नई दिल्ली : ‘मैं अभी भी वह 13 साल का लड़का ही हूं और दुनिया मेरे लिए एकदम नई है. जेल का समय ज्यादा मायने नहीं रखता है.’ यह कहना है 41 साल के नारायण चेतनराम चौधरी का, जिसने अपने जीवन के आखिरी 28 साल जेल में बिताए हैं.
चौधरी को पिछले महीने नागपुर सेंट्रल जेल से रिहा किया गया था. सुप्रीम कोर्ट ने पुष्टि करते हुए कहा था कि जब सितंबर 1994 में, उसे पुणे में पांच महिलाओं, जिसमें से एक महिला गर्भवती थी और दो बच्चों की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था, उस समय वह किशोर था. और उसका नाम निरानाराम चेतनराम चौधरी था.
चौधरी ने मौत की सजा के साथ लगभग 25 साल जेल में बिताए. इस बीच वह पुणे की यरवदा सेंट्रल जेल और नागपुर सेंट्रल जेल के बीच घूमता रहा. जहां 12 फीट X 10 फीट का कमरा ही उसकी दुनिया थी.
उसने दिप्रिंट के साथ हुई एक बातचीत में बताया कि अब उसके पास जीवन की एक नई उम्मीद और बहुत कुछ करने की लिस्ट है.
वह केरल और लास वेगास की सैर पर जाना चाहता है, फास्ट एंड फ्यूरियस फिल्में देखना चाहता है और बिहार का लोकप्रिय डिश लिट्टी चोखा ट्राई करना चाहता है.
चौधरी को जब जेल में डाला गया था तब वह अनपढ़ था. उसके मुताबिक, वह हमेशा से ‘समय के साथ चलने’ वाला शख्स रहा है.
सलाखों के पीछे रहते हुए उसने खुद से अंग्रेजी और मराठी पढ़ना सीखा. अखबारों और किताबों को पढ़ना शुरू किया. खुद को न सिर्फ रोजमर्रा की खबरों से, बल्कि फैशन ट्रेंड और बॉलीवुड गपशप से भी अप टू डेट रखा.
उसके मुताबिक, वह एक दिन में पांच न्यूजपेपर पढ़ लिया करता था और इसी दौरान 800 से ज्यादा उपन्यास पढ़ डाले. इसमें चेतन भगत और दुर्जोय दत्ता जैसे भारतीय लेखकों के साथ-साथ सिडनी शेल्डन और डेविड बाल्डेची जैसे विदेशी लेखकों के उपन्यास भी शामिल हैं.
उसने दिप्रिंट को बताया, ‘ये किताबें मेरा मनोरंजन करती थीं. उनमें से कुछ में लव ट्रायंगल थे … हमारे दिमाग में 24 घंटे एक अनिश्चितता बनी होती है. इस तरह की किताबें हमें (जेल के कैदियों को) सजा और अपनी परेशानियों को भूलने में मदद करती हैं. जब हम विदेशी लेखकों को पढ़ते हैं, तो भारत के बाहर की संस्कृति को समझ पाते हैं.’
जेल में रहते हुए चौधरी ने सोशल साइंस में बीए की डिग्री ली और सोशियोलॉजी में एमए किया. ओपन युनिवर्सिटी से पर्यटन और गांधी अध्ययन पर एक कोर्स भी किया.
और सबसे बड़ी बात पढ़ने की इस ललक ने उसे जेल से बाहर निकलने का रास्ता खोजने में भी मदद की.
यह भी पढे़ं : क्यों SC ने RSS के मार्च के लिए मद्रास हाईकोर्ट की हरी झंडी के खिलाफ दायर याचिका को खारिज कर दिया
निरानाराम कैसे बना नारायण
चौधरी की उम्र उस समय साढ़े 12 साल थी, जब उसे 1994 में राजस्थान के बीकानेर जिले के जलाबसर से हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. फरवरी 1998 में पुणे की एक अदालत ने उसे दोषी ठहराया और मौत की सजा सुनाई. उस पर एक वयस्क के तौर पर मुकदमा चलाया गया था और चार्जशीट में उसकी उम्र 20 साल बताई गई थी.
चौधरी ने अदालत के सामने दावा किया था कि उसके पास सबूत है कि वह घटना के समय पुणे में नहीं था.
चौधरी को गिरफ्तार किए जाने से पहले उसकी यात्रा का विवरण स्पष्ट नहीं है. चौधरी ने दिप्रिंट को बताया कि छोटी उम्र में ही वह जलाबसर में अपने घर से भाग गया था और कुछ समय के लिए पुणे में रहा.
