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Wednesday, 20 November, 2024
होमदेशप्रेमचंद का साहित्य और सत्यजीत रे का सिनेमा: शब्दों से उभरी सांकेतिकता का फिल्मांकन

प्रेमचंद का साहित्य और सत्यजीत रे का सिनेमा: शब्दों से उभरी सांकेतिकता का फिल्मांकन

साहित्य और सिनेमा का जो रिश्ता जुड़ा, उस पर गहराई से नज़र डाली जाए तो ये चर्चा फिल्मकार सत्यजीत रे और साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद के बिना अधूरी जान पड़ती है.

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अनेक तरह की कसौटियों पर जीवन कसा जाता है, जैसे सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक. लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण एक और कसौटी है जिसे हम साहित्यिक कसौटी कहते हैं. साहित्यिक कसौटी पर जीवन की समीक्षा, उसका विश्लेषण और समाज में व्याप्त तमाम बारीकियों की पड़ताल की जा सकती है. और इन्हीं पड़तालों के सशक्त हस्ताक्षर के तौर पर एक ऐसा साहित्यकार नज़र में आता है जिसने समाज के अंतर्द्वंदों, उसकी बुनावटों, बिखराव को पुख्तगी के साथ दर्ज किया और एक ऐसी पैनी दृष्टि दी जो आज भी प्रासंगिक है. वो और कोई नहीं बल्कि मुंशी प्रेमचंद हैं या ये कहें कि वही हो सकते हैं.

साहित्य का फिल्मांकन  करने की विश्व में बड़ी लंबी और समृद्ध परंपरा रही है. जो सजीवता शब्द और चरित्र पैदा करते हैं, उसी का फिल्मांकन एक मजबूत स्मृति बनाती है. भारतीय सिनेमा और साहित्य के बीच लंबे समय से स्मृतियों और सजीवता की डोर बंधी है और समय-समय पर कई फिल्मकारों ने इसे मजबूत ही किया है. इन फिल्मकारों में सत्यजीत रे, मृणाल सेन, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, अपर्णा सेन, बासु चटर्जी, ऋषिकेश मुखर्जी, बुद्धदेब दासगुप्ता समेत कई नामों को शामिल किया जा सकता है.

लेकिन साहित्य और सिनेमा का जो रिश्ता जुड़ा, उस पर गहराई से नज़र डाली जाए तो ये चर्चा फिल्मकार सत्यजीत रे और साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद के बिना अधूरी जान पड़ती है. रे ने बांग्ला में अद्भुत काम किया है लेकिन हिन्दी में उन्होंने सिर्फ दो फिल्में ही बनाई हैं और दोनों ही संयोग या कहें कि पूरी सोच के साथ, प्रेमचंद की कहानियों पर ही आधारित है. 1977 में रे ने शतरंज के खिलाड़ी और 1981 में दूरदर्शन के लिए करीब 45 मिनट की टेलीफिल्म सद्गति बनाई.

मुंशी प्रेमचंद की 141वीं जयंती पर सत्यजीत रे द्वारा उनकी रचनाओं पर बनाई फिल्मों पर दिप्रिंट एक नज़र डाल रहा है.


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साहित्य का ‘शिल्प’ और सिनेमा की ‘टाइमिंग’

साहित्य को सिनेमाई पर्दे पर उतारना एक चुनौती भरा काम है क्योंकि कहानी की टाइमिंग , उसका शिल्प और सिनेमा की टाइमिंग और क्राफ्ट- कहानी के किरदारों और उसके मूल तत्व में अंतर पैदा कर सकता है. ये बेहद महीन लकीर है जो थोड़ी से भी नफासत बिगड़ने से बदरूप हो सकती है. और सबसे ज्यादा जरूरी है जबर्दस्ती के प्रयोगों से बचना.

साहित्य के चरित्र और शब्द सिनेमा के बिम्ब, ध्वनि और रंग के साथ कैसे मेल खाए, ये भी एक बड़ी चुनौती होती है. थोड़ा सा अंतर साहित्य और सिनेमा दोनों के ही मायनों को बेजार कर सकता है. इसके बावजूद समय-समय पर फिल्मकारों ने साहित्य परक फिल्में बनाईं और नए प्रयोग किए. कुछ सफल रहे तो कुछ असफल.

