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Tuesday, 7 May, 2024
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‘मां-बेटी बनी क्लासमेट’, कैसे इस जोड़ी ने शिक्षा के लिए उम्र और डिसेबिलिटी को छोड़ा पीछे

शबनम खान की मां सोनी शुरू में उसे व्हीलचेयर से शौचालय जाने में मदद करने और खाना खिलाने के लिए ही उसके साथ स्कूल जाती थीं. लेकिन अब वह अपनी बेटी के साथ क्लासरूम में बैठकर पढ़ने भी लगी है.

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सोनीपत: व्हीलचेयर पर बैठी 8 साल की शबनम खान स्कूल जाने के लिए तरस रही थी, जब भी वह अपनी दो बड़ी बहनों और एक छोटे भाई को सुबह भूरे रंग की वर्दी पहनकर बाहर निकलते हुए देखती थी. चार साल बाद, आखिरकार वो एक क्लासरूम में बैठी है और वह भी अपनी मां, सोनी खान के साथ.

एक हल्की सर्दी वाला दिन था, छोटे बच्चों का एक झुंड व्यस्त मुख्य सड़क से सोनीपत के सरकारी मॉडल संस्कृति स्कूल की ओर जाने वाली गली की ओर बढ़ रहा था. सोनी और शबनम, अपनी व्हीलचेयर में, टूटी-फूटी और गड्ढों से भरी सड़कों पर चल रही हैं, वहां भीड़ होने के बावजूद भी उन्हें अनदेखा करना थोड़ा मुश्किल है.

ऐसे कई उदाहरण हैं जब राहगीरों ने सोनी को भीख दी. आहत सोनी ने कहा, “सिर्फ इसलिए कि वह व्हीलचेयर पर है, लोग मान लेते हैं कि हम भिखारी हैं. मैं उन्हें बताती हूं कि वह एक छात्रा है, वह स्कूल जाती है.”

शबनम की विकलांगता ने उसके माता-पिता, 35 वर्षीय गृहिणी सोनी और 40 वर्षीय दिहाड़ी मजदूर मुमत्याज़ खान को उसे शिक्षित करने के विचार को छोड़ने के लिए प्रेरित किया था. लेकिन जब जून में एक शाम परिवार खाने के लिए बैठा और शबनम ने धीमे और टूटे वाक्यों में स्कूल जाने की अपनी इच्छा बताई, तो उन्होंने इसे पूरा करने का फैसला किया.

सोनी को पता नहीं था कि स्कूल शबनम को दाखिला देगा या नहीं, लेकिन वह अब अपनी बेटी की इस ख्वाहिश को अनदेखा नहीं करना चाहती थी. सोनी ने रोते हुए कहा, “उस दिन हमने फैसला किया कि हम उसके चलने का इंतज़ार नहीं कर सकते, क्योंकि अगर हम उसके चलने का इंतेज़ार करेंगे और फिर उसे पढ़ाएंगे तो तब तक बहुत देर हो जाएगा.”

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अगले दिन, सोनी शबनम को दाखिला दिलाने के लिए स्कूल ले गई, जहां उनकी 11 और 10 साल की बड़ी बेटियां पहले से नामांकित हैं. शिक्षक शबनम को एडमिशन देने के लिए सहमत हुए, लेकिन एक शर्त के साथ कि कक्षा 3 की पढ़ाई छोड़ने वाली सोनी को भी स्कूल में ही रहना पड़ेगा क्योंकि विकलांग बच्चों के लिए वहां कोई विशेष व्यवस्था नहीं है.

शुरू में, सोनी शबनम को कक्षा के अंदर छोड़ देती थी और उसे शौचालय तक ले जाने और दोपहर के समय उसे खाना खिलाने के लिए बाहर इंतजार करती थी.

