नई दिल्ली: अगर सब कुछ योजना के अनुसार रहा, तो भारत अगले कुछ महीनों में दक्षिण अफ्रीका से 12 चीतें लाने की अपनी योजना में सफल हो जाएगा. इस योजना का मकसद एक ऐसी प्रजाति को फिर से लाकर जंगल में बसाना है जो पहली बार 1950 के दशक में भारत में विलुप्त हो गई थी.
मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में चीतों के आवास की तैयारी चल रही है, हालांकि उनके आगमन के विवरण को अंतिम रूप दिया जाना बाकी है. यह पार्क चीतों को फिर से अस्तित्व में लाने और उन्हें बसाने के लिए मुख्य स्थल के तौर पर तैयार किया गया है.
दक्षिण अफ्रीका के पर्यावरण, वानिकी और मत्स्य पालन विभाग के एक प्रवक्ता ने दिप्रिंट को बताया कि चीतों को फिर से जंगल में लाकर बसाने का प्रस्ताव मिल चुका है और इस पर विचार किया जा रहा है.
वैसे अन्य आठ चीतों को नामीबिया से भी लाया जाना था लेकिन नामीबियाई सरकार ने कथित तौर पर बड़ी बिल्लियों को स्थानांतरित करने के भारत के प्रस्ताव पर अभी तक सहमति नहीं जताई है.
दक्षिण अफ्रीका के प्रवक्ता ने आगे कहा कि दक्षिण अफ्रीका के एक प्रतिनिधिमंडल ने 15 से 17 जून के बीच मध्य प्रदेश के वन और वन्यजीव विभागों का दौरा किया था, ताकि अधिकारियों को यह जानकारी दी जा सके कि चीतों के आने के बाद उन्हें कैसे संभालना है.
इस महीने की शुरुआत में भारत के एक प्रतिनिधिमंडल ने दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया दोनों देशों का दौरा किया. उनकी इस यात्रा का मकसद यह जानना था कि जानवरों का इलाज और देखभाल कैसे की जाती है.
दोनों देशों के प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा रहे कुनो नेशनल पार्क के निदेशक प्रकाश वर्मा ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमने चीतों की सेहत को प्रभावित करने वाली बीमारियों के बारे में जाना और साथ ही उन्हें रहने के लिए किस तरह की परिस्थितियों की जरूरत होगी और उनकी उचित निगरानी कैसे की जानी चाहिए, उसके बारे में भी सीखा.’
इस योजना पर प्रतिक्रिया लेने के लिए दिप्रिंट ने नामीबियाई सरकार के एक प्रतिनिधि के पास ई-मेल किया था, लेकिन इस खबर के प्रकाशित होने तक कोई जवाब नहीं मिला.
पहले ईरान से और अब अफ्रीकी महाद्वीप से चीतों को भारत लाने की योजना दशकों से चली आ रही है और साथ ही विवादों से भी भरी रही. भारत में संरक्षणवादियों को योजना की सफलता पर संदेह है. उन्हें डर है कि यह एशियाई शेर की तरह अन्य लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण से ध्यान को भटका देगी जिन्हें स्थानांतरण की जरूरत है.
2012 में सुप्रीम कोर्ट ने चीतों को आयात करने की सरकार की योजना पर रोक लगा दी थी और 2013 में अपने रुख को दोहराते हुए कहा कि सरकार को अफ्रीका से चीतों को लाने से पहले एक विस्तृत अध्ययन करने की जरूरत है.
कुनो नेशनल पार्क को मूल रूप से गुजरात के गिर से एशियाई शेर के रीइंट्रोडक्शन के लिए तैयार किया गया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में ‘अत्यंत महत्वपूर्ण’ बताया और फैसले के छह महीने के भीतर शेरों का स्थानांतरण करने के लिए कहा.
लगभग एक दशक बाद, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) द्वारा 2017 में अपने फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए शीर्ष अदालत से अपील की, जिसके बाद चीता प्रोजेक्ट, शेरों के आवास स्थान में विविधता लाने पर भारी पड़ गया. आवास स्थान में विविधता को भारत में संरक्षणवादी इनके लंबे समय तक अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जरूरी मानते हैं.
एनटीसीए की अपील के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 2020 में इसे ‘प्रयोगात्मक आधार’ पर चीता लाने की योजना को अनुमति दी, जबकि एससी द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ पैनल ने परियोजना को खारिज कर दिया था.
सरकार ने इस साल जनवरी में ‘भारत में चीता की प्रजाति को फिर से अस्तित्व में लाने के लिए कार्य योजना‘ जारी की और मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक, अधिकारियों का अनुमान है कि चीता अगस्त की शुरुआत में आ सकते हैं और यह लुप्तप्राय प्रजातियों का पहला अंतरमहाद्वीपीय स्थानांतरण होगा.
परियोजना से जुड़े एक दक्षिण अफ्रीकी संरक्षण जीवविज्ञानी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘मेरा अपना मानना है कि भारत को भेजे गए इन चीतों की संस्थापक आबादी के लिए जीवित रहने की दर कम होगी और साथ ही हमें शुरुआत में मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है.’
