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Friday, 15 November, 2024
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मोदी-शी शिखर सम्मेलन भारत-चीन के बीच ‘रणनीतिक अविश्वास’ को नहीं रोक सका- पूर्व विदेश सचिव निरुपमा राव

निरुपमा मेनन राव, जो चीन और अमेरिका में भी भारत की पूर्व राजदूत रहीं हैं, ने कहा कि गलवान झड़प की घटना ने द्विपक्षीय संबंधों को प्रभावित किया, लेकिन भारत के लिए चीन के साथ 'सर्जिकल डिकपलिंग' आसान नहीं होगा.

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नई दिल्ली: भारत की पूर्व विदेश सचिव, निरुपमा मेनन राव के अनुसार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के बीच दो दौर के अनौपचारिक शिखर सम्मेलन ने नई दिल्ली और बीजिंग के बीच ‘रणनीतिक अविश्वास’ को समाप्त करने में कोई मदद नहीं की.

दिप्रिंट को दिए एक विशेष साक्षात्कार में, अपनी नई पुस्तक ‘फ्रैक्चर्ड हिमालया: इंडिया तिब्बत चाइना 1949-1962’ पर चर्चा करते हुए, राव ने कहा कि मोदी सरकार को शी प्रशासन के साथ संबंध बनाने में एक अलग दृष्टिकोण अपनाने के लिए दोष नहीं दिया जा सकता है, लेकिन 2018 और 2019 के बीच हुए इन दो अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के वास्तविक परिणाम कभी भी ज्ञात नहीं हो सकेंगे.

राव, जिन्होंने चीन और अमेरिका में भारत के राजदूत के रूप में काम किया है, ने कहा, ‘दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए थे कि उन्हें राजनीतिक स्तर पर अनौपचारिक रूप से मिलना चाहिए ताकि हमारे आपसी रिश्ते को पूरे विस्तार के साथ देखा जा सके. इसलिए मैं उस पहल के लिए किसी भी पक्ष को गलती नहीं ठहराऊंगी.’

पीएम मोदी और राष्ट्रपति शी के बीच 2018 और 2019 में क्रमशः चीन और भारत में दो अनौपचारिक शिखर सम्मेलन किए. इन शिखर सम्मेलनों में, दोनों पक्षों ने सभी मुद्दों – सीमा विवाद से लेकर आपसी व्यापार और अनुच्छेद 370 को निरस्त करने तक – पर अनौपचारिक तरीके से बात की.

राव ने कहा, ‘हम वास्तव में इस बारे में कुछ नहीं जानते कि उन अनौपचारिक शिखर सम्मेलनों के दौरान क्या हुआ? क्या उन्होंने आपसी समझौते के क्षेत्रों को और ठोस बनाया या फिर क्या उन्होंने हमारे बीच के मतभेदों वाले क्षेत्रों को उजागर किया? क्या उन्होंने दोनों देशों के बीच रणनीतिक विश्वास के निर्माण में योगदान दिया या फिर क्या उन्होंने वास्तव में दोनों देशों के बीच रणनीतिक अविश्वास की सीमा को जाहिर कर दिया? असलियत में हम ये सब कुछ नहीं जानते, क्योंकि हम उन चर्चाओं से कभी भी अवगत नहीं थे और शायद अगले कई दशकों तक भी इससे अनभिज्ञ हीं रहेंगे.’

एक तरफ जहां इन शिखर सम्मेलनों के परिणाम अज्ञात हैं, वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की भारतीय हितों के प्रतिकूल गतिविधियां बदस्तूर जारी है. राव ने इस ओर रोशनी डालते हुए कहा, ‘लगभग 2013 के बाद से ही एलएसी के साथ लगी चीनी गतिविधियां, विशेष रूप से लद्दाख में अतिक्रमण काफी बढ़ गया था.’

राव का कहना है की इन गतिविधियों के साथ ही, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में तेजी से हो रहे विकास ने भी नई दिल्ली और बीजिंग के बीच के रणनीतिक अविश्वास की बढ़ोत्तरी में योगदान दिया. इसके अलावा, चीनियों ने मसूद अजहर को आतंकवादी के रूप में सूचीबद्ध करने में भी अड़ंगा डाला और भारत के लिए न्यूक्लियर सप्लाई ग्रुप (परमाणु सामग्री आपूर्तिकर्ता देशों के समूह) में प्रवेश करना भी मुश्किल बना दिया.

राव ने यह भी कहा कि 2019 में भारत द्वारा अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के पूरे मसले पर चीनी प्रतिक्रिया ने दोनों देशों को अलग करने में काफी हद तक योगदान दिया.

