नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने पिछले हफ्ते चुनावों के दौरान मतदाताओं को रिझाने के लिए दी जाने वाली ‘तर्कहीन मुफ्त सुविधाओं’ को नियंत्रित करने में मदद करने हेतु एक पैनल (समिति) बनाने का आह्वान किया था, लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार पहले से ही ऐसी मुफ्त में बांटी जा रही सुविधाओं के लिए पैसा जुटाए जाने पर रोक लगाने के तरीकों पर विचार कर रही है.
वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के अनुसार, इस बारे में केंद्र की राय यह है कि यदि किसी राज्य में कोई राजनीतिक दल मुफ्त बिजली या राशन जैसे ‘मुफ्त उपहार’ देना चाहता है, तो उसकी राज्य सरकार को ऐसी योजनाओं के लिए पैसा जुटाने के बारे में पारदर्शी होना चाहिए और ऑफ-बजट बोर्रोविंग (बजट के परे जाकार लिया गया ऋण) – जो राजकोषीय घाटे की गणना करते समय शामिल नहीं होता हैं – का सहारा नहीं लेना चाहिए.
एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने उनका नाम न छापने की शर्त पर दिप्रिंट को बताया, ‘आप यह नहीं कह सकते कि मैं आपको मुफ्त बिजली दूंगा और फिर सब्सिडी भी नहीं देंगें. फिर आप बिजली वितरण कंपनियों (वितरण कंपनियों) को भुगतान करते हैं. वास्तव में यह एक गलत चीज है और यह एक ऐसी समस्या है जिसका हम ठीक से हिसाब नहीं रखते हैं.’
सरल शब्दों में, इस अधिकारी के कहने का मतलब है कि, उदाहरण के लिए, यदि पंजाब सरकार अपने राज्य के बिजली उपभोक्ताओं को 300 यूनिट मुफ्त बिजली प्रदान करती है, तो उसे डिस्कॉम को बकाया राशि का पारदर्शी तरीके से भुगतान करना चाहिए और इसे राज्य के वित्तीय घाटे के हिस्से के रूप में दिखाना चाहिए.
इस अधिकारी ने कहा, ‘वे इन छिपी हुई देनदारियों को (बजट में) नहीं दिखाते हैं और इसलिए हम उन पर नकेल कस रहे हैं. हम इसे धीरे-धीरे सख्त कर रहे हैं.’
इस साल की शुरुआत में हुए पांच राज्यों में चुनावों के मद्देनजर घोषित की जा रहीं लोकलुभावन योजनाएं और ‘फ्रीबी कल्चर’ (मुफ्त उपहारों की संस्कृति) अर्थव्यवस्था पर उनके गलत प्रभाव– खासकर पंजाब जैसे कर्ज में डूबे राज्यों में – की वजह के तेजी से साथ जांच के दायरे में आ गए हैं.
पिछले महीने यूपी के जालौन में आयोजित एक कार्यक्रम में बोलते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने चुनावों के दौरान लोगों को ‘रेवड़ी संस्कृति’ (फ्रीबी कल्चर) के झांसे में आने के खिलाफ चेतावनी दी और इसे देश के विकास के लिए ‘खतरनाक’ बताया.
हालांकि, वास्तव में इस ‘रेवड़ी संस्कृति’ पर कैसे लगाम लगाई जा सकती है, इस बात पर फिलहाल सक्रिय रूप से विचार किया जा रहा है.
पिछले महीने, 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष रहे एन.के.सिंह ने ‘फाइनेंशियल एक्सप्रेस’ में लिखा था कि हालांकि केंद्रीय करों में राज्यों का हिस्सा उनका अधिकार है, परन्तु उन्हें मासिक रूप से दिए जाने वाले राजस्व घाटा अनुदान को मुफ्त उपहारों तथा ऑफ-बजट देनदारियों पर अंकुश लगाने से जोड़ा जा सकता है.
ये अनुदान राज्यों को वित्त आयोगों – जो केंद्र और राज्य के बीच के वित्तीय संबंधों पर सिफारिशें करने के लिए हर पांच साल में गठित होने वाला संवैधानिक निकाय हैं – द्वारा केंद्रीय करों के हस्तांतरण के बाद राज्यों के राजस्व खातों में अंतर को पाटने के लिए की गई सिफारिशों के तहत प्रदान किए जाते हैं.
15वें वित्त आयोग का कार्यकाल समाप्त हो चुका है मगर इसकी संस्तुतियां (सिफारिशें) 2025-26 तक 5 वर्ष की अवधि के लिए वैध हैं.
श्रीलंका में पैदा हुए आर्थिक संकट की पृष्ठभूमि में, इस साल जून में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के एक पेपर (शोधपत्र) ने भारतीय राज्यों की ‘राजकोषीय जोखिमों‘ का विश्लेषण करने का प्रयास किया गया था. इसने बताया कि आंध्र प्रदेश और पंजाब जैसे अत्यधिक कर्ज के बोझ तले दबे राज्यों के मामले में मुफ्त उपहार (फ्रीबी) उनके सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के 2 प्रतिशत से अधिक है.
