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Sunday, 5 May, 2024
होमदेश2008 के जयपुर धमाकों में बरी हुए लोगों के परिवार ने कहा- 15 साल बाद यह रमज़ान रोशनी लेकर आया है

2008 के जयपुर धमाकों में बरी हुए लोगों के परिवार ने कहा- 15 साल बाद यह रमज़ान रोशनी लेकर आया है

मोहम्मद सैफ, सेरुर्रहमान अंसारी, मोहम्मद सलमान और सरवर आज़मी ने 15 साल जेल में बिताए हैं और इस मामले में निचली अदालत ने उन्हें मौत की सजा सुनाई थी.

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नई दिल्ली: बुधवार को राजस्थान उच्च न्यायालय ने 2008 के जयपुर विस्फोट मामले में एक ट्रायल कोर्ट द्वारा पूर्व में मौत की सजा सुनाए गए चार लोगों को बरी कर दिया. कोर्ट का फैसला आने के बाद उनके परिवार, जो उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ के गांव में रहते हैं, के आंखों में खुशी के आंसू छलक पड़े. गिरफ्तार किए जाने के बाद चारों, जिनकी उम्र उस वक्त 20 के आसपास थी, ने पिछले 15 साल जेल में बिताए हैं. उन्हें 2019 में मौत की सजा दी गई थी.

अन्य चार को बरी करते हुए, राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि मामले की जांच ‘त्रुटिपूर्ण, घटिया और जांच दल की ओर से चूक थी’.

हालांकि, एक प्रश्न चिह्न अभी भी घूम रहा है कि क्या चारों- मोहम्मद सैफ, सैफुर्रहमान अंसारी, मोहम्मद सलमान और सरवर आज़मी- जल्द ही जेल से बाहर निकलेंगे, क्योंकि उनके खिलाफ कई अन्य मामलें भी दर्ज हैं. 

फिर भी, चारों के परिवारों के लिए, बुधवार को उच्च न्यायालय का फैसला एक ‘उम्मीद की किरण’ लेकर आया है.

सैफ के पिता शादाब अहमद (मिस्टर के नाम से लोकप्रिय) ने दिप्रिंट को बताया, ‘इतने सालों के बाद, आखिरकार उम्मीद की किरण दिखी है. उन्हें बाटला हाउस एनकाउंटर मामले में गिरफ्तार किया गया था और फिर उन्होंने बाकी सब कुछ उन्हीं पर मढ़ दिया. ये 15 साल हमारे लिए एक सजा की तरह रहे हैं. हर रमजान, हर ईद, हमारे घर में सिर्फ मातम छाया रहता है. हमें उम्मीद थी कि ट्रायल कोर्ट भी यह समझेगा कि कैसे सब कुछ उन पर टिका हुआ है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.’

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13 मई, 2008 को, जयपुर में हुए सिलसिलेवार बम धमाकों में 71 लोग मारे गए थे और 185 लोग घायल हो गए थे. सिलसिलेवार बम धमाके माणक चौक खांडा, चांदपोल गेट, बड़ी चौपड़, छोटी चौपड़, त्रिपोलिया गेट, जौहरी बाजार और सांगानेरी गेट पर हुए थे. मीडिया रिपोर्टों और उच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार बमों को मंदिरों और पुलिस थानों के पास भीड़भाड़ वाले बाजारों में साइकिलों पर रखा गया था.

14 मई 2008 को, विस्फोटों के एक दिन बाद, इंडियन मुजाहिदीन ने टीवी चैनल- इंडिया टीवी और आज तक को भेजे गए ईमेल के माध्यम से विस्फोट की ज़िम्मेदारी ली थी.

मामले में कुल नौ प्राथमिकी दर्ज की गई थीं, जिनमें से आठ में से चार को बरी कर दिया गया है.

पांचवें आरोपी, शाहबाज़ हुसैन को पहले ट्रायल कोर्ट ने ‘सबूतों की कमी के कारण’ बरी कर दिया था और अब कहा जाता है कि वह लखनऊ में रह रहा है. उनके बरी होने के फैसले को भी हाईकोर्ट ने बरकरार रखा है.

अदालत ने राजस्थान पुलिस के महानिदेशक को जांच में ‘त्रुटियों’ के लिए जांच दल के दोषी अधिकारियों के खिलाफ उचित जांच या अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने का निर्देश भी दिया है.’

