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Saturday, 23 November, 2024
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हक़्क़ानी के असर से चौकन्नी मोदी सरकार के तालिबान आउटरीच पर तुरंत प्रतिक्रिया की नहीं है संभावना

तालिबान भारत को आश्वासन दे रहे हैं कि उसे उनकी ओर से कोई ख़तरा नहीं है, बल्कि वो व्यवसासिक रिश्तों का स्वागत करते हैं. लेकिन नई दिल्ली को लगता है, कि किसी भी तरह की बातचीत में शामिल होना अभी ‘बहुत जल्दबाज़ी’ होगी.

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नई दिल्ली: भारत ने अफगानिस्तान में तालिबान के क़ब्ज़े पर, अभी तक ख़ामोशी अख़्तियार की हुई है, और कई सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया है, कि उसका अभी इस उग्रवादी समूह के साथ बातचीत करने का कोई इरादा नहीं है, जो दो सप्ताह पहले काबुल के अंदर घुस आया था, चूंकि उसे लगता है कि किसी भी तरह की बातचीत में शामिल होना, अभी बहुत जल्दबाज़ी होगी.

दिप्रिंट से बात करने वाले कुछ शीर्ष सूत्रों के अनुसार, तालिबान के सरकार बनाने के बाद भी, नई दिल्ली हड़बड़ी में तालिबान को मान्यता नहीं देगी, चूंकि उसे हक़्कानी नेटवर्क को दी जा रही ताक़त और ज़िम्मेदारियों को लेकर चिंता बनी हुई है, जो एक नामित आतंकी संगठन है जिसके अल क़ायदा के साथ रिश्ते हैं, ख़ासकर ऐसे समय जब पाकिस्तान का इस देश में असर बढ़ रहा है.

भारत उन देशों में था जिन्होंने तालिबान के काबुल पर क़ब्ज़ा करने के 24 घंटों के भीतर, सुरक्षा ख़तरों का हवाला देते हुए, अपना दूतावास बंद कर दिया था.

लेकिन, तालिबान ने बार बार स्पष्ट किया है, कि भारत को किसी भी तरह का नुक़सान नहीं पहुंचाया जाएगा. पिछले शनिवार शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकज़ई ने, जो क़तर के दोहा में तालिबान ऑफिस के प्रमुख हैं, कहा कि उग्रवादी संगठन ख़ासकर आर्थिक और व्यापारिक क्षेत्र में, भारत के साथ अच्छे रिश्ते बनाना चाहता है.

स्तानिकज़ई की टिप्पणी से पहले, दोहा में तालिबान के एक प्रमुख प्रवक्ता सुहेल शाहीन ने कहा था, कि पिछले दो दशकों में भारत ने अफगानिस्तान के विकास के लिए जो काम किया है, उनका ग्रुप उसकी सराहना करता है.

भारत ने इन संदेशों का अधिकारिक रूप से, अभी तक कोई जवाब नहीं दिया है. एक सूत्र के अनुसार, नई दिल्ली इस इंतज़ार में है कि तालिबान किस तरह की सरकार बनाते हैं, चूंकि काबुल शहर की सुरक्षा का ज़िम्मा हक़्क़ानी नेटवर्क को सौंप दिया गया है. भारत तालिबान और हक़्क़ानी नेटवर्क दोनों को, आतंकी संगठनों के तौर पर देखता है.

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी कहा था, कि तालिबान के साथ बातचीत करना अभी ‘जल्दबाज़ी’ होगी.

काबुल में भारत के पूर्व राजदूत राकेश सूद ने भी दिप्रिंट से कहा: ‘इस स्टेज पर हमें कोई संकेत देने की ज़रूरत नहीं है. वहां पर सुरक्षा को ख़तरा था, और इसी कारण हमने दूतावास को बंद किया…कुछ दूसरे देशों ने भी ऐसा ही किया, और जिन्होंने ऐसा नहीं किया वो खुले रहे…सवाल ये है कि इस समय आप कर भी क्या सकते हैं, जब काबुल शहर ख़ुद असुरक्षित हो गया है. अब वहां सिर्फ तालिबान ही नहीं, बल्कि हक़्कानी नेटवर्क, और आईएसआईएस–के (इस्लामिक स्टेट-ख़ोरासान) भी हैं…किसी भी तरह के आपसी रिश्ते निभाने के लिए अनुकूल माहौल कहां है?’