हिन्दी के कवि और विश्व सिनेमा के गहरे जानकार दिवंगत कुंवर नारायण की चर्चित और प्रशंसनीय किताब ‘लेखक का सिनेमा ‘ में वो लिखते हैं, ‘अपने शुरुआती दिनों में सिनेमा साहित्य के अधिक निकट रहा है. अकेले मूक फिल्मों के जमाने में ही शेक्सपियर के नाटकों पर 400 से भी अधिक छोटी-बड़ी फिल्में बन चुकी हैं. एक क्लासिक का बार-बार रचनात्मकता के केंद्र में रहना, या आना, सिर्फ पिछले समयों को ही नहीं, अपने समय को भी बेहतर समझने में मदद कर सकता है.’

लेकिन यहां ये प्रश्न उठाया जाए कि- अगर वर्तमान परिस्थिति पहले जैसी न हो तब ?


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‘सांकेतिकता का फिल्मांकन’

ऐसे में सत्यजीत रे द्वारा प्रेमचंद की कहानी सद्गति  पर बात करना बिल्कुल उचित साबित हो सकता है. प्रेमचंद अपनी हर कहानी की तरह सद्गगति में भी एक सामाजिक प्रश्न को इंगित करते हैं. उनका कथा-शिल्प इतना कसा होता है कि किसी भी बाहरी का प्रवेश असंभव है. शब्दों के सहारे वो कई जगह सीधे अपनी बात रखते हैं तो कहीं उन्हीं शब्दों से जबर्दस्त सांकेतिकता पैदा करते हैं. फिल्मांकन के नज़रिए से सांकेतिकता को उभारना थोड़ा आसान समझा जा सकता है.

सद्गति में प्रेमचंद ने जातिवाद की समस्या को केंद्र में रखा है. जब 1931 में ये कहानी लिखी गई तब का समाज और आज की परिस्थितियों में खासा अंतर है. लेकिन ये बिल्कुल भी नहीं कहा जा सकता कि जातिवाद समाज से खत्म हो गया बल्कि इसके कई विद्रूप पक्ष बार-बार अति-क्रूरता के साथ सामने आते रहे हैं.

उदारवादी और नव-उदारवादी समाज में जातिवाद ने अलग ढंग से काम करना शुरू किया है. ये अभी भी समाज की धुरी बना हुआ है लेकिन जिन जटिलताओं को प्रेमचंद ने उकेरा अब वैसा सामाजिक ढांचा नहीं रहा. काफी कुछ तेजी से बदला है. इसलिए 1981 में जब फिल्मकार सत्यजीत रे इस कहानी को फिल्मा रहे थे तब का समाज भी प्रेमचंद के समाज से काफी आगे निकल चुका था. लेकिन असल चुनौती मूल (प्रेमचंद की कहानी) और संवर्द्धित (रे की फिल्म) कला को पेश करने की थी.

सद्गगति को सत्यजीत रे ने काफी सटीकता से फिल्माया है. उन्होंने कहानी में जरूर कुछ बदलाव किए लेकिन उनसे कहानी बदरूप नहीं हुई बल्कि कहानी के चरित्रों और शब्दों को सजीवता और नयापन ही मिला. जैसे जब पंडित घासीराम (मोहन अगाशे) की बेगारी करते हुए दुखी (ओम पुरी) मर जाता है तब पंडित की चौखट पर झुरिया (स्मिता पाटिल) का विलाप और उसका गुस्सा जिस तरह से निकलता है, वो पूरी तरह से असल कहानी का हिस्सा नहीं है लेकिन सत्यजीत रे दृश्य को मूर्त रूप देने के लिए ये बदलाव करते हुए दिखाए पड़ते हैं, जिसे प्रेमचंद कुछ शब्दों की सांकेतिकता में उभारते हैं.

वहीं जब दुखी लकड़ी चीरते हुए थक जाता है और उसे चिलम की तलब होती है तो वो पंडित के घर के पास किसी गोंड के यहां जाकर तमाखू (तम्बाकू) मांगता है (असल कहानी में). लेकिन सत्यजीत रे दृश्य की क्रमिकता और एकरूपता को न तोड़ते हुए उस गोंड किरदार को नए ढंग से फिल्माते हैं और उसके चेहरे पर एक अलग तरह की व्यंगात्मकता का बोध कराते हैं. जो प्रेमचंद नहीं करा पाते.

कहानी में प्रेमचंद ने अंतिम में काफी कम शब्दों में मार्मिक चित्रण किया है. (उधर दुखी की लाश को खेत में गीदड़ और गिद्ध, कुत्ते और कौए नोच रहे थे. यही जीवन-पर्यन्त की भक्ति, सेवा और निष्ठा का पुरस्कार था). यह उनके शिल्प की व्यापकता को प्रदर्शित करती है. जिसे जब सत्यजीत रे फिल्माते हैं तो अंत के दृश्यों में सांकेतिकता और नाटकीयता पैदा करते हैं. दुखी के शव को जब पंडित घासीराम घसीट कर बाहर ले जाता है और गिद्ध-कौंवे उसे नौंचते हैं- इसे रे ने आवाज़ों के जरिए दिखाया है.