उसी महीने, मुख्य सचिवों के एक राष्ट्रीय सम्मेलन में दिए गए एक प्रेजेंटेशन में वित्त सचिव टी.वी. सोमनाथन ने कहा था कि कई राज्य अपने राजस्व खर्च के लिए धन जुटाने हेतु नगरपालिका पार्कों, अस्पतालों और अन्य सार्वजनिक कार्यालयों जैसी सार्वजनिक संपत्तियों को गिरवी रख रहे हैं. राजस्व खर्च का अर्थ वेतन, पेंशन, कल्याणकारी योजनाओं और सब्सिडी जैसी मदों पर राज्य द्वारा किये जा रहे प्रतिबद्ध व्यय होता है.
इसी प्रेजेंटेशन में कहा गया था कि पांच राज्यों – आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश – ने मार्च 2022 को समाप्त होने वाले दो वर्षों के दौरान भविष्य के राजस्व की एस्क्रोइंग – किसी वित्तीय संस्थान के पास सुरक्षित रूप से संरक्षित की गयी राज्य की संपत्ति का उपयोग कर उनके खिलाफ ऋण जुटाना – के माध्यम से 47,316 करोड़ रुपये तक जुटाए हैं.
केंद्र सरकार के अनुसार, यदि ऐसे कोई ऋण जुटाए जाते हैं, तो उन्हें चालू वित्त वर्ष की शुरुआत में केंद्र द्वारा निर्धारित राज्यों की शुद्ध उधार सीमा (नेट बोर्रोविंग सीलिंग-एनबीसी) के तहत स्पष्ट रूप से इसका खुलासा किया जाना चाहिए.
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राज्यों की वित्तीय स्थिति पर कड़ी निगरानी रखना
इस दिशा में उठाये गए पहले कदम के रूप में, केंद्र सरकार ने वित्तीय वर्ष 2022-23 की शुरुआत में राज्य द्वारा उधार लेने पर शिकंजा कस दिया था.
इसने निर्णय लिया कि राज्य की संस्थाओं द्वारा लिए गए सभी ऑफ-बजट ऋण, जिनके मामले में मूल राशि और ऋण की ब्याज राज्य द्वारा ही चुकाई जाती है, को राज्यों के सकल ऋण का हिस्सा माना जाएगा और किसी भी वर्ष में राज्यों के लिए वार्षिक नेट बोर्रोविंग सीलिंग तय करते समय इसे ध्यान में रखा जाएगा.
एनालिटिक्स फर्म क्रिसिल रेटिंग्स द्वारा मई में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, 11 राज्यों – जो कुल देश की सकल जीएसडीपी में 75 प्रतिशत हिस्सा रखते हैं – द्वारा की गयी ऑफ-बैलेंस-शीट बोर्रोविंग (बही खाते से परे लिया गया उधार) साल 2021-22 में उनके जीएसडीपी के 4.5 प्रतिशत या 7.9 लाख रुपये करोड़ के साथ दशक के उच्चतम स्तर पर पहुंच गयी थी.
ये राज्य हैं महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश और केरल.
क्रिसिल की इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2022-23 में इन राज्यों के राजस्व का लगभग 4-5 प्रतिशत इस तरह की गारंटीशुदा देनदारियों की चुकाने में जाएगा, जिससे राज्य सरकारों द्वारा पूंजीगत व्यय के लिए फंड देने की क्षमता आंशिक रूप से कम हो जाएगी.
इस रिपोर्ट में क्रिसिल रेटिंग्स के वरिष्ठ निदेशक अनुज सेठी के हवाले से कहा गया है, ‘बिजली क्षेत्र – मुख्य रूप से डिस्कॉम – राज्यों के ऊपर बकाया गारंटीशुदा ऋण का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा रखता है. ये बिजली उत्पादन और ट्रांसमिशन (संचरण) कंपनियों के बकाए को चुकाने हेतु लिए गए थे, क्योंकि डिस्कॉम लगातार नकद घाटे में चल रहे थे. उनमें से अधिकांश के इस वित्तीय वर्ष में भी घाटा उठाये जाने की उम्मीद के साथ ही उच्च इनपुट लागत (मुख्य रूप से कोयला) के कारण, राज्यों को गारंटीशुदा ऋण को समय पर चुकाने के लिए उन्हें और अधिक सहायता प्रदान करनी होगी.‘
पहले उद्धृत की गयी आरबीआई की रिपोर्ट में भी यह बात रेखांकित की गयी थी कि बिजली क्षेत्र का राज्य सरकारों के वित्तीय बोझ – सब्सिडी और आकस्मिक देनदारियों दोनों के संदर्भ में – में बहुत अधिक हिस्सा है.
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