फिलहाल, नरेंद्र मोदी सरकार की प्राथमिकता उन सैकड़ों भारतीयों को बाहर निकालना है, जो अभी भी अफगानिस्तान में फंसे हैं. वो कमर्शियल फ्लाइट्स के फिर से खुलने का भी इंतज़ार कर रही है, जिसके बाद वो ऐसे लोगों को ई-वीज़ा जारी करना शुरू करेगी, जो अफगानिस्तान छोड़ना चाह रहे हैं, जिनमें पूर्व की अशरफ ग़नी सरकार के कई पदाधिकारी शामिल हैं. भारत द्वारा अभी तक निकाल कर लाए गए अफगान नागरिकों में, अधिकतर सिख या हिंदू समुदाय से हैं.


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हक़्क़ानी से ‘परेशानी’

सूत्रों ने कहा कि भारत को ख़ास ‘परेशानी’ ये है, कि तालिबान किस तरह ख़तरनाक हक़्क़ानी नेटवर्क को शक्तियां दे रहे हैं, जो ग़नी सरकार के पतन और अमेरिकी तथा नेटो सैनिकों की पूरी वापसी के बाद, तेज़ी के साथ सत्ता में आ रहा है.

हक़्क़ानी नेटवर्क का अल क़ायदा के साथ क़रीबी रिश्ता है, वो आतंकी संगठन जिसने 9/11 हमलों को अंजाम दिया था, जिसके बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया था. ऐसा माना जाता है कि ये नेटवर्क पाकिस्तान में, वहां की खुफिया एजेंसी इंटर-सर्विसेज़ इंटेलिजेंस (आईएसआई) की निगरानी में वजूद में आया था. हक़्क़ानी नेटवर्क के संस्थापक जलालुद्दीन हक़्क़ानी के सबसे छोटे बेटे, अनस हक़्क़ानी ने हाल ही में एक इंटरव्यू में कहा था, कि तालिबान और हक़्क़ानियों में कोई अंतर नहीं है. उसने कहा था, ‘हम ही तालिबान हैं’.

अनस अब अफगानिस्तान में गठित होने वाली सरकार के लिए, प्रमुख दावेदारों में से एक है. ग्रुप के मुख्य वार्त्ताकार के नाते, उसने पूर्व अफगान राष्ट्रपति हामिद करज़ई, और पूर्व शांति वार्त्ताकार अब्दुल्लाह अब्दुल्लाह के साथ मुलाक़ातें करके, अपने हिस्से की नेटवर्किंग पहले ही कर ली है. नई अफगान सरकार में ज़्यादा असर रखने की उसकी इच्छा को, इन मुलाक़ातों से बल मिल सकता है.

इस बीच भारत, जिसने पिछली ग़नी सरकार में भारी निवेश किया, तालिबान के लिए भी अपने दरवाज़े खुले रखे. ये उस समय ज़ाहिर हो गया था, जब भारत ने इंट्रा-अफगान शांति वार्त्ता में हिस्सा लिया, जो 2020 में दोहा में शुरू हुईं थीं.

पिछले कुछ महीनों में जब पासा पलटना शुरू हुआ, तो भारत ने सावधानी दिखाते हुए यूएन सुरक्षा परिषद (यूएनएससी), और यूएन मानवाधिकार परिषद की ओर से जारी बयानात से, तालिबान शब्द का उल्लेख निकाल दिया.

रविवार को यूएनएससी ने एक संकल्प अपनाया, जिसके तहत तालिबान को अपनी उस प्रतिबद्धता का पालन करना होगा, कि वो अफगान लोगों को आज़ादी से देश से बाहर जाने देंगे, लेकिन इन उपायों में किसी ‘सुरक्षित ज़ोन’ का उल्लेख नहीं किया गया.

स्थिरता लाना पहला क़दम होना चाहिए

एक दूसरे सूत्र के अनुसार नई दिल्ली का मानना है, कि युद्ध से तबाह देश में जो भी नई सरकार आती है, उसे सबसे पहले वहां स्थिरता और सुरक्षा क़ायम करनी होगी, जिसके बाद ही तालिबान और उनके सहयोगी, किसी मुल्क के साथ अच्छे कूटनीतिक रिश्ते बनाने की इच्छा कर सकते हैं.

सूत्रों ने दिप्रिंट से कहा कि उग्रवादी इस्लामिक स्टेट के एक गुट, आईएसआईएस-ख़ोरासान की मौजूदगी की वजह से, न सिर्फ भारत बल्कि दूसरे मुल्कों के लिए भी, तालिबान की अगुवाई वाली किसी सरकार को मान्यता देना मुश्किल होगा, चूंकि इस बात की पूरी संभावना है, कि अफगानिस्तान एक बार फिर आतंकवाद की पनाहगाह बन सकता है.

