नई दिल्ली: कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार इस बात का संकेत है कि हिंदुत्व विचारधारा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा अब पार्टी के लिए 2024 के लोकसभा चुनावों में क्षेत्रीय पैठ बनाने के लिए “पर्याप्त” नहीं हो सकता है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइज़र के एक संपादकीय में यह कहा गया है.
ऑर्गेनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर ने एक लेख की शुरुआत में लिखा, “कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों ने कई लोगों को चौंका दिया है, हालांकि नतीजे चौंकाने वाले नहीं हैं.”
संपादकीय में कहा गया है, “हालांकि 2024 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी के पक्ष में नतीजे निकालना एक साहसिक प्रस्ताव है, लेकिन यह निश्चित रूप से खासकर विपक्ष और विशेष रूप से कांग्रेस पार्टी का मनोबल बढ़ाएगा.”
इसमें कहा गया है कि अब बीजेपी को अपनी स्थिति का जायजा लेने का सही समय है.
इसमें आगे लिखा गया है, “प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा और हिंदुत्व एक वैचारिक ताकत के रूप में पर्याप्त नहीं होगा.” उन्होंने कहा कि ऐसे कारक “बीजेपी के लिए पॉजेटिव फैक्टर तभी हैं जब राज्य में अच्छा शासन हों.”
इसमें लिखा गया है, “पहली बार जब प्रधान मंत्री मोदी ने केंद्र में सत्ता संभाली है, तभी से बीजेपी को विधानसभा चुनाव में भ्रष्टाचार के आरोपों का बचाव करना पड़ा. सत्ताधारी पार्टी ने राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रमों से मतदाताओं को जोड़ने की पूरी कोशिश की, जबकि कांग्रेस ने इसे स्थानीय स्तर पर बनाए रखने की पूरी कोशिश की.”
आगे लिखा गया है, “भारी मतदान वाले चुनावों में बीजेपी पिछले वोट शेयर में महत्वपूर्ण बढ़ाव बनाने में विफल रही, जिसके परिणामस्वरूप सीटों पर प्रदर्शन काफी खराब रहा. मौजूदा मंत्रियों के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर चिंता का विषय होना चाहिए.”
हिंदू दक्षिणपंथी आवाजों द्वारा पिछले कुछ हफ्तों में उठाए गए अन्य विषयों में नए लोकसभा कक्ष में ‘सेंगोल’ की स्थापना, मणिपुर हिंसा और कवि इकबाल को दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से हटाना शामिल है.
सेंगोल के साथ उत्तर-दक्षिण विभाजन को पाटने की कोशिश
जब पीएम मोदी ने 28 मई को नए संसद भवन का उद्घाटन किया, तो उसमें सबसे चर्चित कार्यों में से एक चोल युग की शैली के राजदंड को लोकसभा कक्ष में स्थापित करना था.
विरोधियों ने दावा किया है कि राजदंड लोकतंत्र को समर्पित एक समारोह के बजाय एक शाही राज्याभिषेक के लिए बेहतर हो सकता है. हालांकि, हिंदू दक्षिणपंथी आवाज़ों ने सेंगोल के प्रतीकवाद का जमकर समर्थन किया.
इस सप्ताह ऑर्गनाइज़र के एक लेख में लिखा गया कि “सेंगोल ने आर्यन-द्रविड़ियन विभाजन” को पाट दिया. खासकर जब पीएम मोदी को तमिल परंपराओं को ध्यान में रखते हुए अधीनम धर्मगुरुओं को समारोह में आमंत्रित किया.
यह बताता है, “तमिलनाडु में आबादी के एक बड़े हिस्से पर इन अधिनामों का बहुत बड़ा प्रभाव है.”
इसमें लिखा गया है, “सेंगोल भारत एक ऐसा प्रतीक बन सकता है जो भारत को विभाजित करने वाली दीवारों को तोड़ता है और लोगों को करीब लाने में मदद करता है. इससे भारत और भारतीयों के सांस्कृतिक, सभ्यतागत और राजनीतिक एकीकरण को बढ़ाया जा सकता है.”
