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Sunday, 3 November, 2024
होमदेश‘अन्याय, ऑरवेलियन’—EWS आरक्षण से SC/ST, OBC को ‘बाहर रखने’ पर असहमत जजों ने क्या कहा

‘अन्याय, ऑरवेलियन’—EWS आरक्षण से SC/ST, OBC को ‘बाहर रखने’ पर असहमत जजों ने क्या कहा

बहुमत के फैसले से असहमत जजों ने यह दलील खारिज कर दी कि ईडब्ल्यूएस कोटे में एससी, एसटी और ओबीसी को शामिल करने से उन्हें ‘दोहरा लाभ’ होगा. साथ ही कहा कि सामाजिक तौर पर पिछड़ी जातियों को मिलने वाले लाभ को ‘फ्री पास’ की तरह नहीं देखा जाना चाहिए.

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नई दिल्ली: आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) पर सोमवार को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले में असहमति जताने वाले न्यायाधीशों ने एससी, एसटी और ओबीसी को ईडब्ल्यूएस कोटे से बाहर करके उन्हें ‘पराया’ बना देने की आलोचना की है. साथ ही कहा है कि इस तरह की कवायद ‘पूर्व की अक्षमताओं पर आधारित नया अन्याय है.’

अदालत ने 3:2 के बहुमत के साथ 103वें संविधान संशोधन को बरकरार रखा, जिसके तहत शिक्षा और सरकारी नौकरियों में ईडब्ल्यूएस को 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है.

इसमें बहुमत का फैसला जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी और जस्टिस जेबी पारदीवाला ने सुनाया.

जस्टिस रवींद्र भट की तरफ से लिखी गई और देश के चीफ जस्टिस यू.यू. ललित ने कहा, ‘कोटा इस आधार पर असंवैधानिक और निष्प्रभावी है कि यह संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है.’

103वें संवैधानिक संशोधन के तहत अनुसूचित जातियों (एससी), अनुसूचित जनजातियों (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की नॉन-क्रीमी लेयर से इतर आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए अधिकतम 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है.

दोनों न्यायाधीशों ने अपने अल्पमत फैसले में स्पष्ट किया कि वैसे अनुच्छेद 15 के तहत शैक्षणिक संस्थानों में ‘आर्थिक आधार’ पर मिलने वाला आरक्षण संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन नहीं है. हालांकि, उनका जोर इस बात पर रहा कि इसे लागू करने का तरीका संविधान के बुनियादी ढांचे या मूल विशेषताओं के खिलाफ होगा. उनके मुताबिक, ऐसा इसलिए क्योंकि एससी, एसटी और ओबीसी को ईडब्ल्यूएस कोटे से बाहर कर दिया गया है, क्योंकि ये संविधान के अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) के तहत आते हैं.

उन्होंने कहा कि ‘इस तबके को ऐसे पूरी तरह बाहर रखना ऑरवेलियन प्रभाव वाला होगा. इसे और स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि ‘गरीब तबके से आने वाले सभी लोगों को उनकी जाति या वर्ग पर की परवाह किए बिना आरक्षण का हकदार माना जाना चाहिए लेकिन यहां केवल अगड़ी जातियों या वर्गों के लोगों को आरक्षण का लाभ देने पर विचार किया जाएगा, और अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति जैसे सामाजिक रूप से वंचित वर्गों के लोग इसके पात्र नहीं होंगे.’

अल्पमत फैसले में इस बात पर भी जोर दिया गया कि नए कोटा में अपात्रता संबंधी मानदंड ‘सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों, खासकर एससी/एसटी के प्रति भेदभावपूर्ण हैं, क्योंकि गरीबों की सबसे ज्यादा इसी वर्ग में है.’

दोनों न्यायाधीशों ने इस दलील को भी ठुकरा दिया कि एससी/एसटी/ओबीसी को ईडब्ल्यूएस कोटा में शामिल करने का नतीजा यह होगा कि उन्हें ‘दोहरा लाभ’ मिलेगा.

उन्होंने कहा कि संविधान के तहत अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/ओबीसी को मिलने वाले लाभों को किसी ‘फ्री पास’ की तरह नहीं देखना चाहिए, बल्कि इसे ‘सामाजिक रुढ़ियों के कारण असमान स्थिति में रहने वालों को समान अवसर मुहैया कराने वाले एक साधन के तौर पर देखा जाना चाहिए.’