पूर्व राजदूत सूद ने कहा, ‘रूस और चीन ने अपने दूतावास खुले रखे हैं… ऐसे में उन्हें सबसे पहले तालिबान सरकार को मान्यता देनी चाहिए. वो ऐसा क्यों नहीं कर रहे हैं? आख़िर वो यूएन के स्थाई सदस्य हैं. वो ऐसा बयान क्यों जारी नहीं कर देते, कि वो काबुल में नई सरकार को मान्यता देते हैं?’

एक और पूर्व राजदूत गौतम मुखोपाध्या, जिन्होंने तालिबान को हटाए जाने के बाद, नवंबर 2001 में उप-राजदूत के नाते काबुल में भारतीय दूतावास को फिर से खोला था, ने कहा, ‘बुनियादी तौर पर यहां दो मुद्दे हैं. पहला ये, कि हम जानना चाहेंगे कि भारत को लेकर वो कितने गंभीर हैं, और दूसरा ये कि वो अपने अधिकांश अफगान भाई-बहनों के साथ किस तरह पेश आते हैं, जो 20 सालों से हमारे सहभागी रहे हैं, जिनके साथ हम नागरिक, राजनीतिक, और मानवीय अधिकार, तथा आज़ादी और अवसर साझा करते हैं, और जो अब अफगानिस्तान से बाहर निकलने के लिए हताश हैं’.

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर विज़िटिंग फेलो मुखोपाध्या ने ये भी कहा, ‘हमने दोहा में इंट्रा-अफगान शांति वार्त्ता के ज़रिए, एक समावेशी शांति प्रक्रिया का समर्थन किया है, जिसमें तालिबान भी शामिल थे. दुर्भाग्य से, इसकी बजाय उन्होंने सैन्य क़ब्ज़े का विकल्प पसंद किया. फायदे की ख़ातिर तालिबान के लिए हम 20 वर्ष से चले आ रहे अपने दोस्तों को नहीं छोड़ सकते, जब तक कि उन्हें भी इसमें शामिल न किया जाए’.

‘अब सवाल ये है कि ताक़त के बल पर सत्ता हथिया लेने के बाद, क्या (तालिबान नेताओं द्वारा दिए गए) आश्वासनों पर यक़ीन किया जा सकता है, या ये सिर्फ इसलिए कहा जा रहा है कि एक ऐसे देश से मान्यता मिल जाए, जिसके साथ अफगानिस्तान के ऐतिहासिक रिश्ते रहे हैं, लेकिन जिसके साथ उसने अभी तक, उसने खुले तौर पर कारोबार नहीं किया है?

उन्होंने आगे कहा, ‘क्या वो वास्तव में आईएसआई के खिलाफ हमारे सुरक्षा हितों की गारंटी दे सकते है, चाहे उसका ताल्लुक़ हमारे दूतावासों, वाणिज्य दूतावासों, स्थानीय स्टाफ समेत उनके कर्मियों की सुरक्षा से हो, या पाकितान-स्थित भारत विरोधी आतंकी एजेंसियों, या कश्मीर, या पाकिस्तान, और अब शायद चीन से हो? …हमें तब तक अपनी प्रतिक्रिया नहीं देनी चाहिए, जब तक वो किसी परस्पर स्वीकार्य सत्ता के बटवारे, या राजनीतिक समझौते पर नहीं पहुंच जाते, जिसके तहत एक समावेशी सरकार में सभी राजनीतिक हितों को समायोजित नहीं किया जाता’.

तालिबान ने हाल ही में मुल्ला अब्दुल क़य्यूम ज़ाकिर को, जो गुआंतानामो का एक पूर्व बंदी है, अपना कार्यवाहक रक्षा मंत्री नियुक्त किया है. अन्य के अलावा उन्होंने एक अनुभवी तालिबान लड़ाके नजीबुल्लाह को, अपना खुफिया प्रमुख नियुक्त किया है.

अपेक्षा की रही है कि तालिबान शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की आगामी बैठक में भी, अनौपचारिक रूप से हिस्सा ले सकते हैं. एससीओ शिखर सम्मेलन 16-17 सितंबर को ताजिकिस्तान के दुशांबे में आयोजित होने जा रहा है. इस शिखर सम्मेलन के दौरान एससीओ-अफगानिस्तान संपर्क दल की भी एक बैठक आयोजित की जाएगी.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वर्चुअल तरीक़े से इस बैठक में शरीक होने की संभावना है, हालांकि इस बारे में अधिकारिक ऐलान होना अभी बाक़ी है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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