इस अनुभवी राजनयिक ने कहा, ‘क्या अनौपचारिक शिखर सम्मेलनों में कभी भी इन सभी बातों पर चर्चा की गयी? … शायद अनौपचारिक शिखर सम्मेलन दोनों देशों के बीच रणनीतिक अविश्वास में हो रही वृद्धि को रोकने में पूरी तरह से सक्षम नहीं थे. दुर्भाग्य से, यही वह गंभीर निष्कर्ष है जो हमें निकालना है.’

हालांकि राव ने माना कि इन दोनों देशों के बीच आपसी बातचीत जारी रहनी चाहिए और सभी मतभेदों को दूर किया जाना चाहिए, मगर उन्होंने जोर देकर कहा कि गलवान वाली भिड़ंत जैसी स्थितियों के फिर से दोहराए जाने की अनुमति नहीं दी जा सकती क्योंकि आज भारत जिस ‘वास्तविक जोखिम’ का सामना कर रहा है वह ‘टकराव का भड़कना’ ही है.


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‘चीन के साथ सर्जिकल डिकपलिंग इतनी आसान नहीं होगी’

विदेश मंत्रालय की पूर्व प्रवक्ता रहीं राव के अनुसार, गलवान घाटी में हुई घटना ने द्विपक्षीय संबंधों पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डाला, लेकिन नई दिल्ली के लिए बीजिंग के साथ ‘सर्जिकल डिकॉप्लिंग’ (आपसी संबंधों में पूरी तरह से विलगाव) करना इतना आसान नहीं होगा.

ज्ञात हो कि 15 जून 2020 को चीनी सैनिकों के साथ हुए हिंसक झड़प में भारत ने एलएसी के पूर्वी लद्दाख सेक्टर में अपने 20 सैनिकों को खो दिया. यह 1975 के बाद उन देशों के बीच पहली ऐसी घटना थी जिसमें किसी भी पक्ष द्वारा खून-खराबा किया गया था.

मगर राव ने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि आपसी संबंधों को लगे इस तगड़े झटके के बावजूद, चीन वस्तुओं के निर्यात के मामले में भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बना हुआ है.

उन्होंने कहा, ‘हम अब चीन से डिकॉप्लिंग (अलग होने) की बात कर रहे हैं. जहां तक व्यापार का संबंध है, ऐसी कोई बात दिखती नहीं… वह वस्तुओं के व्यापार के मामले में हमारा सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार बना हुआ है और इस तरह की डिकॉप्लिंग रातों रात नहीं हो सकती.’

उन्होंने आगे कहा कि कुछ ऐसी ही ‘व्यावहारिक कठिनाईयां’ मौजूद हैं, और इसलिए, यह ‘सर्जिकल डिकॉप्लिंग आसानी से नहीं हो सकती, लेकिन चीन के साथ व्यापार तब तक सामान्य रूप से जारी नहीं रह सकता जब तक कि सीमा पर चल रहे गतिरोध को हल नहीं किया जाता है.

राव ने यह भी कहा कि गलवान वाली घटना के साथ ही सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति और संयम बनाए रखने के लिए भारत और चीन के बीच बनी आपसी समझ ख़त्म हो गई है.

वे कहती हैं, ‘चीनी वार्ताकारों की कई पीढ़ियों को भारतीय वार्ताकारों की इन्हीं पीढ़ियों जैसे ही इस (सीमा) विवाद के इतिहास की घुट्टी पिलाई गयी है. दोनों पक्षों के पास इस समस्या के प्रति परस्पर विरोधी दृष्टिकोण हैं.‘ पर वे यह भी मानती हैं कि सीमा समझौते 1993 में, और उससे पहले भी उपयोगी साबित हुए.

उन्होंने कहा, ‘1993 के समझौते बाद से, और उससे पहले भी, बॉर्डर प्रोटोकॉल ने काफी अच्छी तरह से काम किया. जून 2020 तक 45 साल से हमने एलएसी पर कोई रक्तपात नहीं देखा था. वह सिलसिला आज टूट सा गया है.’

पर इन पूर्व राजनयिक का कहना है कि इस तरह के मतभेदों को और अधिक बढ़ने नहीं दिया जाना चाहिए.

राव ने कहा, ’एलएसी के आस-पास के इन मतभेदों को अगर और अधिक बढ़ने दिया गया, तो वे आगे चलकर और भी टकरावों का कारण बन सकते हैं. मुझे लगता है कि हमें इस सब से बचना चाहिए. हमने देखा है कि कैसे गालवान वाली झड़प ने हमारे आपसी रिश्ते को कम-से-कम दो साल के लिए पीछे धकेल दिया है.’

‘भारत अब अधिक आक्रामक चीन का सामना रहा है’

राव के अनुसार, चीन और रूस के विपरीत, भारत और चीन द्वारा अपने सीमा विवाद का समाधान नहीं कर सकने का प्राथमिक कारण यह है कि नई दिल्ली और बीजिंग के बीच विरोधाभासी क्षेत्रीय दावे काफी ज्यादा हैं.