चौधरी ने कहा कि जब उसने पुणे में रहना शुरू किया तो लोग उसे नारायण कहने लगे. क्योंकि शहर के लोगों को उसके मूल नाम निराणाराम को बोल पाना मुश्किल लगता था.
इसलिए उसे नारायण के रूप में पहचाना जाने लगा. यह तब तक रहा, जब तक कि स्कूल प्रमाणपत्र और अन्य दस्तावेजों ने 2019 में अदालत के सामने उनके असली नाम और उम्र की पुष्टि नहीं की.
1998 और 2000 के बीच चौधरी ने अपनी दोषसिद्धि के खिलाफ अपील की थी. लेकिन बॉम्बे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया था. उसकी एक समीक्षा याचिका को भी खारिज कर दिया गया था.
उसे दो अन्य लोगों जीतू और राजू के साथ गिरफ्तार किया गया था. इसमें से राजू ने ट्रायल के दौरान सरकारी गवाह बनना स्वीकार कर लिया था और उसे माफी दे दी गई थी.
चौधरी का कहना है कि जेल जाने से पहले के समय के बारे में उन्हें अब ज्यादा कुछ याद नहीं है.
उसने दिप्रिंट को बताया कि गिरफ्तारी के बाद जब उनके परिवार से संपर्क किया गया, तभी वह फिर से अपने परिवार से मिल पाया था.
जेल में रहते हुए चौधरी को पढ़ने का जुनून हो गया था. उसने याद करते हुए बताया, मैंने अपने पिता से अपने स्कूल के दस्तावेज जेल भेजने के लिए कहा था, ताकि शिक्षा पाठ्यक्रमों में दाखिला ले सकूं.
वह कहते हैं कि इन प्रमाणपत्रों ने उनके असली नाम निरानाराम की यादें ताजा कर दीं. और तभी उन्हें एहसास हुआ कि जब 1994 में उन्हें गिरफ्तार किया गया तो वह वास्तव में एक किशोर थे.
इस तरह से निरानाराम की वास्तविक उम्र और पहचान को साबित करने के लिए उनका संघर्ष शुरू हुआ. एक ऐसा नाम जिसे वह लंबे समय से भूल चुके थे लेकिन उनके सभी दस्तावेजों का हिस्सा था.
अदालत ने निरानाराम की पहचान की पुष्टि की
अपनी उम्र साबित करने के तरीकों की तलाश में चौधरी ने अगस्त 2005 में पुणे की यरवदा जेल में एक जेल महानिरीक्षक से मेडिकल परीक्षण के लिए अनुरोध किया. 24 अगस्त 2005 की इसकी रिपोर्ट में कहा गया है कि वह उस तारीख तक ’22 साल से अधिक लेकिन 40 साल से कम उम्र का’ था.
चौधरी ने दिप्रिंट को बताया कि बाद के सालों में उन्होंने कई अधिकारियों के सामने अपनी उम्र साबित करने के लिए इस तरह के अन्य प्रयास किए थे.
2015 में किशोर न्याय अधिनियम (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) संसद द्वारा पारित किया गया था.
तीन साल बाद अक्टूबर 2018 में चौधरी ने नए पेश अधिनियम के तहत एक आवेदन दायर किया, जिसमें शीर्ष अदालत से अनुरोध किया गया कि वह गिरफ्तारी के समय 1994 में किशोर था.
अपनी याचिका दाखिल करने में उसे प्रोजेक्ट 39ए से मदद मिली. यह दिल्ली में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में एक क्रिमिनल जस्टिस प्रोग्राम है, जिसने पहली बार 2014 में चौधरी का मामला उठाया था.
जनवरी 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने पुणे में प्रधान जिला और सत्र न्यायाधीश को यह जांच करने और रिपोर्ट करने का निर्देश दिया कि गिरफ्तारी के समय चौधरी वास्तव में किशोर थे या नहीं.
मार्च 2019 में पुणे के न्यायाधीश ने एक विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की उसमें निष्कर्ष निकाला गया कि चौधरी अपने अपराध के समय 12 साल और 6 महीने का था.
रिपोर्ट में कहा गया है कि ‘नारायण चेतनराम चौधरी वही व्यक्ति है जिसका दूसरा नाम निरानाराम चेतनराम चौधरी है’.
न्यायाधीश ने राजस्थान में चौधरी के स्कूल से ट्रांसफर सर्टिफिकेट, स्कूल द्वारा जारी बर्थ सर्टिफिकेट, स्कूल रजिस्टर की एक कॉपी और बीकानेर में तहसीलदार द्वारा जारी अन्य दस्तावेजों सहित कई दस्तावेजों की जांच की.