दिप्रिंट ने कॉल और टेक्स्ट संदेशों के माध्यम से राजस्थान के पुलिस महानिदेशक उमेश मिश्रा से बातचीत करने की कोशिश की, लेकिन इस रिपोर्ट के प्रकाशन तक उनकी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. जवाब मिलने पर कॉपी को अपडेट कर दिया जाएगा.

‘आशा की किरण’

फरवरी 2019 में, सैफ को 2008 के अहमदाबाद विस्फोट मामले में मौत की सजा दी गई थी, जिसमें 56 लोग मारे गए थे. वह उसी साल दिल्ली के बाटला हाउस एनकाउंटर मामले में भी आरोपी है.

उनके परिवार के अनुसार, सैफ जो प्राचीन इतिहास में मासटर्स है, अंग्रेजी और कंप्यूटर सीखने के लिए 2008 में दिल्ली आया था.

मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, जांच एजेंसियों का मानना है कि उनके सबसे बड़े भाई, शाहनवाज़ आलम जो एक यूनानी चिकित्सक थे, सीरिया में मारे गए थे, क्योंकि सैफ की गिरफ्तारी के बाद से उनका ठिकाना अभी तक पता नहीं चला है.

सैफ 13 भाई-बहनों में चौथे नंबर पर हैं. अहमदाबाद मामले में उनके सह-दोषियों में से एक सैफुर्रहमान है. वह भी आजमगढ़ से ही है.

जयपुर मामले में बुधवार को बरी होने वाले तीसरे आरोपी आज़मी हैं, जो उनके परिवार के अनुसार इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में स्नातक हैं, जिन्हें 2009 में उज्जैन से एक आईटी कंपनी में शामिल होने के चार दिन बाद गिरफ्तार किया गया था.

आज़मी के चाचा मोहम्मद अजीम ने आरोप लगाया, ‘उन्होंने (पुलिस ने) दिखाया (कागज पर) कि उन्हें चार दिन बाद लखनऊ से गिरफ्तार किया गया था.’

उन्होंने कहा, ‘उन्होंने उनके और हमारे जीवन के 15 साल नष्ट कर दिए हैं. शिक्षा का क्या मतलब अगर आखिर में उसे इस तरह सलाखों के पीछे बर्बाद करना पड़े. हमें खुशी है कि न्याय मिला है, लेकिन न्याय काफी देर से मिला.’

अजीम ने आगे कहा, ‘उसके पिता गणित के लेक्चरर हैं और तभी से डिप्रेशन में हैं. सभी समुदायों के लोग उनका सम्मान करते थे और पुलिस तथा प्रशासन ने उनकी प्रतिष्ठा पर इतना बड़ा धब्बा लगा दिया. लेकिन हाई कोर्ट के फैसले से लगता है कि हमारा बुरा वक्त खत्म हो गया है. यह रमजान (इस्लामी पवित्र महीना जो इस सप्ताह के शुरू में शुरू हुआ) हमारे जीवन में रोशनी लेकर आया है.’

बुधवार को बरी होने वाले चौथे व्यक्ति मोहम्मद सलमान को नवंबर 2008 में जयपुर मामले में गिरफ्तार किया गया था. अपने परिवार को याद करते हुए, पांच भाई-बहनों में सबसे बड़े, सलमान को 12 वीं कक्षा पास करने के तुरंत बाद गिरफ्तार कर लिया गया था.

उनके बरी होने के बाद दिप्रिंट से बात करते हुए उनके भाई मोहम्मद अज़ीज़ुर रहमान ने कहा, ‘हम जो महसूस कर रहे हैं उसे कैसे व्यक्त करें? हम कैसे कह सकते हैं कि हमारे माता-पिता कैसा महसूस कर रहे हैं? एक फर्जी मामले में 15 साल के लिए अपने बेटे को खोने की कल्पना करें. हम बस यही चाहते हैं कि वह आखिरकार साफ आसमान के नीचे चले. यह एक उम्मीद की किरण है.’

इसी पीठ द्वारा पारित एक अन्य आदेश में, अदालत ने यह भी फैसला सुनाया कि जयपुर धमाकों के समय सलमान किशोराव्यवस्था में था.

ये चारों जयपुर सेंट्रल जेल मारपीट मामले में भी आरोपी हैं. सैफुर्रहमान के वकील मिन्हाज उल हक के मुताबिक, जेल अधिकारियों के खिलाफ क्रॉस एफआईआर भी दर्ज की गई थी. मामला निचली अदालत में रुका हुआ है.