जीवविज्ञानी ने कहा, ‘जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, भारतीय संरक्षण अधिकारी सीखते रहेंगे, जैसा कि हमने दक्षिण अफ्रीका में किया था. यहां 1965 से 70 से अधिक चीतों के प्रजनन का प्रयास किया गया. शुरू में गलतियां होंगी, लेकिन उनसे सबक भी सीखा जाएगा.’
इन गलतियों की कीमत और उन्हें महसूस करने में लगने वाला समय भारत में संरक्षणवादी के लिए चिंता का विषय है.
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चीतों के लिए कब बनी योजना
प्राकृतिक दुनिया की स्थिति पर एक ग्लोबल अथोरिटी, इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर के मुताबिक, दुनिया में लगभग 7,100 चीते बचे हैं और लगातार प्रयासों के बावजूद उनकी संख्या में गिरावट आई है.
भारत में लुप्त हो चुके चीतों की आबादी को फिर से अस्तित्व में लाने की इस योजना की घोषणा 2009 में की गई और 2010 में तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के नेतृत्व में तैयार की गई थी. इस योजना को भारत के लिए वन्यजीव संरक्षण में वैश्विक सफलता हासिल करने के अवसर के रूप में प्रचारित किया गया था.
सबसे पहले भारत सरकार ने दुर्लभ एशियाई चीते लाने के लिए ईरान से संपर्क किया था ताकि उपमहाद्वीप में उनकी आबादी को फिर से बसाया और बढ़ाया जा सके. ये वही उप-प्रजाति है जो भारत में विलुप्त हो गई थी. सरकार एशियाई चीतों की क्लोनिंग करने के लिए भी उत्सुक थी, लेकिन ईरान अपने ही देश में प्रजातियों की कम संख्या का हवाला देते हुए इस योजना के लिए हामी भरने से लगातार इनकार करता रहा.
योजना को बनाए रखने के लिए सरकार ने अफ्रीका से चीता को आयात करने की तरफ देखना शुरू कर दिया. यह एक अलग उप-प्रजाति है जो भारत में कभी अस्तित्व में नहीं रही.
दक्षिण अफ्रीका में स्थित एक विशेषज्ञ वन्यजीव पशु चिकित्सक और रिइंट्रोडक्शन योजना में शामिल डॉ एड्रियन टॉर्डिफ ने दिप्रिंट को बताया, ‘अफ्रीकी और एशियाई चीतों के बीच कुछ मामूली सा रूपात्मक अंतर है लेकिन अलग वातावरण में जीवित रहने की उनकी क्षमता के संदर्भ में इन विशेषताओं का होना शायद ज्यादा महत्वपूर्ण न हो.’
दक्षिण अफ्रीका में चीता कई तरह के आवासों में जीवित रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘इसलिए, हम उन्हें सीमित आनुवंशिक परिवर्तनशीलता के बावजूद यहां के वातावरण के काफी अनुकूल मानते हैं.’
जूलॉजिकल सोसाइटी ऑफ लंदन एंड वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन सोसाइटी की सीनियर रिसर्च फेलो सारा ड्यूरेंट ने दिप्रिंट को ई-मेल से बताया, ‘ऐसे समय में जब दुनियाभर में बड़ी बिल्ली की आबादी घट रही है. भारत सरकार का चीते को फिर से अस्तित्व में लाने का लक्ष्य सराहनीय है.’ उन्होंने आगे लिखा, परियोजना की सफलता के लिए उनका प्रबंधन और अल्टीमेट रिलीज जरूरी है.
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क्या भारत चीतों को एक बेहतर आवास दे सकता है?
उम्मीद यही है कि 224 करोड़ रुपये के प्रयास (जैसा कि सरकार ने अपने चीता रीइंट्रोडक्शन योजना दस्तावेज में अनुमान लगाया है) का परिणाम जीरो नहीं होगा. कई अध्ययनों से पता चला है कि कैद में रखे गए चीतों का प्रजनन बेहद मुश्किल होता है.
वन्यजीव पशु चिकित्सक टॉर्डिफ ने कहा, ‘चीते को किसी भी चीज से ज्यादा, जगह की जरूरत होती है. भारत में चीते की आबादी बढ़ाने के लिए सुरक्षा, पर्यावरण और शिकार की प्रजातियों की जरूरत है, जिससे भविष्य में इनके यहां जीवित रहने की कुछ संभावना नजर आती हैं.’
उन्होंने कहा, ‘ऐसा लगता है कि भारत सरकार को बाघों के संरक्षण में बड़ी सफलता मिली है और मेरा मानना है कि उनके पास चीतों के लिए भी इसे प्रभावी ढंग से चलाने की विशेषज्ञता मौजूद है.’
कुनो नेशनल पार्क के निदेशक वर्मा ने दिप्रिंट को बताया कि कूनो नेशनल पार्क के 500 हेक्टेयर में आठ अलग-अलग हिस्से और बहुत सारे पानी के छिद्रों का एक बाड़ा बनाया गया है. कैमरों और रेडियो कॉलर के जरिए चीतों पर कड़ी नजर रखी जाएगी.