चौधरी की जन्म तिथि 1 फरवरी 1982 पाई गई.
जज की रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए जस्टिस केएम जोसेफ, अनिरुद्ध बोस और हृषिकेश रॉय की सुप्रीम कोर्ट बेंच ने इस साल 27 मार्च को एक फैसला सुनाया, जिसमें चौधरी को अपराध के समय किशोर घोषित किया गया था.
फैसले में न्यायाधीशों ने स्वीकार किया कि ‘अन्य कारक जो हमारे दिमाग में आ रहे हैं कि क्या 12 साल का लड़का ऐसा जघन्य अपराध कर सकता है’.
हालांकि, अदालत ‘इस तरह के अधिनिर्णय प्रक्रिया की अटकलों’ को रोकने के लिए सावधान थी.
चूंकि 2015 के अधिनियम में कहा गया है कि एक किशोर को मौत की सजा नहीं दी जा सकती है, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने चौधरी को दी गई मौत की सजा को अमान्य कर दिया और उसे रिहा करने का निर्देश दिया गया.
यह भी पढ़ें : कुछ जज आलसी होते हैं, फैसले में वर्षों लगाते हैं और कॉलेजियम कार्रवाई नहीं करता: SC के रिटायर्ड जज चेलमेश्वर
कानून सजा को अमान्य करने की अनुमति देता है
1994 से चौधरी की जेल की इस लंबी यात्रा में कानून के साथ संघर्ष में, किशोरों पर कानून – किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम – 2000 में अधिनियमित किया गया था. सालों तक इसे संशोधित किया गया और फिर 2015 में पूरी तरह से नया रूप दिया गया था.
2015 के अधिनियम में कहा गया है कि जब 16 साल से कम उम्र के कानून का उल्लंघन करने वाला बच्चा जघन्य अपराध करता पाया जाता है, तो उसे अधिकतम तीन साल के लिए एक विशेष गृह में रहने की सजा दी जा सकती है. ‘विशेष गृह में रहने की अवधि के दौरान शिक्षा, स्किल डेवलपमेंट, काउंसलिंग, बिहेवियर मॉडिफिकेशन थेरेपी और साइकेट्रिक सपोर्ट सहित सुधारात्मक सेवाएं दी जाती है’.
2015 के अधिनियम की धारा 9 – जिसके तहत चौधरी ने अपना आवेदन दायर किया था – कहती है कि एक अभियुक्त कथित अपराध के समय किसी भी अदालत के समक्ष और किसी भी स्तर पर, यहां तक कि मामले के अंतिम निस्तारण के बाद भी किशोर होने की दलील दे सकता है.
इसलिए कानून किसी भी अभियुक्त को, जो अपराध की तारीख पर एक बच्चा पाया जाता है, 2015 अधिनियम के तहत सभी लाभों का लाभ उठाने की अनुमति देता है, भले ही मामला तब तक अंतिम रूप से तय हो गया हो, और भले ही व्यक्ति पहले ही व्यस्क होने की उम्र तक पहुंच चुका हो.
अधिनियम में यह भी कहा गया है कि अगर अदालत को पता चलता है कि अपराध के समय कोई व्यक्ति बच्चा था, तो उसे किशोर न्याय बोर्ड को विवरण भेजना चाहिए. और अगर अदालत ने व्यक्ति के खिलाफ कोई सजा सुनाई है, तो सजा को ‘प्रभावी नहीं माना जाएगा’.
इसलिए, जबकि सजा अभी भी कायम है, कानून सजा को अमान्य करने की अनुमति देता है.
चौधरी का कहना है कि वह उन सभी के शुक्रगुजार हैं जिन्होंने सालों तक उनकी मदद की – प्रोजेक्ट 39ए की टीम से लेकर सुप्रीम कोर्ट के जजों तक, जिन्होंने उनकी रिहाई का आदेश पारित किया.
लगभग 18 साल इंतजार करने के बाद जब उसने पहली बार यह साबित करने की कोशिश की कि वह अपने अपराध के समय किशोर थे, उसने दिप्रिंट को बताया: ‘मुझे लगता है कि भारत में कानून के दो सेट हैं – एक अमीरों के लिए और दूसरा गरीबों के लिए . वे उनकी (अमीरों) सुन रहे हैं और मेरे जैसे लोग लाइन में इंतजार कर रहे हैं.
‘यहां सिर्फ हताशा है’
जेल में रहने के दौरान चौधरी प्रोजेक्ट 39ए की टीम को पत्र लिखा करता था.