इस बीच, द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित एक संपादकीय में, आरएसएस के विचारक राम माधव ने तर्क दिया कि सेंगोल की “ऐतिहासिकता” पर बहस बंद करना महत्वपूर्ण था, बल्कि इसके बजाय “धर्म दंड” के रूप में इसके महत्व पर विचार करना जरूरी था.
माधव ने तर्क दिया, “भारतीय सभ्यता की परंपरा जहां नैतिक और आध्यात्मिक अधिकार मात्र राजनीतिक शक्ति से अधिक महत्व रखते हैं, दुर्भाग्य से, ऐतिहासिक अवसर कुछ विपक्षी दलों की हठधर्मिता से प्रभावित है. उनका आग्रह है कि प्रधान मंत्री के पास नई संसद का उद्घाटन करने का कोई अधिकार नहीं है. भारतीयों को सत्ता के हस्तांतरण का प्रतिनिधित्व करने वाले सेंगोल को जवाहर लाल नेहरू ने 1947 में प्रधान मंत्री के रूप में प्राप्त किया था, भले ही संविधान सभा के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद उनके बगल में खड़े थे.”
माधव ने आगे जोर देकर कहा कि प्रधानमंत्री न केवल अपने संबंधित राजनीतिक दलों बल्कि पूरे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं. संसद स्वयं देश के राजनीतिक अधिकार का प्रतीक है, प्रधान मंत्री उस प्राधिकरण का नेतृत्व करते हैं.
उन्होंने लिखा, “भारतीय राज्याभिषेक अनुष्ठानों के अनुसार, राजा, औपचारिक रूप से सिंहासन पर चढ़ने के बाद, तीन बार घोषणा करेगा: अंदंद्योस्मि, कोई भी मुझे दंडित नहीं कर सकता. फिर पुजारी अपने पवित्र राजदंड, धर्म दंड के साथ आगे आएगा, धीरे से राजा के मुकुट पर थपथपाएगा और तीन बार घोषणा करेगा कि “धर्म दंड्योसी”- जिसका अर्थ है “धर्म आपको दंड देगा”.
उन्होंने तर्क दिया, “सेंगोल ने धर्म दंड की उस परंपरा का प्रतिनिधित्व किया. 1947 में, यह केवल अंग्रेजों से नेहरू को सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक नहीं था.”
‘मणिपुर के गांव में हिंदू कहां गए?’
मणिपुर में चल रहे जातीय संघर्षों के बीच, विश्व हिंदू परिषद के महासचिव मिलिंद परांडे ने संगठन की वेबसाइट पर जारी एक नोट में दावा किया कि राज्य के प्रमुख और मुख्य रूप से हिंदू समुदाय मेइती के घरों और मंदिरों को निशाना बनाकर आगजनी और हमलों की 1,693 घटनाएं हुई हैं.
परांडे ने एक आदिवासी छात्रों के संगठन के दावों पर भी सवाल उठाया कि एक हिंसा प्रभावित क्षेत्र- आदिवासी बहुल पहाड़ी जिले चुराचंदपुर में तिपाईमुख- में केवल ईसाई शामिल हैं.
परांडे के एक पूर्व दावे का खंडन करने के लिए हमार स्टूडेंट्स एसोसिएशन द्वारा विचाराधीन बयान जारी किया गया था कि तिपाईमुख में तीन मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था.
विहिप नेता ने अपने ताजा बयान में यह भी पूछा कि इलाके में हिंदू कहां गए.
परांडे ने पूछा, “2011 की जनगणना रिपोर्ट ईसाई आबादी को 94.73% बताती है. 2021 की जनगणना अभी तक नहीं हुई है. अगर अब माना जाता है कि हिंदू नहीं हैं, तो हिंदू आबादी का क्या हुआ है? क्या हिंदुओं के साथ कुछ बुरा हुआ है, इसलिए अब वहां कोई हिंदू आबादी नहीं है?”