‘घटिया जांच, चकाचौंध भरी खामियां’

हाईकोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड किए गए 130 पन्नों के फैसले में, राजस्थान उच्च न्यायालय ने कहा कि जयपुर विस्फोट मामला ‘संस्थागत विफलता का एक उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसके परिणामस्वरूप दोषपूर्ण/त्रुटिपूर्ण/घटिया जांच हुई’.

इसमें कहा गया, ‘हमें डर है कि जांच एजेंसियों की विफलता के कारण पीड़ित होने वाला यह पहला मामला नहीं है और अगर चीजों को जारी रखने की अनुमति दी जाती है, तो यह निश्चित रूप से आखिरी मामला नहीं होगा जिसमें घटिया जांच के कारण न्याय प्रभावित होता है.’ 

जांच में ‘स्पष्ट चूक’ की ओर इशारा करते हुए, अदालत ने आगे कहा, ‘जांच एजेंसी अपने कर्तव्यों के निर्वहन में बुरी तरह विफल रही है. उन्होंने खराब प्रदर्शन किया है. जांच न केवल त्रुटिपूर्ण थी, बल्कि घटिया भी थी और कानून के प्रावधानों के साथ-साथ उनके अपने नियमों की भी अनदेखी की गई थी. उन्होंने इस मामले में कठोर तरीके से काम किया जो वर्दीधारियों और पदों पर बैठे लोगों के लिए अशोभनीय है.’

इसके बाद अदालत ने आगे कहा कि इस मामले में जांच एजेंसी को ‘उनकी लापरवाही, सतही और अक्षम कार्यों के लिए जिम्मेदार/जवाबदेह बनाया जाना चाहिए’.


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‘बाहर के गवाह’

फैसले के मुताबिक सैफ को जयपुर धमाकों के चार महीने बाद सितंबर 2008 में दिल्ली में बाटला हाउस एनकाउंटर के दौरान गिरफ्तार किया गया था.

इसमें कहा गया है कि दिल्ली पुलिस द्वारा की गई जांच के दौरान, सैफ ने कथित तौर पर जयपुर धमाकों में अपनी संलिप्तता का खुलासा किया. साथ ही धमाकों में नौ अन्य आरोपी भी शामिल थे. उसके बाद राजस्थान में जयपुर मामलों (नौ मामले दर्ज किए गए) के लिए उन पर मुकदमा चलाया गया.

यह आरोप लगाते हुए कि जयपुर धमाकों के आरोपी एक-दूसरे को जानते थे और 11 मई को समूहों में जयपुर आए थे ताकि उन जगहों की टोह ली जा सके, जहां वे बम लगाने वाले थे, अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि उन्होंने 12 मई को दिल्ली के बाटला हाउस में बम बनाए. 13 मई को जयपुर गया और उसी दिन अजमेर शताब्दी एक्सप्रेस से ‘फर्जी हिंदू नामों’ के साथ लौटा. अभियोजन पक्ष की टिप्पणियों को फैसले में शामिल किया गया है.

उच्च न्यायालय ने कहा कि जांच एजेंसियों ने दिल्ली पुलिस की हिरासत में कथित तौर पर सैफ द्वारा दिए गए प्रकटीकरण बयानों पर बहुत भरोसा किया था. हालांकि, यह नोट किया गया था कि एक पुलिस अधिकारी के सामने किया गया ऐसा ‘कबूलनामा’ 1872 के साक्ष्य अधिनियम के तहत सबूत के रूप में स्वीकार्य नहीं है.

किसी भी मामले में, अदालत ने कहा कि उनके प्रकटीकरण बयान में ‘सामान्य मुस्लिम नामों का इस्तेमाल किया गया था’ और यह सह-षड्यंत्रकारियों की पहचान का खुलासा नहीं करता है.

इसी तरह, अन्य तीन आरोपियों के पुलिस इकबालिया बयानों को भी अदालत ने खारिज कर दिया.

अभियोजन पक्ष ने दावा किया था कि एक साइकिल कंपनी के एक कर्मचारी ने पहचान परेड के दौरान सैफ की पहचान उस व्यक्ति के रूप में की थी जिसने विस्फोटों में इस्तेमाल की गई साइकिलों में से एक को कथित तौर पर खरीदा था. हालांकि अदालत ने कहा कि शिनाख्त विस्फोट के सात महीने बाद की गई थी. 

अभियोजन पक्ष के अनुसार, कर्मचारी ने दावा किया था कि वह हर उस व्यक्ति को याद कर सकता है जिसने पिछले 10 वर्षों में उससे साइकिल खरीदी थी. हालांकि, अदालत ने कहा कि ‘उनका दावा और गवाही बहुत प्रभावी नहीं है और वह बाहर से लाया हुआ गवाह लगता है.’

