब पसंद की बात है और अगर मेट्रो जैसे ‘दूसरे विकास कार्य’ तेजी से हो जाते, तो हो सकता है कि उससे फर्क पड़ जाता.
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‘अपराध का केंद्र’
निवासियों का कहना है कि बाकी शहर से अलग-थलग होने और खराब इनफ्रास्ट्रक्चर ने नरेला को अपराध की एक नर्सरी बना दिया है.
नूर फातिमा ने कहा, ‘अपार्टमेंट परिसर के बाहर रात में मुझे हमेशा डर लगा रहता है कि अंधेरे में कोई मुझे पकड़ लेगा. ये इलाक़ा बहुत असुरक्षित है, बाहर कोई लाइटें नहीं हैं और अगर मैं अपने परिवार के साथ गाड़ी में हूं, तो भी बहुत डर लगता है’.
राम वीर यादव जो दो साल से नरेला में रह रहे हैं, उन्हें भी अपने बच्चों और पत्नी के लिए डर लगता है, क्योंकि स्ट्रीट लाइट्स न होने की वजह से ‘बहुत अंधेरा’ हो जाता है, और यहां पर चोरी आम है.
उन्होंने कहा, ‘मॉल्स और मार्केट्स की बजाय यहां पर शराब की दुकानें हैं. चोर पर्स छीन लेते हैं, और उसका सामान बेंचकर अपने लिए शराब खरीद लेते हैं’.
रवींद्रन ने भी कहा कि अपराध एक बड़ा कारण है, जिसकी वजह से लोग नरेला जाकर बसने से ठिठकते हैं.
उन्होंने कहा, ‘मैंने डकैतियों, ताला तोड़ने, और दूसरे अपराधों के बारे में सुना है. एक कारण ये है कि नरेला सीमा से क़रीब है, इसलिए चोरों को आसानी से भागने का रास्ता मिल जाता है. इस जगह की एक और समस्या है अंतिम मील की कनेक्टिविटी, जिसका मतलब है कि लोगों को पैदल चलकर ज़्यादातर जगहों को पहुंचना पड़ता है’.
आधिकारिक रुख: जल्द आ रही मेट्रो और सड़क
डीडीए कुछ समय से कहती आ रही है कि नरेला ‘विकास के लिए प्राथमिकता क्षेत्र’ है, और कुछ प्रमुख सुधार होने जा रहे हैं.
निवासियों के दावों के बारे में पूछे जाने पर डीडीए प्रवक्ता बिजय शंकर पटेल ने कहा कि उनके मुद्दे परस्पर विरोधी लगते हैं, क्योंकि एक ओर वो विकास की कमी की शिकायत करते हैं, और दूसरी ओर विकास से संबंधित बहुत अधिक निर्माण कार्यों की शिकायत करते हैं.
पटेल ने कहा, ‘इतने सारे घर बनाने में समय लगता है. उन घरों से विकास होगा. डीडीए कोई रियल एस्टेट कंपनी नहीं है…अगर हम इन कम पहुंच वाले क्षेत्रों का विकास नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा? निजी कंपनियां ऐसे दूर-दराज़ क्षेत्रों में निवेश नहीं करेंगी’.
उन्होंने द्वारका और रोहिणी की सफलता की कहानियों की मिसाल दी.
उन्होंने कहा, ‘जब आप द्वारका को देखते हैं तो आपको अच्छा लगता है, दिल्ली के दूसरे हिस्से भीड़ भरे लगते हैं. डीडीए ने यही किया है. हमने बहुत सारी सुविधाओं का निर्माण किया है- रोहिणी खेल परिसर को देखिए, बहुत से लोगों को ऐसे फायदे नहीं मिलते’.
इसी साल डीडीए ने स्वीकार किया था कि दूसरे उप-नगरों की अपेक्षा यहां की आवासीय योजनाएं ‘कम पसंद’ की गईं, लेकिन मेट्रो से जुड़ने के साथ ही ये स्थिति बदल जाएगी.
इसी उद्देश्य से, इस अप्रैल में खबर दी गई थी कि नरेला में एक नई मेट्रो लाइन बनाने के लिए डीडीए ने दिल्ली मेट्रो रेल कॉरपोरेशन (डीएमआरसी) को 130 करोड़ रुपए का भुगतान किया था.
2019 में, केंद्रीय आवास एवं शहरी मामलों के मंत्री हरदीप सिंह पुरी ने ऐलान किया था कि अगले कुछ महीनों में योजना को मंज़ूरी मिल जाएगी.
उन्होंने कहा था कि ‘नरेला के जी-2 और जी-8 सेक्टरों में डीडीए फ्लैट्स खरीदने वाले लोगों की एक बड़ी चिंता सार्वजनिक परिवहन की कमी को लेकर थी’ और इस कॉरिडोर से ‘नरेला को फायदा पहुंचेगा, जिसे एक भुतहा शहर की उपाधि मिल गई है और जहां डीडीए के बनाए हुए अधिकतर फ्लैट्स खाली पड़े हैं’.
लेकिन, एक वरिष्ठ डीएमआरसी अधिकारी ने नाम छिपाने की शर्त पर दिप्रिंट से कहा, कि केंद्र ने अभी तक रिठाला-बवाना-नरेला मेट्रो कॉरिडोर को मंज़ूरी नहीं दी है, और उसकी मंजूरी मिलने के बाद ही इसकी बारीकियों पर काम किया जाएगा.
उन्होंने कहा, ‘रिठाला-नरेला कॉरिडोर सरकार से मंज़ूरी का इंतज़ार कर रहा है. प्रस्ताव के अनुसार, ये कॉरिडोर 22.9 किलोमीटर लंबा होगा, और इसमें 19 मेट्रो स्टेशन होंगे’.
पहले हवाला दिए गए पूर्व डीडीए आयुक्त (प्लानिंग) ने आगे कहा, कि रोड कनेक्टिविटी में भी सुधार आने की अपेक्षा है.
उन्होंने आगे कहा, ‘एक योजनाकार के तौर पर मेरा मानना है कि यहां पर सभी आवश्यक सुविधाएं मौजूद हैं, लोकेशन के हिसाब से भी और कनेक्टिविटी के हिसाब से भी, चूंकि अब अर्बन एक्सटेंशन रोड भी बनने जा रही है’.
वो आने वाली ‘दिल्ली की तीसरी रिंग रोड’ की ओर इशारा कर रहे थे, जिसकी योजना एक दशक पहले तैयार की गई थी, और जिससे राष्ट्रीय राजधानी के अंतिम उत्तरी छोर से आईजीआई एयरपोर्ट होते हुए दक्षिण दिल्ली तक का सफर आसान हो जाएगा. 2022-2023 के अपने बजट में, डीडीए ने इस सड़क के लिए 725 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं, जिससे तीन उप-नगरों से दिल्ली के दूसरे हिस्सों में आना जाना आसान हो जाएगा.
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