छत्तीसगढ़ के रायपुर (तब के मध्य प्रदेश) में जब सत्यजीत रे इस फिल्म की शूटिंग कर रहे थे तब उन्होंने वहां के गांवों में दशहरे के दौरान रावण की मूर्ति बनाने की परंपरा को भी अपने फिल्म में स्थान देने का विचार किया. सद्गति फिल्म में भी ब्राह्मण के घर के बाहर रावण की विशाल मूर्ति देखने को मिलती है जो प्रतीकात्मक ढंग से रे ने इस्तेमाल की है. ठीक इसी तरह उन्होंने गायों के झंड का भी इस्तेमाल दृश्य को संपूर्णता देने में किया है.

साहित्य और सिनेमा में स्पष्टता, नाटकीयता, चित्रण और सांकेतिकता का घालमेल प्रेमचंद और सत्यजीत रे की कला में बखूबी उभरता है.

लेकिन कुंवर नारायण इसे अलग ढंग से देखते हैं. अपनी किताब लेखक और सिनेमा में वो कहते हैं, ‘प्रेमचंद की कहानी एक इशारे पर समाप्त होती है, जो कि सत्यजीत रे की फिल्म में आते-आते एक विस्तृत दृश्य बन गया है.’

हालांकि एक कलाकार की महानता इसी में व्याप्त है कि उसे कई तरहों से समय-समय पर परिभाषित किया जाता रहता है. अमृत राय द्वारा लिखी प्रेमचंद की जीवनी कलम का सिपाही में उनके पौत्र आलोक राय ने लिखा भी है, ‘प्रेमचंद ने एक नाजुक ऐतिहासिक दौर में, आजादी और आधुनिकता की दहलीज पर ठिठके अपने समाज के साथ ऐसी अंतरंग आत्मीयता स्थापित की जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी, आज भी बरकरार है. यह व्यापक आत्मीयता का आभास ही उस ‘महानता’ का महत्व और राज है- न कि ‘महानता’ के किसी तराजू पर तौला जाना.’

जब प्रेमचंद ने सद्गति  (1931) लिखी और उस समय के जातिवादी समस्या पर जोरदार प्रहार किया तो उनकी खूब आलोचना हुई. इसके जवाब में उन्होंने ‘जीवन और साहित्य में घृणा का स्थान ‘ लेख लिखा.

इसमें उन्होंने लिखा, ‘निंदा, क्रोध और घृणा ये सभी दुर्गुण है लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकाल दीजिये तो संसार नरक हो जायेगा. यह निंदा का ही भय है जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है, यह क्रोध ही है जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है ….घृणा स्वाभाविक मनोवृत्ति है और प्रकृति द्वारा आत्मरक्षा के लिए सिरजी गयी है.’

‘जीवन में जब घृणा का इतना महत्व है, तो साहित्य कैसे उसकी उपेक्षा कर सकता है, जो जीवन का ही प्रतिबिंब है?’


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शतरंज के खिलाड़ी और प्रेमचंद से ‘दूरी’

प्रेमचंद की एक और रचना ‘शतरंज के खिलाड़ी ‘ को जब सत्यजीत रे ने फिल्माया तब एक नए तरह के घालमेल ने जन्म लिया. जिसमें प्रेमचंद की कहानी कहीं पीछे छूटती नज़र आती है और रे का प्रभाव और अवध को लेकर उनकी भावुकता ज्यादा दिखलाई देती है.

प्रेमचंद की कहानी ऐसे शुरू होती है- ‘वाजिदअली शाह का समय था. लखनऊ विलासिता के रंग में डूबा हुआ था.’ कंपनी बहादुर अवध पर कब्जा करना चाहती थी और इसके लिए वाजिदअली शाह को पकड़ने अंग्रेजी सैनिक आ रहे थे लेकिन पूरी रियाया विलासिता के रंग में रंगी थी.

प्रेमचंद ने दो किरदारों के जरिए लखनऊ की नवाबी को दर्ज किया और उसके पतनोन्मुखी होने को उभारा. वहीं सत्यजीत रे ने फिल्म में अवध की नवाबी पर ज्यादा ध्यान दिया जिस कारण वो प्रेमचंद से छिटकते नज़र आते हैं.