लेकिन क्या उनके लिए शिकार का आधार वास्तव में पर्याप्त है? जीवित रहने के लिए चीतों को न केवल पर्याप्त शिकार की जरूरत होती है, बल्कि उनके इलाके में शिकारियों और कम मानव गतिविधियां का होना भी जरूरी हैं.
दक्षिण अफ्रीका के पहले उद्धृत संरक्षण जीवविज्ञानी ने कहा, ‘कुनो नेशनल पार्क में तेंदुआ काफी ज्यादा है.’ वह आगे कहते हैं, ‘मुझे तेंदुओं के साथ संघर्ष, जाल में फंसने, भुखमरी और शायद मानव-वन्यजीव संघर्ष के चलते (शुरुआत में) ज्यादा नुकसान की आशंका है. भले ही हम नियमित तौर पर उन्हें सप्लीमेंट देते हुए एक मेटापॉपुलेशन एप्रोच को अपनाएं.’
दिप्रिंट को पता चला है कि 12 चीतों के शुरुआती जत्थे को भारत लाए जाने के बाद से हर साल आठ चीतों को दक्षिण अफ्रीका से लाया जाएगा.
जीवविज्ञानी ने कहा, ‘उम्मीद है कि हम शुरू में सबसे अधिक आबादी वाली उप-प्रजाति, दक्षिण अफ्रीकी चीता को रीइंट्रोड्यूस करने में सफल रहेंगे. हो सकता है इनमें से कुछ चीतों को हम खो दें लेकिन एक कीमती सबक तो सीख ही जाएंगे और उन्हें पालने की क्षमता भी हमारे पास आ जाएगी. और फिर हम भारत में अधिक लुप्तप्राय चीता उप-प्रजातियों के फिर से अस्तित्व में लाने और उनके पुनर्वास की तरफ देख सकते हैं.’
संरक्षण जीवविज्ञानी फैयाज खुदसर ने आठ साल तक कुनो नेशनल पार्क में काम किया है और शेरों के स्थानांतरण योजना पर पीएचडी की है. उनके मुताबिक, चीता के लिए सबसे अच्छा शिकार चिंकारा (भारतीय चिंकारा) है.
पुनर्वास योजना की तकनीकी रिपोर्ट के अनुसार अभयारण्य के प्रति वर्ग किलोमीटर में 0.19 चिंकारा हैं.
खुदसर ने कहा, ‘यह इलाका शेरों के लिए तैयार किया गया था. चीते का शिकार का आधार क्या होगा? चिंकारा की संख्या कम हो रही है, जैसे कि ब्लैकबक की भी. जबकि तेंदुए की आबादी बढ़ी है. यह योजना हानिकारक हो सकती है.’
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संरक्षणवादियों ने कहा, ‘हमारे अपने वन्यजीव क्यों नहीं?’
चीता रिलोकेशन को भारत के तेजी से घटते घास के मैदानों के संरक्षण के साधन के रूप में भी देखा जा रहा है, जो कि असंख्य अन्य प्रजातियों का घर है. जिसमें गंभीर रूप से लुप्तप्राय ग्रेट इंडियन बस्टर्ड और लुप्तप्राय भारतीय भेड़िया शामिल हैं.
मेटास्ट्रिंग फाउंडेशन के सीईओ और जैव विविधता सहयोग के समन्वयक रवि चेल्लम ने कहा, ‘सरकार ने घास के मैदानों को बंजर भूमि के रूप में वर्गीकृत किया है. अगर वह बंजर भूमि हैं तो इस इकोसिस्टम के संरक्षण के लिए हमें चीतों की जरूरत क्यों है? यह एक गैर-जरूरी और काफी महंगी योजना है जो असफल होने के लिए अभिशप्त है.’
योजना के अनुसार, एक बार इन चीतों को यहां के माहौल में ढल जाने के बाद कुनो नेशनल पार्क में 36 चीतों की मेजबानी करने के लिए तैयार है.
उन्होंने आगे कहा, ‘छत्तीस चीते काफी नहीं है और यह एक ऐसी प्रणाली है जिसके लिए एक ऐसी प्रजाति को अस्तित्व में लाने के लिए बड़े हस्तक्षेप की जरूरत होती है, यह भारत के लिए संरक्षण प्राथमिकता नहीं है. राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना, 2017-31 में भी इसका उल्लेख नहीं है.’
दिप्रिंट से बात करते हुए, खुदसर और चेल्लम दोनों ने एशियाई शेरों के स्थानांतरण की जरूरत के बारे में बताया- इसमें गुजरात सरकार भाग लेने के लिए अनिच्छुक रही है क्योंकि पूरी आबादी को बीमारी के जोखिम से प्रभावित किया जा रहा है.
चेल्लम ने पूछा, ‘अफ्रीकी चीतों को क्यों बचाएं? हमारे अपने वन्यजीव क्यों नहीं?’
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