उन्होंने कहा, ‘भारत-चीन सीमा विवाद में दोनों पक्षों के क्षेत्रीय दावों का दायरा बहुत, बहुत बड़ा है … हम इस समस्या को आसानी से कैसे हल कर सकते हैं?’

अपनी बात को रेखांकित करते हुए वे कहती हैं, ‘मैं अभी यह नहीं देख पा रहीं हूं कि इस संबंध के भविष्य में क्या समाया है? क्योंकि खासतौर पर चीनी पक्ष ने इतना अधिक बाहुबल दिखाने वाला, आक्रामक और विस्तारवादी रवैया अपनाया हुआ है… आप इसे भारत-प्रशांत क्षेत्र के समुद्री माहौल में हुए बदलाव के रूप में देख सकते हैं और आप इसे आज-कल भारत के साथ जारी सीमा विवाद के रूप में जमीन पर भी देख सकते हैं.’

उन्होंने कहा, ‘भारत आज एक कहीं अधिक आक्रामक चीन का सामना रहा है और चीनी प्रभाव की सीमा भी 1950 या 1960 के दशक की तुलना में कहीं अधिक हो गई है. बीजिंग को यह समझना चाहिए कि इंडो-पैसिफिक में उभरी नयी रणनीतिक बनावट यहां लम्बे समय तक रहने वाली है.‘

उन्होंने कहा, ‘चीनियों को यह समझने की भी जरूरत है कि आचार संहिताओं का पालन किया जाना होता है.’


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‘नेहरू न तो बिस्मार्क थे और न हीं किसिंजर’

भारत-तिब्बत-चीन मुद्दे को एक ‘तीन-शरीर की (त्रिपक्षीय) समस्या’, जैसा कि उनकी पुस्तक में उल्लेख किया गया है, के रूप में संदर्भित करते हुए राव ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा निभाई गई भूमिका के बारे में कोई सरल निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते हैं.

उन्होंने कहा, ‘हम नेहरू के बारे में संकीर्ण या सीमित नजरिये से नहीं देख सकते. इसमें कोई संदेह नहीं है कि नेहरू मेरे कथानक (पुस्तक में) में एक केंद्रीय पात्र हैं. वह एक दुख भरे नायक की तरह हैं, एक बहुत ही त्रुटिपूर्ण नायक हैं, जिसमें उसकी सभी कमियां शामिल हैं. लेकिन कुछ हद तक मेरा यह भी मानना है कि राष्ट्रीय उद्देश्य के प्रति उनके समर्पण पर संदेह नहीं किया जा सकता है या फिर उस पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है.’

नेहरू के इस विचार कि चीन के साथ रणनीतिक रूप से मेल-मिलाप एक सकारात्मक विदेश नीति वाला कदम होगा कि पीछे छिपे कारणों के बारे में बताते हुए कि राव ने कहा कि उन्होंने उस दौर में काम किया जब भारत सदियों के औपनिवेशिक शासन से बाहर आ ही रहा था.

वे कहती हैं, ‘यद्यपि यह नीतिगत चूकों और नीति निर्माण में कमजोरियों के रूप में चिन्हित की गई अवधि थी, मगर हमें उन परिस्थितियों को समझना होगा जिनमें नेहरू ने ये निर्णय लिए थे.’

उन्होंने कहा, ‘हमारा देश बहुत युवा था, हम अभी भी अपनी राष्ट्रीयता को सुदृढ़ कर रहे थे. विकास संबंधी चुनौतियां थीं, गरीबी उन्मूलन की चुनौतियां थीं, लगभग तीन शताब्दियों तक चले औपनिवेशिक वर्चस्व के कहर के बाद पुनर्निर्माण की चुनौती भी सामने थीं.’

इस बारे में विस्तार से बताते हुए राव ने कहा, ‘हां यह सच है कि नेहरू चीन के प्रति बहुत आदर्शवादी थे. उन्होंने दो सभ्यताओं की साझेदारी की कल्पना की, (लेकिन) वह (जर्मन राजनयिक ओटो वॉन) बिस्मार्क नहीं थे, वह (अमेरिकी राजनयिक हेनरी) किसिंजर भी नहीं थे. उन्होंने चीन को एक उभरते राष्ट्र और भारत के समकक्ष देश के रूप में देखा.’

राव ने कहा, ‘हालांकि नेहरू कोई बड़े रणनीतिकार नहीं थे, पर उन्होंने यह भी महसूस किया कि हमें चीन को हावी नहीं होने देना चाहिए और एशिया में बुनियादी रूप से भारत और चीन के बीच की ही चुनौती थी.’

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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