कुंवर नारायण ने इसे इस रूप में दर्ज किया है, ‘सद्गति में सत्यजीत रे, प्रेमचंद के साथ-साथ चलते हैं, जबकि शतरंज के खिलाड़ी में उनसे थोड़ा अलग हटकर भी. प्रेमचंद यदि एक स्तर पर पूर्णत: विवराणात्मक हैं तो दूसरे स्तरों पर अत्यंत सांकेतिक भी.’

‘सत्यजीत रे के लिए हिन्दी भाषा की दिक्कत तो थी ही, पर उस तरह चरित्रों और दृष्यों को एक-दूसरे में सटीक ढंग से पढ़ सकने में भी दिक्कत थी जो बंगाल और उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक परिवेश को एक-दूसरे से अलग करते हैं. अवध की नवाबी संस्कृति को लेकर सत्यजीत रे किंचित भावुक भी थे.’

साहित्यिक चित्रण की यही मुश्किलात कई प्रश्नों और बारीकियों को जन्म देती है.


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फिल्मी पर्दे पर प्रेमचंद का ‘कथा साहित्य’

प्रेमचंद के कथा साहित्य ने न केवल आम जीवन को छूआ बल्कि उनके रचे शब्दों का असर फिल्मी पर्दे पर भी जोरदार ढंग से नज़र आया.

प्रेमचंद की मृत्यु के दो साल बाद 1938 में निर्देशक के सुब्रह्मण्यम ने तमिल भाषा में उनके उपन्यास बाजार का हंस को फिल्माया. कहानी की प्रगतिशीलता ने उस समय दक्षिण भारत में ब्राह्मणों में बेचैनी पैदा कर दी थी.

दो बैलों की कथा प्रेमचंद की सबसे चर्चित कहानियों में से एक है. एनसीईआरटी की कक्षा 9वीं की किताब में ये कहानी अभी भी पढ़ाई जाती है. साल 1959 में इस कहानी पर हीरा मोती नाम से फिल्म बनी जिसमें बलराज साहनी और निरुपमा रॉय ने भूमिका निभाई थी. प्रभुत्व वर्ग के शोषण को ये कहानी बयां करती है.

प्रेमचंद का अंतिम उपन्यास गोदान 1936 में प्रकाशित हुआ. उसी साल उनकी मृत्यु भी हुई. हालांकि वो एक और उपन्यास मंगलसूत्र लिख रहे थे जो अधूरी रही और उनकी मौत के कई सालों बाद 1948 में प्रकाशित हुई. गोदान पर फिल्म और सीरियल दोनों बन चुके हैं. लेकिन गुलजार के निर्देशन में बने धारावाहिक ‘तहरीर ‘ ने जो असर पैदा किया वो आज तक भुलाया नहीं जा सकता.

1977 में फिल्मकार मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफन पर तेलुगु फिल्म बनाई जिसका नाम- ओका उरी कथा है. इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.

प्रेमचंद का साहित्य लगातार सिनेमा के जरिए आता रहा है. कई बार कुछ परिष्कृत रूप में. गौरतलब है कि प्रेमचंद भी कुछ समय के लिए सिनेमा से जुड़े थे लेकिन उनका जल्द ही मोहभंग हो गया. मगर बरसों तक फिल्मकारों ने उन्हें पर्याप्त जगह दी.

सिनेमा के बार में प्रेमचंद ने कहा है, ‘साहित्य के भावों की जो उच्चता, भाषा की जो प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुन्दरता की जो साधना होती है, वह हमें वहां नहीं मिलती. उनका उद्देश्य केवल पैसा कमाना है, सुरुचि या सुन्दरता से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं…’

‘अभी वह जमाना बहुत दूर है, जब सिनेमा और साहित्य का एक रूप होगा. लोक-रुचि जब इतनी परिष्कृत हो जायगी कि वह नीचे ले जाने वाली चीज़ों से घृणा करेगी, तभी सिनेमा में साहित्य की सुरुचि दिखाई पड़ सकती है.’

संदर्भ सूची: (1. लेखक का सिनेमा- कुंवर नारायण | 2. कलम का सिपाही- अमृत राय | 3. प्रेमचंद की कहानी- सद्गगति और शतरंज के खिलाड़ी | 4. जीवन और साहित्य में घृणा का स्थान- प्रेमचंद का लेख | 5. प्रेमचंद, सत्यजीत राय और सद्गति- गिरिजाशंकर (सिनेमाज़ी में छपा लेख) | सत्यजीत रे की फिल्में- सद्गति और शतरंज के खिलाड़ी)


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