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आरक्षण व्यवस्था ने पीढ़ियों से जारी गलतियां सुधारी

असहमति जताने वाले जजों ने जोर देकर कहा कि आरक्षण की व्यवस्था ‘केवल इसलिए की गई थी कि संपूर्ण समुदायों और जातियों के साथ पीढ़ियों से जो कुछ भी गलत होता आ रहा है और जिसने गहरी जड़ें जमा ली हैं, उसे दुरुस्त किया जा सके.’ उन्होंने कहा कि पिछड़े वर्गों और एससी/एसटी को आर्थिक आरक्षण के लाभों से बाहर रखने वाला प्रावधान, ‘समानता और भाईचारे के सिद्धांत के खिलाफ है, जो समानता और गैर-भेदभावपूर्ण जीवन जीने के अधिकार का आधार है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘आरक्षण का प्रावधान समान पहुंच और समान अवसर उपलब्ध कराने वाले एक शक्तिशाली उपकरण के तौर पर किया गया था. एक नए मानदंड के तौर पर आरक्षण के लिए आर्थिक आधार तय करना स्वीकार्य है. फिर भी, एससी, एसटी और ओबीसी सहित सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े अन्य वर्गों को इस आधार पर नए आरक्षण के दायरे से बाहर करना कि वे पहले से मौजूद व्यवस्था का लाभ पा रहे हैं, उन पर नए सिरे से अन्याय करने जैसा है.’

जस्टिस भट ने यह भी स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 15 के तहत ‘आर्थिक आधार’ पर आरक्षण की अनुमति है, लेकिन अनुच्छेद 16 के तहत नहीं, जो सरकारी नौकरियों में आरक्षण की बात करता है. क्योंकि अनुच्छेद 16 का लक्ष्य समुदायों के प्रतिनिधित्व के माध्यम से उन्हें सशक्त बनाना है.

न्यायाधीशों ने कहा कि ईडब्ल्यूएस कोटा उनके प्रतिनिधित्व की कमी पर आधारित नहीं है.

उन्होंने कहा कि इसका सीधा मतलब है कि जिन लोगों को ईडब्ल्यूएस कोटे का लाभ हासिल है, वे हर सूरत में उन वर्गों या जातियों से संबंधित हो सकते हैं, जिनकी गिनती ‘अगड़ों’ में होती है और जिन्हें सरकारी नौकरियों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल है.

ST/ST/OBC को उनके आवंटित कोटे तक सीमित करता है’

हालांकि, न्यायाधीशों ने जोर देकर कहा कि पिछड़े वर्गों को बाहर करने वाला संशोधन संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है. उन्होंने कहा, ‘एक व्यक्ति जिसे 10% के नए आरक्षण का लाभ हासिल है, वह किसी भी समुदाय या वर्ग का सदस्य हो सकता है. राज्य उसकी पृष्ठभूमि पर गौर नहीं करेगा और जाहिर है कि उसे ऐसा करना भी नहीं चाहिए.’

अदालत ने कहा कि ‘पिछड़े वर्गों को बाहर रखने वाला प्रावधान पूरी तरह से मनमानी प्रवृत्ति का है.’ उनकी राय में नया कोटा उन लोगों के साथ ‘पराये’ जैसा व्यवहार करता है जिनकी सामाजिक स्थिति सवालों के घेरे में है और जो दकियानूसी प्रथाओं के शिकार हैं. और उन्हें बाहर रखने वाला यह प्रावधान ‘सामाजिक रूप से वंचित वर्गों और जातियों को उनके लिए आवंटित कोटा (एससी के लिए 15%, एसटी के लिए 7.5%, आदि) के दायरे में सीमित करके निश्चित तौर पर उनके साथ अन्याय करता है.’

असहमत जजों ने कहा कि संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त पिछड़े वर्गों और एससी/एसटी समुदायों के नागरिकों को नए कोटे के लाभ से पूरी तरह से बाहर रखना ‘भेदभाव के अलावा और कुछ नहीं है, जो समानता के अधिकार, खासतौर पर गैर-भेदभावपूर्ण सिद्धांत को कमतर करने और खत्म करने के समान है.’

अदालत ने माना कि यह कोटा संविधान में मौजूद समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है, विशेष रूप से गैर-भेदभावपूर्ण और गैर-बहिष्करण के सिद्धांतों का, जो संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं.

आरक्षण सीमा से अधिक होने पर क्या रहा रुख

असहमति जताने वाले न्यायाधीशों ने पाया कि उक्त संशोधन संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन है, शायद इसीलिए उन्होंने आरक्षण 50 फीसदी की सीमा से ऊपर होने को लेकर इसकी वैधता पर कोई व्यवस्था देने की जरूरत नहीं समझी. हालांकि, उन्होंने इस आरक्षण को बरकरार रखे जाने से 50 प्रतिशत की सीमा के उल्लंघन को लेकर एक नोट ऑफ कॉशन जरूर जारी किया.

इस मामले में 50 प्रतिशत का नियम तोड़ने की अनुमति देते हुए उन्होंने यह चेताया भी कि, ‘यह आगे और भी उल्लंघनों का रास्ता’ खोल देगा और ‘फिर समानता के अधिकार को बहुत आसानी से आरक्षण के अधिकार तक सीमित किया जा सकता है.’ डॉ. बी.आर. अम्बेडकर के हवाले से फैसले में यह भी कहा गया कि आरक्षण को अस्थायी और असाधारण व्यवस्था के तौर पर देखा चाहिए अन्यथा वे ‘समानता को खत्म कर देगा.’

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