उन्होंने लिखा, “मणिपुर के हमार स्टूडेंट्स एसोसिएशन जैसे संगठनों द्वारा झूठे, शरारती और पक्षपाती आख्यानों के बारे में बहुत सावधान रहना होगा. मेइती समुदाय के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने वाले ड्रग माफिया, धन और हथियारों की संलिप्तता भी गंभीर चिंता का विषय है. इसे रोकने के साथ-साथ म्यांमार से चिन कुकियों की घुसपैठ को रोकने के लिए तत्काल कदम उठाए जाने चाहिए.”
पिछले महीने की शुरुआत से, मेइतेई और राज्य की मुख्य रूप से ईसाई आदिवासी कुकी आबादी के बीच संघर्ष बढ़ रहे हैं. दोनों पक्षों से नुकसान और मौतों हुई हैं.
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पीएमओ का नियम
दक्षिणपंथी झुकाव वाले वरिष्ठ पत्रकार हरि शंकर व्यास ने नया इंडिया में अपने कॉलम में आलोचनात्मक ढंग से लिखा है कि मोदी सरकार के 9 सालों में सत्ता का केंद्रीकरण कैसे बढ़ा है.
उन्होंने लिखा, “भारत में यह मुहावरा सुना गया है कि केवल तीन पद हैं – पीएम, सीएम और डीएम. इसके बावजूद, ऐसे मंत्री थे जो पहले खुलकर बात करने में सक्षम थे. लेकिन अब सबकुछ बदल गया है.”
उन्होंने तर्क दिया, “कम से कम मंत्रियों को अपने मंत्रालय चलाने का अधिकार था. लेकिन अब दिल्ली से लेकर हर राज्य की राजधानी तक, सभी मंत्रालय केवल एक कार्यालय से चलते हैं.”
उन्होंने आगे आरोप लगाया कि “केंद्रीकरण नामक विनाश” प्रधान मंत्री कार्यालय (पीएमओ) से शुरू हुआ.
उन्होंने कहा, “पहले भी पीएमओ बहुत महत्वपूर्ण था लेकिन उसका काम समन्वय करना था. इसे आगे बढ़ाने के लिए विभिन्न मंत्रालयों के मंत्रियों को पीएमओ द्वारा सहायता और सुविधा प्रदान की जाती थी. लेकिन अब गंगा विपरीत दिशा में बह रही है. अब मंत्रियों को अपने विभागों में बैठना पड़ता है, उनके पास पीएमओ या कैबिनेट सचिवालय से निर्देश आते हैं.”
उन्होंने कहा, “सभी योजनाएं वहां बनाई जाती हैं, सभी निर्णय वहीं किए जाते हैं, वहां से धन आवंटित किया जाता है और फिर कार्यान्वयन के लिए मंत्रालयों को दस्तावेज भेजे जाते हैं.”
एबीवीपी ने इकबाल को डीयू के पाठ्यक्रम से हटाने की सराहना की
दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) द्वारा कवि मोहम्मद इकबाल की रचनाओं को पाठ्यक्रम से हटाने और हिंदुत्व विचारक वीडी सावरकर पर एक खंड शुरू करने के विवादास्पद फैसले का आरएसएस से जुड़े छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ने स्वागत किया है.
अपनी पत्रिका, राष्ट्रीय छत्रशक्ति के डिजिटल संस्करण में प्रकाशित एक लेख में, एबीवीपी ने इस कदम का समर्थन व्यक्त किया. इसमें लिखा गया कि इकबाल “देश में कट्टर सांप्रदायिक उग्रवाद और विभाजन” को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार थे.
इकबाल पाकिस्तान के राष्ट्रीय कवि थे, लेकिन भारत में उन्हें देशभक्ति गीत ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तान हमारा’ के लेखक के रूप में जाना जाता है.