जबकि अभियोजन पक्ष ने बताया था कि उस कर्मचारी ने सैफ को उसके चेहरे पर एक निशान के आधार पर पहचाना था. अदालत ने कहा कि मजिस्ट्रेट द्वारा की गई परीक्षण पहचान परेड रिपोर्ट में सैफ के चेहरे पर ऐसे किसी विशिष्ट निशान का उल्लेख नहीं किया था.

निर्माण और जोड़तोड़

अभियोजन पक्ष ने यह भी दावा किया था कि अन्य आरोपियों की पहचान उन लोगों ने भी की थी जिन्होंने उन्हें विस्फोटों में इस्तेमाल की गई साइकिलें बेची थीं.

हालांकि अदालत ने कहा कि इस सबूत को खारिज करने की जरूरत है क्योंकि साइकिल की बिक्री दर्ज नहीं की गई थी, और इसका पहचान भी अत्यधिक देरी से किया गया था. साथ ही यह पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में आयोजित किया गया था तो इसकी संभावना है कि आरोपी को दिखाया गया था गवाह, गवाही से इंकार नहीं कर सकता.

अदालत ने कहा, ‘गवाहों की याददाश्त धुंधली थी क्योंकि उन्होंने अदालत के सामने बयान दिया था कि वे उन खरीदारों की पहचान नहीं कर सकते हैं, जिन्होंने कुछ दिन पहले साइकिल खरीदी थी. उन परिस्थितियों में कुछ मिनटों के लिए एक खरीदार को देखना और फिर कई महीनों के बाद उसकी पहचान करना मानवीय रूप से असंभव था और इस प्रकार उनके सबूतों पर अदालत ने अविश्वास किया है.’

बम लगाने के लिए साइकिलों की बिक्री और उपयोग को साबित करने के लिए अभियोजन पक्ष ने साइकिल की दुकानों के बिल बुक पेश किए थे, जिनसे कथित तौर पर साइकिलें खरीदी गई थीं. हालांकि, अपने सामने पेश किए गए बिलों की जांच करते हुए, अदालत ने पाया कि उसमें ‘कई चीजें मिसिंग थी, जैसे कि फ्रेम नंबरों का बेमेल होना, बिक्री की तारीख मनगढ़ंत प्रतीत होना और हेरफेर जैसे कारण’.

उच्च न्यायालय ने कहा कि सैफ की गिरफ्तारी तक अभियोजन पक्ष के पास जयपुर बम विस्फोटों के संबंध में कोई लिंक या सुराग नहीं था. इसने आगे बताया कि अभियोजन पक्ष ने यह साबित करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं किया था कि अभियुक्तों के बीच कोई समझौता हुआ था या उनके बीच कोई ‘बैठक’ हुई थी. इसलिए यह दावा किया गया कि अभियोजन अभियुक्तों के बीच एक आपराधिक साजिश को साबित करने में विफल रहा है.

एक अलग सहमति वाली राय में न्यायमूर्ति भंडारी ने कहा कि आरोपी द्वारा दिल्ली और जयपुर के बीच की गई कथित यात्रा भी ‘निर्णायक रूप से साबित’ नहीं हुई थी, और यात्रा को साबित करने के लिए कोई सीसीटीवी फुटेज या कॉल विवरण प्रस्तुत नहीं किया गया था.

अदालत ने ‘पीड़ा और हताशा की डिग्री को भी स्वीकार किया जो सामान्य रूप से समाज और विशेष रूप से पीड़ितों के परिवारों के लिए इस तथ्य के कारण हो सकता है कि इस तरह का जघन्य अपराध अप्रभावित रहता है’. हालांकि, यह देखा गया कि ‘कानून अदालतों को नैतिक विश्वास या केवल संदेह के आधार पर अभियुक्तों को दंडित करने की अनुमति नहीं देता है’.

इसलिए, अदालत ने जोर देकर कहा कि ‘जांच निष्पक्ष नहीं थी और ऐसा प्रतीत होता है कि जांच एजेंसियों द्वारा नापाक साधनों का इस्तेमाल किया गया था, घटनाओं को उजागर करने के लिए आवश्यक भौतिक गवाहों को रोक दिया गया था और जांच के दौरान स्पष्ट हेरफेर और मनगढ़ंत किया गया है.’

(संपादन: ऋषभ राज )

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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