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Monday, 24 June, 2024
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कोरोना के कारण प्रवासी संकट पर सुप्रीम कोर्ट के रवैये को लेकर वकीलों ने लिखा मुख्य न्यायाधीश को पत्र

पत्र में कहा गया है कि मौजूदा प्रवासी संकट इस बात का लक्षण है कि मनमाने तरीके से शासकीय उपाय लागू करते समय सरकार ने किस तरह से समता, जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा के संवैधानिक वायदों को पूरी तरह नजरअंदाज किया है.

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नई दिल्ली: कोरोनावायरस महामारी की वजह से लागू लॉकडाउन के कारण प्रवासी कामगारों की दुर्दशा पर उच्चतम न्यायालय द्वारा मंगलवार को स्वत: ही संज्ञान लिये जाने से एक दिन पहले देश के 20 प्रमुख वकीलों ने प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबडे और अन्य न्यायाधीशों को तल्ख पत्र लिखा था, जिसमें कहा गया था कि इस मानवीय संकट के प्रति शीर्ष अदालत के उदासीन रवैये को अगर तुरंत ठीक नहीं किया गया तो इसका मतलब उसका अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना होगा.

न्यायमूर्ति अशोक भूषण की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने देश के विभिन्न हिस्सों में फंसे इन कामगारों की दयनीय स्थिति का मंगलवार को स्वत: संज्ञान लेते हुये केन्द्र ओर राज्यों को नोटिस जारी किये थे. पीठ ने केन्द्र और राज्यों से कहा था कि इन कामगारों को राहत प्रदान करने के लिये कदम उठाये जायें क्योंकि ये कदम अपर्याप्त रहे हैं ओर इनमें कमियां थीं.

इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में वरिष्ठ अधिवक्ता पी चिदंबरम, कपिल सिब्बल, आनंद ग्रोवर, इन्दिरा जयसिंह, प्रशांत भूषण और इकबाल छागला आदि शामिल हैं. इस पत्र में शीर्ष अदालत में कतिपय जनहित याचिकाओं पर की गयी कार्यवाही का जिक्र करते हुये अनुरोध किया गया है कि इन कामगारों की मदद के लिये इसका न्यायिक संज्ञान लिया जाये.

पत्र में कहा गया है, ‘हम सम्मानपूर्वक कहते हैं कि सरकार की ओर से दिये बयान और इस व्यापक मानवीय संकट के प्रति न्यायालय का उदासीन रवैया, यदि इसे तत्काल दुरूस्त नहीं किया गया, इन लाखों गरीबों, भूखे प्रवासियों के प्रति शीर्ष अदालत द्वारा अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी और कर्तव्यों से मुंह मोड़ने जैसा होगा.’

इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले अन्य वकीलों में मोहन कतर्की, सिद्धार्थ लूथरा, संतोष पॉल, महालक्ष्मी पवनी, सीयू सिंह, विकास सिंह, एस्पी चिनॉय, मिहिर देसाई, जनक द्वारकादास, रजनी अय्यर, यूसुफ मुछाला, राजीव पाटिल, नवरोज सिरवई, गायत्री सिंह और संजय सिंघवी भी शामिल हैं.

पत्र में कहा गया है कि मौजूदा प्रवासी संकट इस बात का लक्षण है कि मनमाने तरीके से शासकीय उपाय लागू करते समय सरकार ने किस तरह से समता, जीवन, स्वतंत्रता और गरिमा के संवैधानिक वायदों को पूरी तरह नजरअंदाज किया है.

पत्र के अनुसार शीर्ष अदालत द्वारा सरकार को जिम्मेदार ठहराने और इन लाखों गरीब प्रवासियों को राहत प्रदान करने के प्रति अनिच्छा से नागरिकों के मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में उसकी सांविधानिक भूमिका और हैसियत का बुरी तरह ह्रास होगा.


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पत्र में कहा गया है कि शीर्ष अदालत की संवैधानिक भूमिका और कर्तव्य मौजूदा संकट के दौर जैसे समय में अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं जब पूरा देश और उसकी अर्थव्यवस्था 24 मार्च से लॉकडाउन में है. पत्र में आगे लिखा है कि देश में 75 प्रतिशत से ज्यादा कामगार अपनी आजीविका गैर संगठित क्षेत्रों से अर्जित करते हैं और लॉकडाउन का नतीजा यह हुआ कि कामगारों का तत्काल रोजगार, आजीविका और जीवित रहने का साधन खत्म हो गया.

पत्र के अनुसार शीर्ष अदालत ने सरकार की स्थिति रिपोर्ट का संज्ञान लिया जिसमें प्रवासी श्रमिकों के आवागमन पर प्रतिबंध लगाने संबंधी सर्कुलर का जिक्र कया गया था. उसने मार्च महीने में यह वक्तव्य भी स्वीकार किया कि कोई भी कामगार अपने गृह नगर या गांव पहुंचने के लिये पैदल सड़क पर नहीं चल रहा है.

इसमें आगे कहा गया है कि न्यायालय के हस्तक्षेप करने में असफल रहने का नतीजा यह हुआ कि जब कोविड के मामले कुछ सौ ही थे, ये लाखों प्रवासी कामगार अपने घरों की ओर जाने में असमर्थ थे और उन्हें बगैर किसी रोजगार या आजीविका के और यहां तक कि भोजन के किसी पुख्ता स्रोत के बगैर ही छोटे-छोटे कमरों या फुटपाथ पर रहने के लिये मजबूर होना पड़ा.

पत्र में आपातकाल का भी जिक्र किया गया जब नजरबंदियों को कार्यपालिका के समक्ष माफी मांगने के लिये मजबूर किया गया था.

इन वकीलों ने अपने पत्र में जनहित याचिकाओं की गौरवशाली परंपरा का जिक्र करते हुये कहा कि इसने हमेशा के लिये भारत के संवैधानिक न्याय शास्त्र को ही बदल दिया और बंधुआ मजदूर,जेल सुधार, पर्यावरण और भोजन के अधिकार जैसे विषयों पर विचार किया.

इस बीच, कांग्रेस के एक अन्य वरिष्ठ नेता रणदीप सिंह सुरजेवाला ने भी इस मामले में हस्तक्षेप की अनुमति के लिये न्यायालय में एक आवेदन दायर किया है.

इस सारे मामले पर न्यायालय बृहस्पतिवार को सुनवाई करेगा.

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