एबीवीपी के लेख में कहा गया है कि मोहम्मद अली जिन्ना को मुस्लिम लीग के भीतर एक नेता के रूप में स्वीकार करने में इकबाल ने एक “विशेष भूमिका” निभाई थी और उनका पूरा काम धार्मिक कट्टरता से भरा हुआ था.
लेख में लिखा गया है, “देश के विभाजन में इकबाल का योगदान मोहम्मद अली जिन्ना के बराबर है. एबीवीपी छात्रों में राष्ट्रवाद की भावना पैदा करने और औपनिवेशिक और वामपंथी दृष्टिकोण से लिखे गए झूठे नकारात्मक विषयों को हटाने के लिए भारतीय पाठ्यक्रम में वास्तविक सकारात्मक विषयों को शामिल करने का पुरजोर समर्थन करता है.”
इसने आगे दावा किया कि एबीवीपी 2019 से डीयू के पाठ्यक्रम के “भारतीयकरण” की मांग कर रहा था, और तब तक ऐसा करता रहेगा जब तक कि सभी पाठ्यक्रम “पूरी तरह से भारतीयकृत” नहीं हो जाते.
‘गांधीजी सावरकर के खिलाफ झूठ का पर्दाफाश कर रहे हैं’
संगठन से जुड़े एक थिंक-टैंक, प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक, वरिष्ठ आरएसएस नेता जे. नंदकुमार ने ऑर्गनाइज़र के एक लेख में दावा किया है कि महात्मा गांधी ने हिंदू राष्ट्रवादी वीर सावरकर को “भारत के वफादार पुत्र” के रूप में संदर्भित किया था.
उन्होंने लिखा, “कांग्रेस के लगातार शासन से राजनीतिक लाभ पाने के लिए, कम्युनिस्ट इतिहासकार वीर सावरकर की देशभक्ति की छवि को धूमिल करने के लिए बार-बार प्रयास कर रहे हैं.”
उन्होंने सुझाव दिया कि यह पूर्वाग्रह दया याचिकाओं के चित्रण में स्पष्ट था कि सावरकर और उनके भाई गणेश ने अंडमान द्वीप समूह के सेलुलर जेल में रहने के दौरान लिखा था.
नंदकुमार ने कहा, “उनके झूठे आरोपों के विपरीत, महात्मा गांधी बताते हैं कि कैसे सावरकर भाइयों को न्याय से वंचित किया गया था, जब अधिकांश राजनीतिक कैदियों को ‘शाही क्षमादान’ का लाभ मिला था.”
उन्होंने 1920 के उस लेख का भी जिक्र किया जो गांधी ने यंग इंडिया में सावरकर बंधुओं के बारे में लिखा था.
नंदकुमार ने वीडी सावरकर के बारे में गांधी को उद्धृत करते हुए लिखा, “सावरकर बंधुओं की प्रतिभा का उपयोग लोक कल्याण के लिए किया जाना चाहिए. वैसे भी, भारत को अपने दो वफादार बेटों को खोने का खतरा है, अगर वह समय पर नहीं जागती. एक भाई को मैं अच्छी तरह जानता हूं. मुझे लंदन में उनसे मिलने का सौभाग्य मिला. वह बहादुर है. वह बुद्धिमान है. वह एक देशभक्त हैं. वह स्पष्ट रूप से एक क्रांतिकारी थे.”
नंदकुमार ने कहा कि सावरकर पर महात्मा गांधी के लेखन को निकट की खोज के रूप में देखा जाना चाहिए, क्योंकि “इन ऐतिहासिक तथ्यों को दबाने का ठोस प्रयास” किया गया था.
उन्होंने कहा, “गांधीजी वास्तव में सावरकर के खिलाफ कम्युनिस्टों के झूठ का भंडाफोड़ कर रहे हैं, जिसने पिछले कई दशकों से भारत के सबसे बहादुर सपूतों में से एक पर संदेह की छाया डाली हुई है.”
(संपादन: ऋषभ राज)
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