The mother and the daughter at a drawing class in the government-run school in Sonipat | Zenaira Bakhsh | ThePrint

लेकिन, कक्षाओं और सीखने के माहौल ने मां को एक और कदम उठाने के लिए प्रेरित किया: खुद को शिक्षित करने के लिए. एक हफ्ते बाद, वह अपनी बेटी के साथ ही क्लासरूम में बैठने लगी. दोनों अब कक्षा 2 के स्टूडेंट हैं. हालांकि सोनी औपचारिक रूप से छात्रा नहीं है, लेकिन अपनी बेटी के साथ वह भी पढ़ना-लिखना सीख रही है.

सोनी ने मजाकिया अंदाज़ में दिप्रिंट को बताया, “हम कक्षा में एक साथ बैठते और सीखते हैं. जब मैं अस्वस्थ होती हूं और अपना होमवर्क नहीं कर पाती, तो शिक्षक मुझे डांटते हैं.”


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सपोर्ट सिस्टम

सोनी कहा, शबनम खाने या पेंसिल पकड़ने जैसी सबसे बुनियादी गतिविधियों के लिए भी पूरी तरह से उन पर निर्भर है, और बाहरी दुनिया के साथ नए संपर्क से वह थोड़ा घबरा भी गई है, जिससे कक्षा में पूरे वाक्यों में बोलना उसके लिए और अधिक कठिन हो गया है.

“वह ज्यादा बात भी नहीं करती लेकिन उसके सहपाठी उसके साथ आकर बैठते हैं. मैं जानती हूं कि वह इससे खुश महसूस करती है.”

शबनम की चिकित्सीय स्थिति से अनजान, रिश्तेदार अक्सर दंपति को सांत्वना देते थे और आश्वस्त करते थे कि वह एक दिन चल सकेगी. लेकिन, उन्होंने जल्द ही हार मान ली और इसके बजाय सोनी से कहा कि चूंकि वह कभी चल नहीं पाएगी, इसलिए परिवार को शबनम पर समय बर्बाद नहीं करना चाहिए और अपने अन्य बच्चों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. ऐसी बातों से वह अक्सर निराश हो जाती है.

डॉक्टरों ने सोनी को बताया कि शबनम का जन्म पीलिया के साथ हुआ, और परिवार की स्वास्थ्य देखभाल तक पहुंच की कमी के कारण वह विकलांग हो गई. दो साल तक सोनी और मुमत्याज़ को उम्मीद थी कि किसी चमत्कार से शबनम फिर से चल सकेगी – लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ.

सरकारी अस्पतालों में जाने से उन्हें आर्थिक रूप से नुकसान हुआ, जबकि निजी अस्पतालों में उपचार की लागत 1 लाख रुपये तक होने का अनुमान था. सोनी ने कहा, “महीने के अंत तक, कभी-कभी हमारे पास खाने के लिए कुछ भी नहीं बचता है, लेकिन बच्चों की शिक्षा हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है.” उन्होंने बताया कि मुमत्याज़ प्रति माह केवल 12,000 रुपये कमाते हैं.

मां ने कहा, “वह वैसी ही है जैसा उसे अल्लाह ने बनाया है. अगर सब कुछ हमारे हाथ में होता तो हम उसे कभी कोई तकलीफ नहीं होने देते.” उन्होंने आगे कहा कि मुमत्याज़ ने अब ठान लिया है कि वह जब तक कर सकते हैं, तब तक अपनी बेटियों को अच्छे से पढ़ाएंगे.

Shabnam's teacher Aarti Singh says teaching the mother-daughter duo together has been an emotional and overwhelming experience | Zenaira Bakhsh | ThePrint

शबनम की क्लास टीचर आरती सिंह ने कहा कि उनके जैसे बच्चे अक्सर घर पर उपेक्षित महसूस करते हैं, खासकर जब उनके परिवार काम में व्यस्त हो जाते हैं, जिससे वे अक्सर डरे हुए रहते हैं. “मुझे नहीं पता कि वह कितना सीख पाएगी, लेकिन कम से कम हम उसके चेहरे पर खुशी देखते हैं.”

वर्तमान में, सिंह शबनम की पकड़ को मजबूत बनाने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं ताकि वह पेंसिल पकड़ सके और शिक्षकों और सहपाठियों के साथ ज्यादा बातचीत कर सके. शबनम के सहपाठियों का कहना है कि उसने ग्रुप क्लास में भाग लेना और शब्दों को दोहराना शुरू कर दिया है.