दिप्रिंट द्वारा देखे गए 3 अप्रैल, 2022 के ऐसे ही एक पत्र में वह लिखते हैं- ‘आप जानते हैं मैडम, मैं नरक में समय बिता रहा हूं, यहां सिर्फ हताशा है. सलाखों के पीछे न तो अच्छा खाना मिल रहा है…मुझे गहरी निराशा ने घेर लिया है क्योंकि मैं जेल में अपनी उम्र को बढ़ते हुए देख रहा हूं, मैंने अपनी जवानी के समय को उसके नरक में खो दिया है.
वह बड़े-बड़े अक्षरों में पत्र लिखा करता था. क्योंकि उसने कर्सिव राइटिंग में लिखना नहीं सीखा था.
इसी पत्र में उसने अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और रूस-यूक्रेन युद्ध पर अपने विचार देते हुए लिखा था कि ‘आज की दुनिया विश्व स्तर पर स्वीकृत नेतृत्व की कमी का सामना कर रही है.’
उसने ऑस्ट्रेलियाई एक्शन थ्रिलर लेखक मैथ्यू रेली की पुस्तकें भेजे जाने का भी अनुरोध किया था.
ऐसे ही एक अन्य पत्र में अपने वकीलों को बताया था कि उसने 1997 में हिंदी व मराठी और 2010 में अंग्रेजी में समाचार पत्र पढ़ना शुरू किया था.
जेल को ‘डायस्टोपियन’ बताते हुए उसने लिखा था, ‘2015 के बाद से मेरे पास पढ़ने के लिए ज्यादा कुछ नहीं आ रहा है. … कभी-कभी मुझे पढ़ने के लिए कुछ भी नहीं मिलता है तो मैं एटलस उठा लेता हूं और दुनिया के नक्शे और विभिन्न देशों की राजधानियों, उनकी भाषा, प्रोडक्शन और डेवलपमेंट को समझने की कोशिश करता हूं..
‘मेरे लिए सबसे बड़ी सजा’
चौधरी अब एक नए जीवन की ओर देख रहे हैं और उन सभी चीजों को लेकर उत्साहित हैं जो उन्हें तलाशनी हैं. उनके पास पहली बार फोन आया है. वह अब फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप चला रहे हैं.
दिल्ली में चौधरी ने वेगास मॉल का दौरा किया. लेकिन उनका कहना है कि वह अभी भी इस दुनिया में फिट होने के तरीकों का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘यह मेरे लिए यह एक नई दुनिया है … मुझे लोगों के बीच चलने में सावधानी बरतनी पड़ती है, ताकि मैं किसी से न टकराऊं. मुझे लगता है कि अन्य लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि उन्हें इसकी आदत हैं, लेकिन मैं लोगों के बीच नहीं गया हूं. मैं कभी भीड़-भाड़ वाली जगहों पर नहीं चला हूं.’
उसने जेल में अपना ज्यादातर समय पढ़ने में बिताया, वे अनुभवों के बजाय किताबों के जरिए दुनिया को समझते हैं. अब लोगों को एक-दूसरे के साथ बातचीत करते हुए देखकर उस अंतर को पूरा करने की कोशिश कर रहे हैं.
उन्होंने कहा, ‘मैं लोगों के साथ इस तरह से बातचीत करने की कोशिश कर रहा हूं जिससे उन्हें चोट न पहुंचे. मैं यह सुनिश्चित करने की कोशिश करता हूं कि मैं कुछ भी अपमानजनक न कहूं, खासकर महिलाओं के लिए … मैं यह भी देखने की कोशिश कर रहा हूं कि मेरे आसपास के लोग एक-दूसरे के साथ कैसे बातचीत करते हैं और फिर उसी तरह से व्यवहार करने की कोशिश करता हूं. मैं अभी सीख रहा हूं.’
अखबारों और किताबों के जरिए चीजों को सीखते हुए वह इतने सालों में अपनी मूल भाषा को भूल गया है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं अब अपनी मां से सीधे तौर पर बात नहीं कर पाता हूं क्योंकि मुझे अब राजस्थानी भाषा नहीं आती है . मैं इसे बचपन में बोलता था लेकिन अब इसे भूल गया हूं. इसलिए मैं अपने भतीजों से अनुवादक के रूप में काम करने के लिए कहता हूं.’
वह उदास होकर कहता है, ‘इतने लंबे समय तक जेल में रहने के बाद, आज मैं अपनी मां से उस भाषा में बात नहीं कर सकता जिसे वह समझती हैं. यह मेरे लिए सबसे बड़ी सजा है.’
(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढे़ं: 2008 के जयपुर धमाकों में बरी हुए लोगों के परिवार ने कहा- 15 साल बाद यह रमज़ान रोशनी लेकर आया है