सिंह ने दिप्रिंट को बताया, “ऐसे बच्चे आमतौर पर बहुत सामाजिक होते हैं. मुझे विश्वास है कि धीरे-धीरे वह ठीक से बोलना शुरू कर देगी.”

शबनम और सोनी को एक ही कक्षा में एक साथ पढ़ाना सिंह के लिए एक नया अनुभव रहा, उन्होंने इसे एक भावनात्मक और अच्छा अनुभव बताया.

दशकों तक, सिंह ने ग्रामीण सोनीपत में महिलाओं को खुद को शिक्षित करने के लिए प्रोत्साहित किया हैं. उन्होंने कहा, “मैं और मेरे साथ कुछ अन्य शिक्षक घर-घर जाते थे और महिलाओं से कक्षाओं में आने का अनुरोध करते थे, लेकिन हर बार हमें मना कर दिया जाता था क्योंकि वे पूछते थे कि अगर वे कक्षाओं में आएंगे तो काम कौन करेगा.” “कई बार तो हमने यहां तक कहा कि अगर महिलाएं कक्षाओं में आएंगी तो हम बर्तन तक धो देंगे.”

वर्षों बाद जब सिंह को इसकी बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी, सोनी ने कक्षा में बैठने और सीखने की अनुमति मांगी. सिंह ने याद करते हुए कहा, “मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के हां कह दिया था.”

दोनों के लिए दूसरा मौका

सोनी के लिए स्कूल और घर संभालना मुश्किल हो गया है. जैसे ही वह घर पहुंचती है, वह तुरंत काम में व्यस्त हो जाती है, लेकिन फिर भी वह अगली सुबह की कक्षाओं के लिए उत्साहित रहती है.

दोनों ने मिलकर हिंदी में रंगों के नाम और अक्षर सीखे हैं और अब दोनों थोड़ा बहुत पढ़ भी सकते हैं, जिस पर सोनी को गर्व है. उन्होंने कहा, “मैंने हाल ही में अपना नाम लिखना सीखा है और यह एक उपलब्धि की तरह लगता है.”

जब सोनी ने हर रोज स्कूल जाना शुरू किया, तो उनमें वह उत्साह और जिज्ञासा वापस आ गई जो उन्होंने बचपन में कभी अनुभव नहीं की थी. “मेरे पति बहुत सपोर्टिव है. उन्होंने कहा कि शिक्षा व्यक्ति को अपनी समस्याओं को बेहतर ढंग से समझने में मदद करती है.”

चार बच्चों की मां सोनी ने कहा कि उन्हें बच्चों के साथ क्लास में बैठना कभी भी अजीब नहीं लगा क्योंकि उन्हें शबनम के पास रहने और हर रोज नई चीजें सीखने का मौका मिलता हैं. सोनी ने हंसते हुए कहा, “जब शबनम की बहनें हमसे क्लास में मिलने आती हैं, तो वह उनसे अपनी कक्षाओं में वापस जाने और उसे परेशान न करने के लिए कहती है.”

सोनी अक्सर अपने पति की मदद करने के लिए नौकरी की तलाश के बारे में सोचती है, लेकिन शबनम की ज़रूरतें उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं देती हैं.

सोनी ने कहा कि पिछले छह महीनों में उन्होंने शबनम के चेहरे पर ऐसी खुशी देखी, जैसी पहले कभी नहीं देखी. उसने धीरे-धीरे अपने आस-पास के बच्चों के साथ बातचीत करना शुरू कर दिया है और एक कविता भी सीखी है. मां ने आशा भरे स्वर में कहा, “सब कुछ इतना अनिश्चित है कि मैंने अब उसके भविष्य के बारे में सोचना बंद कर दिया है, मुझे लगता है कि उसका भविष्य इसी स्कूल से शुरू होगा.”

(संपादन: अलमिना खातून)
(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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